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विकट से विकटतम संकट भो कट जाते हैं पल भर में;
आपको स्मरण में लाते ही फिर''तो प्रभो ! निकट-निकटतम निरखता
आपको हृदय में पाते भी विलम्ब क्या हो रहा है, आर्य के इस कार्य में?"
इसी अवसर पर, यानी आगत संकट पर ही गुताब के काँटे भी दाँत कटकटाते हैं, कर्ण-कद कुछ कहते यूं : "अरे संकट ! हृदय-शून्य छली कहाँ का ! कण्टक बन मत विष्ठ जा ! निरीह-निर्दोष-निश्छल
नीराग पथिकों के पथ पर ! अपना हट छोड़, अब तो हट जा पथ से "दूर'"कहीं जा,
वरना,
कॉटे से ही काँटा निकाला जाता हैंक्या यह पता नहीं तुझे :: ध्यान रख ! कुछ ही पलों में पता ही न चलेगा तेरा !''
इसी बीच इसी विषय में डाल पर लटकता फूल-.
Pati :. मूक माटी