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और यूँ कहता हुआ डूब जाता है उदासी में स्वर्ण-कलश विवश हो, आत्मा की आस्था से च्युत
निष्कर्मा वनवासी-सम ! एक बार और अवसर प्राप्त हुआ है इन कुलीन कर्णों को कुलहीनों की कीर्ति-गाथा सुनना है अभी ! और वह भी धन के लोभ से घिरे सुधी-जनों के मुख से। ओह ! कितनी पीड़ा है यह, सही नहीं जा रही है कानों में कीलें तो ठोक लूँ !
धुंधली-धुंधली-सी दिख रही है सत्य की छवि वह सन्ध्या की लाली भी डूबने को है,
और एक बार दृश्य आया है इस पावन आँखों के सम्मुख । पतितों को पाचन समझ, सम्मान के साथ उच्च सिंहासन पर विटाया जा रहा है।
और पाप को खण्डित करने वालों को
पाखण्डी-छली कहा जा रहा है। ऐसी आशा नहीं थी इस नासा को न ही विश्वास था कि एक बार और इस ओर
411 :: मूक माटी