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मूलाचार प्रदीप
( १३ )
[प्रथम अधिकार अंकुर, बीज, पत्र, पुष्प आदि के आश्रित रहने वाले वनस्पति कायिक जीचोंका छेदन, भेदन, पीडन, वध, बाधा, स्पर्श और विराधना प्रादि न तो स्वयं करते हैं और न दूसरों से कराते हैं ।।८५-८६॥ सेवालं पुष्पिकादीना, मनंतकायदेहिनाम् । विधया जातु हिसा न, गमनागमनादिभिः ॥७॥
अर्थ-मुनियोंको गमन, आगमन आदिके करने में सेवाल (काई) और पुष्पिका (फूलन अथवा बरसात में होनेवाला एक छोटा पौधा जिसके ऊपर सफेद फूलसा रहता है) आदि में रहनेवाले अनंतकाय जीवोंकी हिंसा भी कभी नहीं करनी चाहिये ॥६॥ ये वनस्पति काया ये, वनस्पश्यंगमाश्रिताः । वनस्पतिसमारंभावधस्तेषां हि वेहिनाम् ॥
अर्थ वनस्पति का समारंभ करने से, वनस्पति कायिक जीव और वनस्पति कायके आश्रित रहनेवाले जीवों की हिंसा अवश्य होती है ।।८। तस्मारोषां समारमा वा योनिक अधि। रिला नामोहन्मुद्रा स्वीकृतयोगिनाम् ।।
____ अर्थ-इसलिये अहमुद्रा या जिनलिंग को स्वीकार करने वाले मुनियों को अपने जीवन पर्यंत मन बचन कायसे उन दोनों प्रकारको वनस्पति का समारंभ नहीं करना चाहिए ॥६॥ न रोचतेऽत्रयो घतान्, जोवान् धनस्पति गतान् । जिनधर्मवाहिनं तो, मिम्यादृष्टिः स पापषी।।
__अर्थ---जो मुनि वनस्पति में प्राप्त हुए इन जीवों को नहीं मानता उसे जिन धर्म से बाहर मियादृष्टि और पापी समझना चाहिये ॥६॥ विनायेति न कसंख्या, वनस्पति विराधना । हस्तपायाविभिनति, एनन्तं सरवनाशवा ॥१॥
अर्थ-यही समझकर अपने हाथ, पैर प्रावि के द्वारा अनंत जीवों का नाश करनेवाली वनस्पति की विराधमा कभी नहीं करनी चाहिये ॥६॥
स जीवों की विराधना का निषेधद्वित्रितूर्येन्द्रियाणां च, पंचाक्षाणो बसात्मनाम् । बाधानव विधातव्या, मुनिभियंत्नतत्परः ॥
अर्थ-प्रयत्न करने में तत्पर रहने वाले मुनियों को दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेन्द्रिय अस जीवों की बाधा कभी नहीं करनी चाहिये ॥६॥ गमने चासने स्थाने, रात्रौ वा दृष्टिगोचरे । सर्वथा च दया कार्या, मृदु पिच्छिकभरणात् ॥१३॥