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यही तो पुरुष का पागलपन है
पामर-पन
जो युगों-युगों से विवश हो,
हवस के वश होता आया है,
और
यही तो प्रकृति का
पावन - पन है पारद - पन
जो युगों-युगों से
परवश हुए बिना, स्व-वश हो
पावस बन बरसती है, और पुरुष को
विकृत-वेष आवेश से छुड़ा कर स्ववश होने को विवश करती, पथ प्रशस्त करती है।
394 मूक माटी
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पुरुष और प्रकृति
इन दोनों के खेल का नाम ही संसार है, यह कहना
मूढ़ता है, मोह की महिमा मात्र ! खेल खेलने वाला तो पुरुष हैं और
पा लिया
प्रकृति और पुरुष का परिचय,
प्रकृति खिलौना मात्र !
स्वयं को खिलौना बनाना
कोई खेल नहीं है,
विशेष खिलाड़ी की बात है यह !