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"नासमझ थी, समझी बात, माँ ! उलझी थी, अब सुलझी, माँ! अब पीने को जल-तत्त्व की अपेक्षा नहीं; अब जीन को बल-सत्त्व की अपेक्षा नहीं टूटा-फूटा फटा हुआ यह जीवन जुड़ जाय बस, किसी तरह शाश्वत सत् से,
__ "सातत्य चित्त से बेजोड़ बन जाय, बस: अब सीने को
सूई-सूत्र की अपेक्षा नहीं। जल में जनम लेकर भी जलती रही यह मछली जल से, जलचर जन्तुओं से जड़ में शीतलता कहाँ माँ? चन्द पलों में इन चरणों में जो पाई !
मलयाचल का चन्दन
और
चैतीहारिणी चाँद की चमकती चाँदनी भी चित्त से चली गई उछली-सी कहीं मेरी स्पर्शा पर आज। हषां की वर्षा की है तेरी शीतलता ने। माँ ! शीत-लता हो तुम ! साक्षात् शिवायनी !
मूक मार्टी :::