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मूक माटी
( महाकाव्य)
रचयिता आचार्य विद्यासागर
भारतीय ज्ञानपीठ
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प्रस्तवन
'मूक माटी' महाकान्य का सृजन आधुनिक भारतीय साहित्य की एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। सबसे पहली बात तो यह है कि माटी जैसी ऑकंच धीमा और ... . तुळ वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाने की कल्पना ही नितान्त अनोखी है। दूसरी बात यह कि माटी की तुच्छता से चरम भव्यता के दर्शन करके उसकी विशुद्धता के उपक्रम को मुक्ति की मंगल-बात्रा के रूपक में ढालना कविता को अध्यात्म के साथ अ-भेद की स्थिति में पहुँचाना है। इसीलिए आचार्यश्री विद्यासागर की कृति 'मूक माटी' मात्र कवि-कम नहीं है, यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है-सन्त जो साधना के जीवन्त प्रतिरूप हैं और साधना जो आत्म-चिद्धि की मंजिलों पर सावधानी से पग धरती हुई, नोकमंगल को साधती है। ये सन्त तपस्या ले अर्जित जीवन-दर्शन को अनुभूति में रचा-पचा कर सबके हृदय में गुजारत कर देना चाहते हैं। निर्मल-वाणी और सार्थक सम्प्रेषण का जो योग इनके प्रवचनों में प्रस्फुटित होता है-उसमें मुक्त छन्द का प्रवाह और काव्यानुभूति को अन्तरंग लय समन्वित करके आचार्यश्री ने इसे काव्य का रूप दिया हैं।
प्रारम्भ में ही यह प्रश्न उठाना अप्रासंगिक न होगा कि 'मूक माटी' को पहाकाव्य कहें या खण्ड-काय या मात्र काथ्य। इसे महाकाव्य की परम्परागत परिभाषा के चौखटे में जड़ना सम्भव नहीं हैं, किन्तु यदि विचार करें कि चार खण्डों में विभाजित या काव्य लगभग 500 पृष्ठों में समाहित है, तो परिमाण की दृष्टि से यह महाकाव्य की सीमाओं को छूता है। पहला पृष्ठ खोलते ही महाकाव्य के अनुरूप प्राकृतिक परिदृश्य मुखर हो जाता है :
सीमातीत शून्य में / नीलिमा बिछाई, और "इधर नीचे / निरी नीरवता छाई।"
भानु की निद्रा टूट तो गई है परन्तु अभी वह लेटा है। माँ की मार्दव-गोद में... प्राची के अधरों पर / मन्द मधुरिम मुस्कान है पृष्ठ ।।
पाँच
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इसी सन्दर्भ में कुमुदिनी, कमलिनी, चाँद, तारे, सुगन्ध, पवन, सरिता-तट और
सरिता-तट की माटी
अपना हवं खोलती है तो सामुमा । ७५, .. : यह सारा प्राकृतिक परिदृश्य इस बिन्दु पर आकर एक मूलभूत दार्शनिक प्रश्न पर केन्द्रित हो जाता है :
इस पर्याय की । इति कब होगी ?" बता दो, माँ इसे ! कुछ उपाय करो माँ ! खुद अपाय हरो माँ !
और सनो,/ विलम्ब मत करो
पद दो, पथ दो / पाथेय भी दो, माँ ! पृष्ठ 5 पाटी की वेदना-व्यथा इससे पहले को बीस-तीस पक्तियों में इतनी तीव्रता और मार्मिकता से व्यक्त हुई है, कि करुणा साकार हो जाती है। माँ-बेटी का वार्तालाप क्षण-क्षण में सरिता की धारा के समान अचानक नया मोड़ लेता जाता है, और दार्शनिक चिन्तन मुखर हो जाता हैं। प्रत्येक तथ्य तत्च-दर्शन की उद्भावना में अपनी सार्थकता पाता है। 'मूक माटी' की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इस पद्धति से जीवन-दर्शन परिभाषित होता जाता है। दूसरी बात यह कि यह दर्शन आरोपित नहीं लगता, अपने प्रसंग और परिवेश में से उद्घाटित होता है।
महाकाव्य की अपेक्षाओं के अनुरूप, प्राकृतिक परिवेश के अतिरिक्त, 'मूक माटी' में सजन के अन्य पक्ष भी समाहित हैं। इस सन्दर्भ में सोचें तो प्रश्न होगा कि 'मुक माटी' का नायक कौन है, नायिका कौन है ? बहुत ही रोचक प्रश्न है, क्योंकि इसका उत्तर केवल अनेकान्त दृष्टि से ही सम्भव है। माटी तो नायिका है ही, कुम्भकार को नायक पान सकते हैं किन्तु यह दृष्टि लौकिक अर्थ में घटित नहीं होती। यहाँ रोमांस यदि है तो आध्यात्मिक प्रकार का है। कितनी प्रतीक्षा रही है माटी को कुम्भकार को, युगों-युगों से, कि वह उद्धार करके अव्यक्त सत्ता में से घट की मंगल-मृति उद्घाटित करेगा। मंगल-घट की सार्थकता गुरु के पाद-प्रक्षालन में है जो काव्य के पात्र, भक्त संठ की श्रद्धा के आधार हैं।
शरण, चरण हैं आपके/तारण-तरण जहाज,
भव-दधि तट तक ले चलो करुणाकर गुरुराज! [पृष्ठ 925) काव्य के नायक तो यहीं गुरु हैं किन्तु स्वयं गुरु के लिए अन्तिम नायक हैं अर्हन्त देव :
छह
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जो मोह से मुक्त हो जीते हैं राग-रोष से रीते हैं जनम-मरण-जरा-जीर्णता / जिन्हें छू नहीं सकते अब सप्त भयों से मुक्त, अमय-निधान, निद्रा-तन्द्रा जिन्हें घेरती नहीं... शोक से शून्य, सदा अशोक हैं।" जिनके पास संग है न संघ, जो एकाकी हैं," सदा-सर्वधा निश्चिन्त हैं,
अष्टादश दोषों से दूर। पृष्ट ५५65211 काव्य की दृष्टि से 'मूक माटी' में शब्दालंकार और अर्थालंकारों की छटा नये सन्दर्भो में मोहक है। कवि के लिए अतिशय आकर्षण है शब्द का, जिसका प्रचलित अर्थ में उपयोग करके वह उसकी संगठना को व्याकरण की सान पर चढ़ाकर नयी-नयी धार देते है, नया-नया पर उधाई है। शब्द की पत्ति उसके अन्तरंग अर्थ की झाँकी तो देती ही है, हमें उसके माध्यम से अर्थ के अनूठे और अछूते आयामों का दर्शन होता है। काव्य में से ऐसे कम-से-कम पचास उदाहरण एकत्र किये जा सकते हैं यदि हम कवि की अर्थान्चेषिणी दृष्टि ही नहीं उसके इस चमत्कार का भी ध्यान करें, जहाँ शब्द की ध्वनि अनेक साम्यों की प्रतिध्वनि में अर्थान्तरित होती हैं। उदाहरण के लिए :
युग के आदि में / इसका नामकरण हुआ है । कुम्भकार! 'कु' यानी धरती और 'म यानी/ भाग्य होता है। यहाँ पर जो/ भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो
कुम्भकार कहलाता है। (पृष्ठ 2 भावना भाता हुआ गधा 'भगवान से प्रार्थना करता है कि :
मेरा नाम सार्थक हो प्रभो ! यानी 'गद' का अर्थ है रोग 'हा' का अर्थ है हारक मैं सबके रोगों का हन्ता बनूं, "बस । (पृष्ठ 403
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राही बनना ही तो/ हीरा बनना है, स्वयं राही शब्द ही विलोम-रूप से कह रहा हैरा"ही ही"रा
तन और मन को/ तप की आग में/ तपा-तपा कर जला-जला कर / राख करना होगा तभी कहीं चेतन-आत्मा खरा उत्तरेगा। खरा शब्द भी स्वयं विलोम रूप से कह रहा हैराख बने बिना/खरा दर्शन कहाँ ?
रान खरा पृष्ठ 7 इसी प्रकार की शब्द-साधना से आन्तरिक अर्थ प्रकट हुए हैं-नारी, सुता, दहिता, कुमारी, स्त्री, अबला आदि के।
यहाँ इंगित किया जा सकता है कि आचार्य-कवि ने महिलाओं के प्रति आदर और आस्था के भाव प्रकट किये हैं। उनके शान्त, संयत रूप की शालीनता को सराहा है।
__ 'मूक माटी' में कविता का अन्तरंग स्वरूप प्रतिबिम्बित है और साहित्य के आधारभूत सिद्धान्तों का दिग्दर्शन है। उद्धरण देने लगे तो कोई अन्त नहीं, क्योंकि वास्तय में काव्य का अधिकांश उद्धरणीय है जो कृति का अद्भुत गुण है। कवि की उक्ति है :
शिल्पी के शिल्पक-साँचे में साहित्य शब्द दलता-सा ! “हित से जो युक्त - समन्वित होता है वह सहित माना है और सहित का भाव ही साहित्य बाना है, अर्थ यह हुआ कि जिसके अवलोकन से सुख का समुद्भव-सम्पादन हो सही साहित्य वही है अन्यथा, सुरभि से विरहित पुष्प-सम सुख का राहित्य है वह सार-शून्य शब्द-झुण्ड" | पृन :n-LITE
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'मूक माटी' को सन्त कांवे ने चार खण्डों में विभक्त किया हैं :
संकर नहीं : वर्ण-लाभ
शब्द सो बोध नहीं बोध सो शोध नहीं
:
खण्ड: 1
खण्ड : ५
खण्ड: 3
पुण्य का पालन
पाप-प्रक्षालन खण्ड: 4 अग्नि की परीक्षा चाँदी-सी राख
:
पहला खण्ड माटी को उस प्राथमिक दशा के परिशोधन की प्रक्रिया को व्यक्त करता है जहाँ वह पिण्ड रूप में कंकर-कणों से मिली-जुली अवस्था में हैं। कुम्भकार की कल्पना में माटी का मंगल-घट अवतरित हुआ है। कुम्भकार माटी को मंगल-घट का जो सार्थक रूप देना चाहता है उसके लिए पहले यह आवश्यक है कि माटी को खोट कर उसे कूट छान कर उसमें से कंकरों को हटा दिया जाए। माडी जो अभी वर्ण-संकर है, क्योंकि उसकी प्रकृति के विपरीत नेमेल तस्य कंकर उसमें आ मिले. हैं। वह अपना मौलिक वर्णलाभ तभी प्राप्त करेगी जब वह मृदु मांटी के रूप में अपनी शुद्ध दशा प्राप्त करें :
इस प्रसंग में
वर्ण का आशय / न ही रंग से है /
चरन् / चाल-चरण, ढंग से है I यानी !
जिसे अपनाया है।
उस / जिसने अपनाया है
उसके अनुरूप अपने गुण-धर्म"रुप स्वरूप को
परिवर्तित करना होगा
बरना
वर्ण संकर दोष को
वरना होगा !...
केवल / वर्ण-रंग की अपेक्षा
ही अंग से
गाय का क्षीर भी धवल है / आक का क्षीर भी धवल है दोनों ऊपर से विमल हैं।
परन्तु
परस्पर उन्हें मिलाते ही / विकार उत्पन्न होता है,
क्षीर फट जाता है / पीर बन जाता है वह
नीर का क्षीर बनना ही / वर्ण-लाभ है, वरदान है।
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और क्षीर का फट जाना ही / वर्ण-संकर है। अभिशाप है।
(पृष्ठ 47-44 खण्ड दो-शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं
लो, अब शिल्पी / कुंकुम-सम मृदु माटी में मात्रानुकूल मिलाता है। छना निर्मल-जल । नूतन प्राण झूक रहा है। भाटी के जीवन में। करुणामय कण-कण में,' माटी के प्राणों में जा, पानी ने वहाँ / नव-प्राण पाये हैं ज्ञानी के पदों में जा / अज्ञानी ने जहाँ । नव-ज्ञान पाया है।
(पृष्ठ 89) माटी को खोदने की प्रक्रिया में कुम्भकार की कुदाली एक काँटे के माथे पर जा लगती है, उसका सिर फट जाता है। वट बदला लेने की सोचता है कि कुम्भकार की अपनी असावधानी पर ग्लानि होती हैं। उसके उद्गार हैं :
खंम्मामि, खमंतु मेक्षमा करता हूँ सबको, / क्षमा चाहता हूँ सबसे, सबसे सदा-सहज बस / मैत्री रहे मेरी".
यहाँ कोई भी तो नहीं है। संसार-भर में मेरा वैरी: (पृष्ठ 105) इस भावना का प्रभाव प्रतिलक्षित हुआ
क्रोध भाव का शमन हो रहा है... प्रतिशोध भाव का वमन हो रहा है. पुण्य-निधि का प्रतिनिधि बना बोध-भाव का आगमन हो रहा है (पृष्ठ []
बोध के सिंचन बिना / शब्दों के पौधे ये/ कमी लहलहाते नहीं... शब्दों के पौधों पर / सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं". बोध का फूल जब / ढलता-बदलता, जिसमें, वह पक्व फल ही तो/ शोध कहलाता है। बोध में आकुलता पलती है शोध में निराकुलता फलती है,
फूल से नहीं, फल से / तृप्ति का अनुभव होता है। [Yष्ट 106-107 इस दूसरे खण्ड में सन्त-कवि ने साहित्य-बोध को अनेक आयामों में अंकित किया है। यहाँ नव रसों को परिभाषित किया है। संगीत की अन्तरंग प्रकृति का
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प्रतिपादन है। शृंगार रस की नितान्त मौलिक व्याख्या है। ऋतुओं के वर्णन में कविता का चमत्कार मोहक हैं | तत्त्व-दर्शन तो, जैसा मैं कह चुका हूँ, अनायास ही पद-पट पर उभर आता हैं।
‘उत्पाद-व्यय-धौम्य-यक्तं सत्' सूत्र का व्यावहारिक भाषा में चमत्कारी अनुवाद किया हैं :
आना, जाना, लगा हुआ है आना यानी जनन-उत्पाद है, जाना यानी मरण-व्यय है लगा हुआ यानी स्थिर-धौव्य है
और है यानी चिर-सत्
यही सत्य है, यही तथ्य" (पृष्ट IRR) भाव यह है कि उच्चारण मात्र 'शब्द' है, शब्द का समार्ण अर्थ समझना 'बोध' है, और इस बोध को अनुभूति में, आचरण में उतारना 'शोध' है।
खण्ड तीन-पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन
मन, वचन, काय की निर्मलता से, शुभ कार्यों के सम्पादन से, लोक-कल्याण की कामना . पुण्य जापार्जित होता है। क्रोध, मान, माया, लोभ से पाप फलित होता
यह बात निराली है, कि मौलिक मुक्ताओं का निधान सागर भी है कारण कि मुक्ता का उपादान जल है, यानी-जल ही मुक्ता का रूप धारण करता है, तथापि इस विषय पर विचार करने से / विदित होता है कि इस कार्य में धरती का ही प्रमुख हाथ है। जल को मुक्ता के रूप में दालने में शुक्तिका-सीप कारण है। और / सीप स्वयं धरती का अंश है। स्वयं धरती ने सीप को प्रशिक्षित कर सागर में प्रेषित किया है।
ग्यारह
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जल को जड़त्व से मुक्त कर । मुक्ता-फल बनाना है, पतन के गर्त से निकाल कर । उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है। यही दया-धर्म है
यही जिया कर्म है। पृष्ठ 1921-1522 इस तीसरे खण्ड में कुम्भकार ने माटी की विकास-कथा के माध्यम से पुण्य-कम के सम्पादन से उपजी श्रेवरकर उपलब्धि का नित्रण किया है। मेघ में मेघ-मक्ता का अवतार। मक्ता का वर्षण होता हैं अपक्व कुम्भों पर, कुम्भकार के प्रांगण में। मोतियों की वर्षा का समाचार पहुँचा राजा के पास । मुक्ता की राशि को बोरियों में भरने का संकेत मिल्ला राजा की मण्डली को।नीचे झुकी मण्डनी राशि भरने को ज्यों ही, गगन में गुरु गम्भीर गर्जना-अनर्थ, अनर्थ, अनर्थ ! पाप ''पाप''पाप !
राजा को अनुभूत हुआ कि किमी मन्त्र-शक्ति द्वारा उसे कीतिल किया गया है। अन्त में कुम्भकार ने यह सोच कर कि मुक्ता-राशि पर वास्तव में राजा काही अधिकार है, उसे समर्पित कर दिया।
धरती की कीर्ति देख कर सागर को क्षोभ / सागर के क्षोभ का प्रतिपक्षी बड़वानल · तीन . धन वादनों की बाड़ा... कृष्ण मील कापोत लेश्याओं के प्रतीक / सागर द्वारा राह का आह्वान । सूबंग्ग्रहण : इन्द्र द्वारा मेघों पर बज्रप्रहार, ओलों की वर्षा, प्रलयंकर दृश्य ।
ऊपर अणु की शक्ति काम कर रही है तो इधर" नीचे । मनु की शक्ति विद्यमान ! एक मारक है, एक तारक एक विज्ञान है । जिसकी आजीविका तर्कणा है, एक आस्था है। जिसे आजीविका की चिन्ता नहीं (पृष्ठ 219)
जल और ज्वलनशील अनल में अन्तर शेष रहता ही नहीं । साधक की अन्तर-दृष्टि में । निरन्तर साधना की यात्रा / भेद से अभेद की ओर
वेद से अवेद की ओर / बढ़ती है, बढ़ना ही चाहिए (पृष्ठ 267 खण्ड चार-अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख
कुम्भकार ने घट को रूपाकार दे दिया है, अन्न उसे अवा में तपाने की तैयारी है। पूरी प्रक्रिया काव्य-बद्ध है। अनेक प्रकार की प्रक्रियाओं के बीच बबूल की
वाह
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लकड़ी अपनी व्यथा कहती है। अब में लकड़ियाँ जलती हैं, बुझती हैं, बराबर कम्भकार उन्हें प्रचलित करता है। अपक्व कुम्भ कहता है अग्नि से :
मेरे दोषों को जलाना ही / मुझे जिलाना है। स्व-पर दोषों को जलाना / परम-धर्म माना है सन्तों ने । दोष अजीव हैं,/ नैमित्तिक हैं बाहर से आगत हैं कथंचित गुण जीवगत हैं, गुण का स्वागत है। तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से. इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुमसे, मुझमें जल-धारण करने की शक्ति है जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, उसकी पूरी अभिव्यक्ति में तुम्हारा सहयोग अनिवार्य है।
(8277 चौथे खण्ड का फलक इतना विस्तृत है और कथा प्रसंग इतने अधिक हैं कि उनका सार-संक्षेप देना भी कठिन हैं। अन्ना में कुम्भ कई दिन तक तपा है। अवे के पास आता है कुम्भकार :
'कुम्म की कुशलता सो अपनी कुशलता' यूँ कहता हुआ कुम्भकार / सोल्लास स्वागत करता है अवा का, और / रेतिल राख की राशि को, / जो अवा की छाती पर थी हाथों में फावड़ा ले, हटाता है। ज्यों-ज्यों राख हटती जाती, त्यों-त्यों कुम्भकार का कुतूहल बढ़ता जाता है, कि
कब दिखें वह कुशल कुम्म | (पाठ 206) और, पके-तपे कम्भ को निकालता हैं बाहर, सोल्लास । इसी कुम्भ को कुम्भकार ने दिया है श्रद्धाल नगर-सेठ के सेवक के हाथों कि इसमें भरे जल से आहारदान के लिए पधारे गुरु का पाद-प्रक्षालन हो, तृषा तृप्त हो। ले जाने से पहले साल बार बजाता है संबक और सात स्वर उसमें से ध्वनित होते हैं, जिनका अर्थ कवि के मन में इस प्रकार प्रतिध्वनित होता है :
सारेगम'"यानी (सारे गम) सभी प्रकार के दाख प"ध यानी पद-स्वभाव
तेरह
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और नि पानी नहींदुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का
विभाव-परिणमन मात्र है वह। (१e smaj इसी प्रसंग में मृदंग के स्वर भी गंतरित होते हैं:
धाधिन धिन्धा" धाधिन धिन्धा" वेतन-भिन्ना, चेतन-भिन्ना तातिन तिनता. तातिन तिन"ता"
का तन""चिन्ता, का तन चिन्ता ? (पृष्ठ 06! इस खण्ड में साधु की आहार-दान की प्रक्रिया सविवरण उजागर हुई है। भक्तों की भावना, आहार देने या न दे सकने का हर्ष-विषाद, साधु की दृष्टि, धर्मोपदेश का सार और आहार-दान के उपरान्त सेठ का अनमने भाव से घर लौटना, सम्भवतः इसलिए कि सेठ को जीवन का गन्तव्य दिखाई दे गया है, किन्तु वह अभी बन्धनमुक्त नहीं हो सकता :
सन्त समागम की यही तो सार्थकता है संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करने वाला भले ही तुरन्त सन्त-संयत/बने या न बने इसमें कोई नियम नहीं है, किन्तु वह सन्तोषी अवश्य बनता है। सही दिशा का प्रसाद ही
सही दशा का प्रासाद है। (पृष्ठ 3 प्रसंगों का, बात में से बात की उद्भावना का, तत्त्व-चिन्तन के ऊँचे छोरों को देखने-सुनने का, और लौकिक तथा पारलौकिक जिज्ञासाओं एवं अन्वेषणों का एक विचित्र छवि-घर है यह चतुर्थ खण्ड । यहाँ पूजा-उपासना के उपकरण सजीव वार्तालाप में निमग्न हो जाते हैं। मानवीय भावनाएँ, गुण और अवगुण, इनके माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं। यह अद्भुत नाटकीयता, अतिशयता और प्रसंगों के पूर्वापर सम्बन्धों का बिखराव समीक्षक के लिए असुविधाजनक हो सकते हैं, किन्तु काव्य को प्रासंगिक बनाने की दृष्टि से इनकी परिकल्पना साहसिक, सार्थक और
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आधुनिक परिदृश्य के अनुकूल है। यह खण्ड अपने आप में एक खण्ड-काव्य हैं। यह पूरा-का-पूरा उद्धत करने योग्य है। कठिनाई यह है कि थोड़े से उद्धरण देना कृति के प्रति न्याय नहीं। जो छूटा हैं बह अपेक्षाकृत विशाल है, महत्त्वपूर्ण है। अस्तु । टेरने कथा-प्रसंग को :
स्वर्णकलश उद्विग्न और उत्तप्त है कि कथानायक ने उसकी उपेक्षा करके मिट्टी के घड़े को आदर क्यों दिया है। इस अपमान का बदला लेने के लिए स्वर्णकलश एक आतंकवादी दल आहुत करता है जो सक्रिय होकर परिवार में त्राहि-त्राहि पचा देता है। इसके क्या कारनामे हैं, किन विपत्तियों में से संठ अपने परिवार की रक्षा स्वयं और सहयोगी प्राकृतिक शक्तियों तथा मनुष्येतर प्राणियों- गजटल और नाग-नागनियों-की सहायता से कर पाता है, मैंशधार में डूबती नाव से किस प्रकार सबकी प्राण-रक्षा होती है, किस प्रकार सेट का क्षमाभाव आतंकवादियों का हृदय परिवर्तन करता है, इस सबका विवरण उपन्यास से कम रोचक नहीं। कविता का रसास्वाद तो कर ही। ग.म.- पान : * दि. ‘स्वर्णकला और आतंकबाद आज के जीवन के ताजे सन्दर्भ हैं। समाधान आज के प्रसंगों के अनुरूप आधुनिक समाज-व्यवस्था के विश्लेषण द्वारा प्रस्तुत किया गया है। सीधे-सपाट ढंग से नहीं, काव्य की लक्षणा और व्यंजना पद्धति से ।
विचित्र बात यह है कि सामाजिक दायित्व-बोध हमें प्राप्त होता है एक मत्कुण के माध्यम से :
"खेद है कि लोभी पापी मानव पाणिग्रहण को भी प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं। प्रायः अनुचित रूप से सेवकों से सेवा लेते । और वेतन का वितरण भी अनुचित ही। ये अपने को बताते / मनु की सन्तान! महामना मानव ! देने का नाम सुनते ही इनके उदार हाथों में पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं, फिर भी, एकाध बूंद के रूप में जो कुछ दिया जाता / या देना पड़ता वह दुर्भावना के साथ ही।
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जिसे पाने वाले पचा न पाते सही अन्यथा हमारा रुधिर लाल होकर भी
इतना दुर्गन्ध क्यों ? (पृ. xxh Hri और संठ से पत्कुण कहता है :
सूखा प्रलोभन मत दिया करो स्वाश्रित जीवन जिया करो, कपटता की पटुता को जलांजलि दो ! मुजा : नविता को श्रद्धांजलि दो। शालीनता की विशालता में आकाश समा जाय और जीवन उदारता का उदाहरण बने! अकारण ही
पर के दुःख का सदा हरण हो! (पृष्ठ 347-SA और अन्त में पाषाण-फलक पर आसीन नीराग साधु की वन्दना के उपरान्त स्वयं आलंकवाद कहता है :
हे स्वामिन् ! समग्र संसार ही/दुःख से भरपूर है! यहाँ सुख है, पर वैषयिक/और वह भी क्षणिक! यह"तो"अनुभूत हुआ हमें, परन्तु अक्षय सुख पर/विश्वास नहीं हो रहा है; हाँ, हाँ !! यदि/अविनश्वर सुख पाने के बाद आप स्वयं उस सुख को हमें दिखा सको/या उस विषय में अपना अनुभव बता सको तो सम्भव है।हम भी विश्वस्त हो आप-जैसी साधना को जीवन में अपना सकें।... 'तुम्हारी भावना पूरी हो' ऐसे वचन दो हमें,
बड़ी कृपा होगी हम पर। (पृष्ठ 484-85) गुरु तो प्रवचन ही दे सकते हैं, 'वचन' नहीं। आत्मा का उद्धार तो अपने ही पुरुषार्थ से हो सकता है और अविनश्वर सुख वचनों से बताया नहीं जा सकता। वह तो साधना से प्राप्त आत्मोपलब्धि हैं। साधु की देशना है :
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बन्धन रूप तन/ मन और वचन का आमूल मिट जाना ही। मोक्ष है। हासी मोक्ष की शुद्ध-शा में । अविटनर सुख होता है जिसे प्राप्त होने के बाद, यहाँ संसार में आना कैसे सम्भव है, तुम ही बताओ।
विश्वास को अनुभूति मिलेगी अवश्य मिलेगी। मगर मार्ग में नहीं, मंजिल पर।
और महामौन में डूबते हुए सन्त". और, महौल को अनिमेष निहारती-सी
"मूक माटी। iye 44 ये कुछ संकेत हैं 'मूक माटी' की कथावस्तु में, उसकं काय्य की गरिमा, कथ्य के आध्यात्मिक आयामों, दर्शन और चिन्तन के प्रेरणादायक स्फुरणों के।
इन सब के अतिरिक्त और बहुत कुछ प्रासंगिक और आनुषंगिक है इस महाकाव्य में, यथा लोकजीवन के रजे पचं मुहावरे, बीजाक्षरों के चमत्कार, मन्त्रविद्या की आधार-भित्ति, आयुर्वेद के प्रयोग, अंकों का चमत्कार, और आधुनिक जीवन में विज्ञान से उपजी कतिपय नवी अवधारणाएँ जो "स्टार-बार तक पहुंचती हैं।
यह कृति अधिक परिमाण में काव्य है या अध्यात्म, कहना कठिन है। लेकिन निश्चय ही यह हैं आधुनिक जीवन का अभिनव शास्त्र। और, जिस प्रकार शास्त्र का श्रद्धापूर्वक स्वाध्याय करना होता है, गुरु से जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करना होता है, उसी प्रकार इसका अध्ययन और मनन अभुत सुख और सन्तोष ढेगा, ऐसा विश्वास है।
यह 'भूमिका नहीं, आमुख और प्राक्कथन नहीं। यह प्रस्तवन हैं, संस्तुवन हैं-तपस्वी आचार्य सन्त-कवि विद्यासागर जी का, जिनकी प्रज्ञा और काव्य-प्रतिभा से यह कल्पवृक्ष उपजा है। टेिल्ला.
--लक्ष्मीचन्द्र जैन प्प ण:-र्ट
भारतोच ज्ञानपी नियर, IK
सत्रह
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णमो णाणगुरूणं
जिन आत्म-द्रष्टा से दर्शन मिला जिन -अष्टा . . . . . . . . . . . . :...: मन्त्र मिला जिनने पद दिया पथ दिया पाथेय भी दिया जिनके कोमल कर-पल्लवों से यह जीवन पोषित हुआ मोह का प्रताप शोषित हुआ उन गारव-रहित गुण के आगर गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के सुखद कर-कमलों में परोक्षरूप से मूक माटी सृजन का समर्पण करता हुआ
-गुरुचरणारविन्द-चञ्चरीक
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मानस-तरंग
सामान्यतः जो है, उसका अभाव नहीं हो सकता, और जो है ही नहीं, उसका उत्पाद भी सम्भव नहीं। इस तथ्य का स्वागत केवल दर्शन ने ही नहीं, नूतन भौतिक-युग ने भी किया है।
यपि प्रति वस्तु की स्वभावभूत-सृजनशीलता एवं परिणमनशीलता से वस्तु का त्रिकाल-जोवन सिद्ध होता हैं, तथापि इस अपार-संसार का सृजक-सष्टा कोई असाधारण बलशाली पुरुष है, और वह ईश्वर को छोड़ कर और कौन हो सकता है ? इस मान्यता का समर्थन प्रायः सभी दर्शनकार करते हैं। वे कार्य-कारण व्यवस्था से अपरिचित हैं।
किसी भी कार्य का कर्ता कौन है और कारण कौन ' इस विषय का जब तक भेद नहीं खुलता, तब तक ही यह संसारी जीव मोही, अपने से भिन्नभूत अनुकूल पदार्थों के सम्पादन-संरक्षण में और प्रतिकूलताओं के परिहार में दिनरात तत्पर रहता
हाँ, तो चेतन-सम्बन्धी कार्य हो या अचेतन सम्बन्धी, बिना किसी कारण, उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं। और यह भी एक अकाट्य नियम है कि कार्य कारण के अनुरूप ही हुआ करता है। जैसे वीज बोते हैं वैसे ही फल पाते हैं, बिपरीत नहीं।
वैसे मुख्यरूप से कारण के दो रूप हैं-एक उपादान और एक निमित्त-(उपादान को अन्तरंग कारण और निमित्त को बाह्य-कारण कह सकते हैं।) उपादान-कारण बह है, जो कार्य के रूप में ढलता है; और उसके दलने में जो सहयोगी होता है वह है निमित्त । जैसे माटी का लोंदा कुम्भकार के सहयोग से कुम्भ के रूप में बदलता
है।
उपरिल उदाहरण सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर इसमें केवल उपादान की ही नहीं, अपितु निमित्त की भी अपनी मौलिकता, सामने आती हैं। यहाँ पर निमित्त-कारण के रूप में कार्यरत कुम्भकार के सिवा और भी कई निमित्त हैं-आलोक, चक्र, चक-भ्रमण हेतु समुचित दण्ड, दोर और धरती में गड़ी निष्कम्प-कील आदि-आदि ।
इन निमित्त कारणों में कुछ पदासीन हैं, कुछ प्रेरक। ऐसी स्थिति में निमित्त कारणों के प्रति अनास्था रखनेवालों से यह लेखनी यही पूछती है कि : ___ -क्या आलोक के अभाव में कुशल कुम्भकार भी कुम्भ का निर्माण कर सकता
उन्नीस
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-क्या चक्र के बिना माटी का लोहा कम्भ के रूप में टल सकता है ? -क्या विना दण्ड के चक्र का भ्रमण सम्भव है : -क्या कील का आधार लिये बिना चक्र का भ्रमण सम्भव है , - क्या सबके जाधारभूत धरती के अभाव में वह सब कुछ घट सकता हैं ? -क्या कील और आलोक के समान कम्भकार भी उदासीन हैं ,
-क्या कुम्भकार के करी में कुम्भा कार आये बिना स्पश-मान से माटी का लोहा कुम्भ का रूप धारण कर सकता है :
-कुम्भकार का उपयोग, कुम्भाकार हुए बिना, कुम्भकार के करों में कुम्भाकार आ सकता है ?
-क्या बिना इच्छा भी कुम्भकार अपने उपयोग को कम्भाकार दे सकता हैं ? -क्या कुम्भ बनाने की इच्छा निरुद्देश्य होती है । इन सब प्रश्नों का समाधान 'नहीं' इस शब्द के सिवा और कौन देता हैं ?
निमित्त की इस अनिवार्यता को देखकर ईश्वर को सृष्टि का का मानना भी वस्तु-तत्त्व की स्वतन्त्र योग्यता को नकारना है और ईश्वर-पद की पूज्यता पर प्रश्न-चिह लगाना है।
तत्त्वखोजी, तत्त्वभोजी वर्ग में ही नहीं, इंश्वर के सही उपासकों में भी यह शंका जन्म ले सकती है कि सृष्टि-रचना से पूर्व ईश्वर का आवास कहाँ या ? वह शरीरातीत था या सशरीरी ,
अशरोरी होकर असीम सृष्टि की रचना करना तो दूर, सांसारिक छोटी-छोटी क्रिया भी नहीं की जा सकी । हाँ, ईश्वर मुक्तावस्था को छोड़ कर पुनः शरीर को धारण कर जागतिक-कार्य कर लेता है, ऐसा कहना भी उचित नहीं, क्योंकि शरीर की प्राप्ति कर्मों पर, कर्मो का बन्धन शुभाशुभ विभाव-भावों पर आधारित है और ईश्वर इन सबसे ऊपर उठा हुआ होता है यह सर्व-सम्मत है।
विषय-कषायों को त्याग कर जितेन्द्रिय, जितकपाय और विजितमना हो जिसने पूरी आस्था के साथ आत्म-साधना की है और अपने में छुपी हुई ईश्वरीय शक्ति का उद्घाटन कर अविनश्वर सुख को प्राप्त किया है, वह ईश्वर अब संसार में अवतरित नहीं हो सकता है। दुग्ध में ते घृत को निकालने के बाद घृत कभी दुग्ध के रूप में लौट सकता है क्या ? ___ ईश्वर को सशरीरी मानन रूप दूरसग विकल्प भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि शरीर अपने आप में वह बन्धन है जो सब बन्धनों का मूल है। शरीर हैं तो संसार है, संसार में दुःख के सिवा और क्या है ? अतः ईश्वरत्व किसी भी दुःखरूप बन्धन को स्वीकार-सहन नहीं कर सकता है। वैसे ईश्वरत्व की उपलब्धि संसारदशा में सम्भव नहीं। हाँ, संसारी ईश्वर बन सकता है, साधना के बल पर, सांसारिक बन्धनों को तोड़ कर।
बीस
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यह भी नहीं कहा जा सकता है कि विद्याओं, विक्रियाओं के बल पर, विद्याधरों और देवों के द्वारा भी मनोहर नगरादिकों की जन्न रचना की जाती है, तब सशरीरी ईश्वर के द्वारा सृष्टि की रचना में क्या वाधा है. ' क्योंकि देवाटिको से निर्मित नगराांदेक तात्कालिक होते हैं, न कि त्रैकालिक । यह भी सीमित होते हैं न कि विश्वव्यापक । और यहाँ परोपकार का प्रयोजन नहीं अपितु विषय-सुख के प्यासे मन की तुष्टि है। सही बात तो यह है कि विद्या-विक्रियाएं भी पूर्व-कृत पुण्योदय के अनुरूप ही फलती हैं, अन्यथा नहीं।
जैनदर्शन सम्मत सकल परमात्मा भी, जो कर्म-पर्वतों के भेत्ता, विश्व-तत्त्वों के ज्ञाता और मोक्ष-मागं के नेता के रूप में स्वीकृत हैं, सशरीरी हैं। वह जैसे धयोपदेश देकर संसारी जीवों का उपकार करते हैं वैसे ही ईश्वर सृष्टि-रचना करके हमको, सवको उपकृत करते हैं, ऐसा कहना भी युक्ति-युक्त नहीं है। क्योंकि प्रथम तो जैन-दर्शन ने सकल परमात्मा को भगवान के रूप में औपचारिक स्वीकार किया हैं। यथार्थ में उन्हें स्नातक-मुनि की संज्ञा दी है और ऐसे ही वीतराग, ययाजात-मुनि निःस्वार्थ, धर्मोपदेश देते हैं।
जिन-शासन के धर्मोपदेश को आधार बनाकर अपने मत की पुष्टि के लिए इंश्वर को विश्व-कर्मा के रूप में स्वीकारना ही ईश्वर को पक्षपात की मूर्ति, रागी-द्वेषी सिद्ध करना है। क्योंकि उनक कार्य कार्य-भूत संसारी जीव, कुछ निर्धन, कुछ धनी, कुछ निर्गुण, कुछ गुणी, कुछ दीन-हीन-दयनीय-पदाधीन, कछ स्वतन्त्र-स्वाधीन-समृद्ध, कुछ नर, कुछ वागर-पशु-पक्षी, वह लो-फानटा-धूतं हथशून्च, कुछ सुकती पुण्यात्मा, कुछ मुरुप-सुन्दर, कुछ कुरूप-विद्रूप आदि-आदि क्यों हैं ? इन सबको समान क्यों न बनाते वह ईश्वर ? अथवा अपने समान भगवान् बनाते सबको ? दीनदयाल दया-निधान का व्यक्तित्व ऐसा नहीं हो सकता। इस महान् दोष से ईश्वर को बचाने हेतु, यदि कहो, कि अपने-अपने किये हुए पुण्यापुण्य के अनुसार ही, संसारी-जीवों को मुख-दुःख मांगने के लिए स्वर्ग-नरकादिकों में ईश्वर भेजना है, यह कहना भी अनुचित है क्योंकि जब इन जीवों की सारी विविधताएँविषमताएँ शुभाशुभ कर्मों की फलश्रुति हैं, फिर ईश्वर से क्या प्रयोजन रहा ? पुलिस के कारण नहीं; चोर चोरी के कारण जेल में प्रवेश पाता है, देवों के कारण नहीं, शील के कारण सोता का यश फैला है।
इस सन्दर्भ में एक बात और कहनी है कि ''कुछ दर्शन, जैन-दर्शन को नास्तिक मानते हैं और प्रचार करते हैं कि जो ईश्वर को नहीं मानते हैं, वे नास्तिक होते हैं। यह मान्यता उनकी दर्शन-विषयक अल्पज्ञता को ही सूचित करती है।" ज्ञात रहे, कि श्रमण-संस्कृति के सम्पोषक जैन-दर्शन ने बड़ी आस्था के साथ ईश्वर को परम श्रद्धेय-पूज्य के रूप में स्वीकारा है, तृष्टि-कर्ता के रूप में नहीं। इसीलिए जैन-दर्शन, नास्तिक दर्शनों को सही दिशाबोध देनेवाला एक आदर्श आस्तिक
इक्कीस
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दर्शन है। यथार्थ में ईश्वर को सृष्टि-कर्ता के रूप में स्वीकारना ही, उसे नकारना है, और यही नास्तिकता हैं, मिध्या है। इस प्रासंगिक विषय की संपुष्टि महाभारत की हृदयस्थानीय 'गीता' के पंचम अध्याय की चौदहवीं और पहिया कारिकाओं: से होती है
मन कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ नाऽऽदत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।" प्रभु-परमात्मा लोक के कर्तापन को (स्वयं लोक के कर्ता नहीं बनते), कर्मों-कार्यों को और कर्मफलों की संयोजना को नहीं रचते हैं। परन्तु लोक का स्वभाव ही ऐसा प्रवत रहा है। वे विभ किसी के पार एवं पुण्य को भी ग्रहण नहीं करते । अज्ञान से आच्छादित ज्ञान के ही कारण लोक के जीव-जन्तु मोहित हो रहे हैं। यही भाव तेजोबिन्दु उपनिपद् की निम्न कारिका से भली-भाँति स्पष्ट झोता
"रक्षको विष्णुरित्यादि ब्रह्मा सृष्टेस्तु कारणम् ।”
"संहारे रुद्र इत्येवं सर्व मिध्येति निश्चिन।" ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है, इस मान्यता को छोड़ना ही आस्तिकता हैं। अस्तु ।
ऐसे ही कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है और यह वह सृजन है जिसका सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर श्रृंगार-रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आता है, जिसमें लौकिक अलंकार अलौकिक अलंकारों से अलंकृत हुए हैं; अलंकार अब अलं का अनुभव कर रहा है, जिसमें शब्द को अर्थ मिला है और अर्थ को परमार्थ; जिसमें नूतन शोध-प्रणाली को आलोचन के मिष, लोचन दिये हैं; जिसने सूजन के पूर्व ही हिन्दी जगत् को अपनी आभा से प्रभावित-भावित किया है, प्रत्यूप में प्राची की गोद में छुपे भानु-सम; जिसके अवलोकन से काव्य-कला-कुशल-कवि तक स्वयं को आध्यात्मिक-काव्य-सृजन से सुदूर पाएँगे; जिसकी उपास्य-देवता शुद्ध-चेतना है; जिसके प्रति-प्रसंग-पंक्ति से पुरुष को प्रेरणा मिलती है-सुसुप्त चैतन्य-शक्ति को जागृत करने की; जिसने वर्ण-जाति-कुल आदि व्यवस्था-विधान को नकारा नहीं है परन्तु जन्म के बाद आचरण के अनुरूप, उनमें उच्च-नीचता रूप परिवर्तन को स्वीकारा है। इसीलिए "संकर-दोप' से बचने के
1. तेजोश्चिन्द्रनिषदा 2. वहीं, 12
बाईस
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साथ-साथ वर्ण-लाभ को मानव जीवन का औदार्य य साफल्य माना हैं; जिसने शद्ध-सात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई करीतियों को निमूल करना और चुग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की और मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना हैं और जिसका नामकरण हुआ है 'मूक माटी'।
"मदिया जी (जबलपुर) में द्वितीय वाचना का काल था सृजन का अथ हुआ और नयनाभिराम-नयनागिरि में पूर्ण पथ हुआ समवसरण मन्दिर बना जब गजरथ हुआ।
-गुरुचरणारविन्द-चञ्चरीक
तेइस
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रखण्ड : एक संकर नहीं, वर्ण लाभ
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सीमातीत शून्य में नीलिमा बिछाई, और "इधर नीचे निरी नीरवता छाई है,
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मूक माटी
निशा का अवसान हो रहा है खान हो रहा है
ree : शफीक
भानु की निद्रा टूट तो गई है परन्तु अभी वह लेटा है
माँ की मार्दव - गोद में,
मुख पर अंचल ले कर करवटें ले रहा है
I
प्राची के अधरों पर मन्द-मधुरिम मुस्कान है सर पर पल्ला नहीं है
और
सिन्दूरी धूल उड़ती-सी रंगीन - राग की आभाभाई है, भाई!
मूत्र पाटी
:: 1
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लज्जा की घूँघट में डूबती-सी कुमुदिनी प्रभाकर के कर-वन से बचना चाहती है वह
अपनी पराग को सराग - मुद्रा कोपाँखुरियों की ओट देती है ।
अबला बालाएँ सब तरला ताराएँ अब
छाया की भाँति
अपने पतिदेव
-
सुदूर "दिगन्त में..
सुगन्ध पवन
बह रहा है;
बहना ही जीवन है
चन्द्रमा के पीछे-पीछे हो
छुपी जा रहीं
कहीं
दिवाकर उन्हें
देख न ले, इस शंका से ।
मन्द्र-मन्द
2 मूक माटी
तो ! '''इक्षर'''! अधखुली कमलिनी डूबते चाँद की
चाँदनी को भी नहीं देखती आँखें खोल कर |
ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना सब के वश की बात नहीं है, और वह भी..
स्त्री- पर्याय मेंअनहोनी-सी घटना !
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बहता-बहता कह रहा हैं :
लो ! यह सन्धि-काल है ना ! महक उठी सुगन्धि है
छोर-छोर तक, चारों ओर। मेरे लिए इससे बढ़ कर श्रेयसी कौन-सी हो सकती है "सन्धि वह !
न निशाकर है, न निशा न दिवाकर है, न दिवा अभी दिशाएँ भी अन्धी हैं; पर की नासा तक इस गोपनीय वार्ता की गन्ध "जा नहीं सकतीऐसी स्थिति में उनके मन में कैसे जाग सकती है
दुरभि-सन्धि वह ! और"इधर सामने
सरिता. जो सरपट सरक रही है अपार सागर की ओर सुन नहीं सकती, इस वार्ता को
कारण ! पथ पर चलता है सत्पथ-पथिक वह मुड़ कर नहीं देखता तन से भी, मन से भी।
मूक शर्टी ::
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..
और, संकोच-शीला लाजवती लावण्यवती .. सरिता-तट की माटी अपना हृदय खोलती है
माँ धरती के सम्मुख : "स्वयं पतिता हूँ और पातिता हूँ औरों से, "अधम पापियों से पद-दलिता हूँ माँ !
सुरख-मुक्ता हूँ दुःख-युक्ता हूँ
तिरस्कृत त्यक्ता हूँ माँ : इस पीडी अंन्या : ... . व्यक्त किसके सम्मुख करूँ !
क्रम-हीना हूँ पराक्रम से रीता
विपरीता है इसकी भाग्य रेखा। यातनाएँ पीड़ाएँ ये ! कितनी तरह की वेदनाएं कितनी और आगे कब तक पता नहीं इनकी छोर हैं या नहीं !
श्वास-श्वास पर नासिका बन्द कर आर्त-घुली चूट बस पीती ही आ रही हूं
और इस घटना से कहीं
4 :: मूक माटी
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दूसरे दुःखित न हों मुख पर पूँघट लाती हूँ घुटन छुपाती-छुपाती
पीती ही जा रही हूँ, केवल कहने को जीती ही आ रही हूँ।
इस पर्याय की इति कब होगी : इस काया की च्युति कब होगी ? बता दो, माँ इसे !
इसका जीवन यह उन्नत होगा, या नहीं अनगिन गुणों पाकर अबनत होगा, या नहीं कुछ उपाय करो माँ ! कुछ अपाय हरो माँ !
और सुनो, विलम्ब मत करो पद दो, पथ दो पाथेय भी दो माँ !"
फिर, कुष्ट क्षणों के लिए मौन छा जाता हैदोनों अनिमेष एक दूसरे को ताकती हैं धरा की दृष्टि माटी में माटी की दृष्टि धरा में
मुक मारी :: 5
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अब,
धीरे-धीरे
होता
"मौन का माँ की ओर से !
जिसके सल-छलों से शून्य विशाल भाल पर
गुरु- गम्भीरता का उत्कर्षण हो रहा हैं,
विरह- रिक्तता, अभाव -- अलगाव-भाव का भी शनैः शनैः
अपकर्षण हो रहा है,
मूकमाटी
बहुत दूर ""भीतर '' जाजा - समाती है
जिसकी आँखें
और सरल
और तरल हो आ रही हैं, जिनमें
हृदयवती चेतना का दर्शन हो रहा है,
जिसके
दोनों गालों पर गुलाव की आभा ले
हर्ष के संवर्धन से दृग - विन्दुओं का अविरल वर्षण हो रहा है,
नियोग कहो या प्रयोग सहज रूप से अनायास
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अनन्य आत्मीयता का
संस्पर्शन हो रहा है। और वह धृति-धारिणी धरती कुछ कहने को आकर्षित होती है, सम्मुख माटी का आकर्षण जो रहा हैं।
लो!
भीगे भावों से
सम्बोधन की शुरूआत : "सत्ता शाश्वत होती है, बेटा ! प्रति-सत्ता में होती हैं अनगिन सम्भावना उत्थान-पतन वह, हमखस का..दाना-सा. .....: ::: : बहुत छोटा होता है बड़ का बीज वह !
समुचित क्षेत्र में उसका वपन हो समयोचित खाद, हवा, जल उसे मिलें अंकुरित हो, कुछ ही दिनों में विशाल काय धारण कर
वट के रूप में अवतार लेता है। यही इसकी महत्ता है सत्ता शाश्वत होती है सत्ता भास्वत होती है बेटा :
रहस्य में पड़ी इस गन्ध का अनुपान करना होगा
मूक माटी :
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...
..
आस्था की नासा से सर्वप्रथम
समझी बात'! और यह भी देख ! कितना खुला विषय है कि उजली-उजली जल की धारा . . . .. . बादलों से झरती है धरा-धूल में आ धृमिल हो दल-दल में बदल जाती है।
यही धारा यदि नीम की जड़ों में जा मिलती
कटुता में ढलती है; सागर में जा गिरती लवणाकर कहलाती है वही धाग, बेटा :
विषधर मुख में जा
विष-हाला में ढलती है, सागरीय शुक्तिका में गिरती, स्वाति का काल हो, मुक्तिका बन कर झिलमिलाती है बेटा, वही जलीय सत्ता"!
जैसी संगति मिलती है वैसी मति होती है मति जैसी, अग्रिम गति मिलती जाती मिलती जाती"
और यही हुआ हैं युगों-युगों से भवो-भवों से !
8 :: भूक माटी
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इसलिणा, जीवनः .. :: .. .. .. :.. .......::: आस्था से वास्ता होने पर रास्ता स्वयं, शास्ता हो कर सम्बोधित करता साधक को साधी बन साथ देता है। आस्था के तारों पर ही साधना की अंगुलियाँ चलती हैं साधक की, सार्थक जीवन में तब स्वरातीत सरगम झरती है ! समझी बात, बेटा ?
और,
.
.
.
तूने जो
.
.
.
.
.
.
-
-
.
अपने आपको पतित जाना है लघु-तम माना है यह अपूर्व घटना इसलिए है कि तूने निश्चित रूप से प्रभु को, गुरु-तम को पहचाना है ! तेरी दूर-दृष्टि में पावन-पूत का बिम्ब
बिम्बित हुआ अवश्य ! असत्य की सही पहचान ही सत्य का अवधान है, बेटा !
मृक माटी :: "
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पतन पाताल का महसूस ही उत्थान - ऊँचाई की
आरती उतारना है ! किन्तु बेटा ! इतना ही पर्याप्त नहीं है। आस्था के विषय को आत्मसात् करना हो उसे अनुभूत करना हो
"तो
....... साधना के चे में .. . . . . . .... .. स्वयं को ढालना होगा सहर्ष ।
पर्वत की तलहटी से भी हम देखते हैं कि उत्तुंग शिखर का दर्शन होता है, परन्तु चरणों का प्रयोग किये बिना शिखर का स्पर्शन
सम्भव नहीं है ! हाँ ! हाँ !! यह बात सही है कि, आस्था के बिना रास्ता नहीं मूल के बिना चूल नहीं, परन्तु मूल में कभी फूल खिले हैं ? फलों का दल वह दोलायित होता है चूल पर ही आखिर!
10 :: मूक माटी
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हाँ ! हाँ !! ""इसे खेल नहीं समझना यह सुदीर्घ-कालीन परिश्रम का फल है, बेटा ! . ... . . ... भले ही इह .
आस्था हो स्थाई हो दृढ़ा, दृढ़तरा भी तथापि प्राथमिक दशा में साधना के क्षेत्र में स्खलन की सम्भावना पूरी बनी रहती है, बेटा ! स्वस्थ-प्रौढ पुरुष भी क्यों न हो काई-लगी पाषाण पर
पद फिसलता ही है ! इतना ही नहीं, निरन्तर अभ्यास के बाद भी स्खलन सम्भव है; प्रतिदिन-बरसों से रोटी बनाता-खाता आया है तथापि वह पाक-शास्त्री की पहली रोटी करड़ी क्यों बनती, बेटा इसीलिए सुनो ! आयास से इरना नहीं आलस्य करना नहीं ।
कभी कभी साधना के समय ऐसी भी घाटियाँ
मूक माटी :: ।।
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.::
आ सकती हैं कि थोड़ी-सी प्रतिकूलता में जिसकी समता वह आकाशे को चूमती थी : .. उसे भी विषमता की नागिन सूंघ सकती है"
और, वह राही गुम-राह हो सकता है; उसके मुख से फिर गम-आह निकल सकती है। ऐसी स्थिति में बोधि की चिड़िया वह फुर्र कर क्यों न जाएगी ? क्रोध की बुढ़िया वह गुर्र कर क्यों न जागेगी? साधना-स्खलित जीवन में
अनर्थ के सिवा और क्या घटेगा ? इसलिए प्रतिकार की पारणा छोड़नी होगी, बेटा ! अतिचार की धारणा तोड़नी होगी, बेटा ! अन्यथा, कालान्तर में निश्चित ये दोनों आस्था की आराधना में विराधना ही सिद्ध होंगी !
एक बात और कहनी है
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किसी कार्य को सम्पन्न करते समय . :: ... अनुजा की जटीमा हान.....: .:: ..
सही पुरुषार्थ नहीं है, कारण कि वह सब कुछ अभी राग की भूमिका में ही घट रहा है,
और इससे गति में शिथिलता आती है। इसी भाँति प्रतिकूलता का प्रतिकार करना भी प्रकारान्तर से द्वेष को आहूत करना है,
और इससे
मति में कलिलता आती है। कभी-कभी गति या प्रगति के अभाव में आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं, धृति, साहस, उत्साह भी आह भरते हैं, मन खिन्न होता है किन्तु यह सब आस्थावान् पुरुष को अभिशाप नहीं है, वरन् वरदान ही सिद्ध होते हैं जो वमी, दमी हरदम उद्यमी है।
और, सुनो ! मीठे दही से ही नहीं, खट्टे से भी
मूक माटी :: 13
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समुचित मन्यन हो नवनीत का लाभ अवश्य होता है।
इससे यही फलित हुआ
संघर्षमय जीवन का
उपसंहार वह नियमरूप से हर्षमय होता है, धन्य ! इसीलिए तो ... बार-बार स्मृति दिलाती हूँ
...
.....
टालने में नहीं सती-सन्तों की आज्ञा पालने में ही 'पूत का लक्षण पालने में यह सूक्ति चरितार्थ होती है, बेटा !" और, कुछ क्षणों तक मौन छा जाता है।
अब ! मौन का भंग होता है भाटी की ओर सेभीगे भावों की अभिव्यंजना : "इस सम्बोधन से यह जीवन बाधित हो. अभिभूत हुआ, माँ ! कुछ हलका-सा लगा
- 14 :: भूक माटी
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बाहरी दृष्टि से और
बाहरी सृष्टि से
अछूता सा कुछ
भीतरी जगत् को
कुछ झलका-सा अनुभूत हुआ, माँ !
छूता सा लगा अपूर्व अश्रुतपूर्व
यह मार्मिक कथन है, माँ !
स्व-पर कारणवश
विश्लेषण होना, वे दोनों कार्य आत्मा की ही
प्रकृति और पुरुष के सम्मिलन से
विकृति और कलुष के ""संकुलन से
भीतर ही भीतर
सूक्ष्म-तम
तीसरी वस्तु की जो रचना होती है,
दूरदर्शक यन्त्र से
दृष्ट नहीं होती समीचीन दूर-दृष्टि में उतर कर आती है यह कार्मिक व्यथन है, माँ !
कर्मों का संश्लेषण होना, आत्मा से फिर उनका
मूक माटी : 15
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ममता-समता-परिणति पर आधारित हैं। सो तमने सुनाया ..... : ....:.:.....::.:::..:... सुन लिया इसने यह धार्मिक - मथन है, माँ !
चेतन की इस स्रजन-शीलता का भान किसे है ? चेतन की इस द्रवण-शीलता का ज्ञान किसे है ? इसकी चर्चा भी कौन करता है रुचि से ? कौन सुनता है मति से ?
और
इसकी अर्चा के लिए किसके पास समय है ? आस्था से रीता जीवन
यह चार्मिक वतन है, माँ !" 'वाह ! धन्यवाद बेटा ! मेरे आशय, मेरे भाव भीतर"तुम तक उतर गए। अब मुझे कोई चिन्ता नहीं !
और कल के प्रभात से
अपनी यात्रा का
सूत्र-पात करना है तुम्हें ! प्रभात में कुम्भकार आएगा पतित से पावन बनने,
16 :: मूक माटी
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समर्पण-भाव-समेत उसके सुखट चरणों में प्रणिपात करना है तुम्हें,
अपनी यात्रा का
सूत्र-पात करना है तुम्हें ! उसी के तत्वावधान में तुम्हारा अग्रिम जीवन स्वर्णिम बन दमकेगा। परिश्रम नहीं करना है तुम्हें परिश्रम वह करेगा: उसके उपाश्रम में उसकी सेवा-शिल्प-कला पर अविचल-चितवनदृष्टि-पात करना है तुम्हें,
अपनी यात्रा का
सूत्र-पात करना है तुम्हें ! अपने-अपने कारणों से सुसुप्त-शक्तियाँलहरों-सी व्यक्तियाँ, दिन-रात, बस ज्ञात करना है तुम्हें,
अपनी यात्रा का सूत्र-पात करना है तुम्हें !''
चिन्तन-चर्चा से दिन का समय किसी भांति कट गया परन्तु !
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भूक माटी :: 17
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रात्रि लम्बी होती जा रही है। धरती को निद्रा ने घेर लिया
और माटी को निद्रा
छूती तक नहीं। करवटें बदल रही प्रभात की प्रतीक्षा में।
तथापि, माटी को रात्रि भी प्रभात-सी लगती है : "दुःख की वेदना में जब न्यूनता आती है दुःख भी सुख-सा लगता है।
और यह भावना का फल हैउपयोग की वात!"
आखिर, वह घड़ी आ ही गई जिस पर दृष्टि गड़ी थी अनिमेष"अपलक !
और माटी ने अवसर का स्वागत किया, तुरन्त बोल पड़ी कि
"प्रभात कई देखे
18 :: मूक माटी
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आज-जैसा प्रभात विगत में नहीं मिला
और प्रभात आज का काली रात्रि की पीठ पर हलकी लाल स्याही से कुछ लिखता है, कि यह अन्तिम रात है
और
यह आदिम प्रभात;
यह अन्तिम गात
..
.. . . . .
और
यह आदिम विराट !" और, हर्षातिरेक से उपहार के रूप में कोमल कोपलों की हलकी आभा-घुली हरिताभ की साड़ी देता है रात को। इसे पहन कर जाती हुई वह प्रभात को सम्मानित करती है मन्द मुस्कान के साथ! भ्रात को बहन-सी।
इधर" सरिता में लहरों का बहाना है, चौंदी की आभा को
मृक माटी :: 19
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जीतती, उपहास करतो-सी अनगिन फूलों की अनगिन मालाएँ तैरती - लैरती तट तक"आ समर्पित हो रही हैं माटी के चरणों में, सरिता से प्रेषित हैं वे।
यह भी एक दुर्लभ दर्शनीय दृश्य है
सरिता-तट में फेन का बहाना है दधि छलकाती है मंगल-जनिका हँसमुख कलशी हाथ में लेकर खड़े हैं सरिता-तट वह
और देखो ना ! तृण-बिन्दुओं के मिष उल्लासवती सरिता-सी धरती के कोमल केन्द्र में करुणा की उमड़न है, और उसके अंग - अंग एक अपूर्व पुलकन ले
स्वाभाविक नर्तन में !
20 : मक माटी
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आज ! ओस के कणों में उल्लास - उमंग हास - दमंग होश नजर आ रहा है।
आज । जोश के क्षणों में प्रकाश - असम विकास अभंग तोष नजर आ रहा है।
रोष के मनों में उदास - अनंग लें नाश का रंग बेहोश नजर आ रहा है।
आज ! दोष के कणों में त्रास तड़पन - तंग ह्रास का प्रसंग
और गुणों का कोष नजर आ रहा है !
यात्रा का सूत्रपात है ना
आज'! पथ के अथ पर पहला पद पड़ता है, इस पधिक का और
मृक पाटी :: 2!
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पथ की इति पर स्पन्दन-सा कुछ घटता है हलचली मचती है वहाँ !
पथिक की अहिंसक पगतली से सम्प्रेषण - प्रवाहित होता है विद्युत्सम युगपत्
और वह स्वयं सफलता-श्री पथ की इति पर उठ खड़ी है सादर सविनयपथिक की प्रतीक्षाम............ ....... - जो निराशता का पान कर सोती हुई समय काट रही थी
युगों युगों से। विचारों के ऐक्य से आचारों के साम्य से सम्प्रेषण में निखार आता है, वरना विकार आता है !
बिना बिखराव उपयोग की धारा का दृढ-तटों से संयत, सरकन-शीला सरिता-सी लक्ष्य की ओर बढ़ना ही सम्प्रेषण का सही स्वरूप है
22 :: मूक पारी
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हाँ ! हाँ !! इस विषय में विशेष बात यह है कि सम्प्रेष्य के प्रति कभी भूलकर भी अधिकार का भाव आना सम्प्रेषण का दुरुपयोग है, वह फलीभूत भी नहीं होता ! और. . . . . . . .... . . : ... सहकार का भाव आना सदुपयोग है, सार्थक है।
सम्प्रेषण वह खाद है जिससे, कि सद्भावों का पौध पुष्ट-सम्पुष्ट होता है उल्लास-पाता है; सम्प्रेषण वह स्वाद है जिससे कि तत्त्वों का बोध तुष्ट-सन्तुष्ट होता है
प्रकाश पाता है। हाँ ! हाँ !! इसे भी स्वीकारना होगा कि प्राथमिक दशा में सम्प्रेषण का साधन कुछ भार-सा लगता है निस्सार-सा लगता है
और कुछ-कुछ मन में तनाव का वेदन भी होता है
--
-
मूक माटी :: 29
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परन्तु, बाद की स्थिति
इससे विपरीत है। कुशल लेखक को भी, जो नई निबवाली
लेखनी ले लिखता है लेखन के आदि में
खुरदरापन ही
अनुभूत होता है
परन्तु, लिखते-लिखते
निब की घिसाई होती जाती
प्र
लेखन में पूर्व की अपेक्षा सफाई आती जाती फिर ता "लेखनी
विचारों की अनुचरा होती "
विचारों की सहचरा होती है; अन्त - अन्त में तो
जल में तैरती-सी
संवदेन करती है लेखनी । इसे यूँ कहें हम
यह सहज रीत ही है ।
यह लो !
क्या ?
मंगल घटना का संकेत "
21 मूकमाटी
होती
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अचेत से सचेत हो खेत से खेत, खेत से खेत वेग-समंत वेद-समेत विस्फारित दृग-बाला एक मृग छलाँग भरता पथ को.लांघ जाता है. .. :: .. ... . : ..::. . : . . सुदूर"जा अन्तर्धान
"खो जाता है। 'बायें हिरण दायें जायलंका जीत राम घर आय' इस सूक्ति की स्मृति ताजी हो आई
और दूर"सुदूर" माटी ने देखाघाटी में दिखे कौन वह ? परिचित है या अपरिचित ! अपनी ओर ही बढ़ते बढ़ते आ रहे वह श्रमिक-चरण"! और फूली नहीं समाती, भोली माटी यह घाटी की ओर ही अपलक ताक रही है
पूक माटी ::
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भोर में ही उसका मानस विभोर हो आया, और
:
अब तो वह चरण निकट-सन्निकट ही आ गए । फैलाव घट रही है. :: धीरे-धीरे दृश्य सिमट-सिमट कर घना होता आ रहा है और आकाशीय विशाल दृश्य भी इसीलिए शून्य होता जा रहा है समीपस्थ इष्ट पर दृष्टि टिकने से अन्य सब लुप्त ही होते हैं।
लो ! धन्य ! पूरा का पूरा एक चेहरा, जो भरा है अनन्य भावों से. अदम्य चावों से सामने आ उभरा है !
जिसका भाल वह बाल नहीं है वृद्ध है, विशाल है भाग्य का भण्डार ! सुनो ! जिसमें
26 :: मूक माटी
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अविकल्पी है यह दृढ़ संकल्पी मानव अर्थहीन जल्पन
अत्यल्प भी जिसे रुचता नहीं कभी !
सरकार उससे कर नहीं माँगती
क्योंकि
इस शिल्प के कारण
चोरी के दोष से वह
सदा मुक्त रहता है।
तनाव का भार-विकार कभी भी आश्रय नहीं पाता !
वह एक कुशल शिल्पी है ! उसका शिल्प
कण-कण के रूप में
बिखर माटी को
नाना रूप प्रदान करता है।
अर्थ का अपव्यय करना तो
बहुत दूर अर्थ का व्यय भी
यह शिल्प करता नहीं,
बिना अर्थ
शिल्पी को यह
अर्थवान् बना देता है; युग के आदि से आज तक
इसने
अपनी संस्कृति को विकृत नहीं बनाया
मूकमाटी 27
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बिना दाग़ है यह शिल्प
और यह कुशल शिल्पी है। युग के आदि में इसका नामकरण हुआ है
'क' यानी धरती
और 'भ' यानी भाग्य होता हैयहाँ पर जो भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो कुम्भकार कहलाता है। यथार्थ में प्रति-पदार्थ वह स्वयं-कार हो कर भी यह उपचार हुआ हैशिल्पी का नाम कुम्भकार हुआ है।
हाँ ! अब शिल्पी ने कार्य की शुरूआत में ओंकार को नमन किया और उसने पहले से ही अहंकार का वमन किया है
कर्तृत्व-बुद्धि से मुड़ गया है वह और
28 :: मूक माटी
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कर्तव्य बुद्धि से जुड़ गया है वह । हाँ ! हाँ !!
यह मुड़न जुड़न की क्रिया, हे आर्य !
कार्य की निष्पत्ति तक
अनिवार्य होती हैं !
M
अरे ! अरे ! यह क्या? कौन-सा कर्तव्य है? किससे निर्दिष्ट है?
किस मन्तव्य से
किया जा रहा है? सामने ही सामने
माटी के माथे पर
of it were 1:
***
क्रूर-कठोर कुदाली से खोदी जा रही है माटी । माटी की मृदुता में खोई जा रही है कुदाली ! क्या माटी की दया ने
कुदाली की अदवा बुलाई है ? क्या अदया और दया के बीच
घनिष्ट मित्रता है?
यदि नहीं है तो
माटी के मुख से
रुदन की आवाज क्यों नहीं आई?
और
भूकमाटी 29
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leka
माटी के मुख पर
क्रुधन
क्या यह
राजसता का राज तो नहीं है?
लगता है, कि
की साज क्यों नहीं छाई ?
कुछ अपवाद छोड़ कर बाहरी क्रिया से
भीतरी जिया से
सही-सही मुलाकात की नहीं जा सकती ।
और
गलत निर्णय ले
जिया नहीं जा सकता । यूँ ही यह जीवन शंका- प्रतिशंका करता
बलानुसार उत्तर देता अरुक अथक जागे-आगे चलता ही जा रहा स्वयं
कि
मूकमाटी
MARDAN
इधर’'
भोली माटी
कुछ ना बोली
और
बोरी में भरी जा रही है " बोरी के दोनों छोर बन्द हैं
बीचों-बीच मुख है
और
सावरणासाभरणा
लज्जा का अनुभव करती, नवविवाहिता तनूदरा
घूँघट में से झाँकती - सी
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बार-बार बस, बोरी में से झांक रही हैं माटी भोली ! सतियों को भी यतियों को भी प्यारी है यही प्राचीना परिपाटी। इसके सामने बना लिहित-शीत' नूतन-नवीना इस युग की जीवन-लीला कीमत कम पाती है।
तभी तो.. संवेदनशील शिल्पी ने माटी को पूछा है
"तामसता से दूर सात्त्विक गालों पर तेरे घाव-से लगते हैं, छेद-से लगते हैं, सन्देह-सा हो रहा है भेद जानना चाहता हूँ यदि कोई बाधान "हो"तो'' बताने की कृपा करोगी ?"
कुछ क्षणों के लिए माटी के सामने अतीत लौट आता है और उत्तर के रूप में और कुछ नहीं केवल दीर्घ श्वास !
मूक पाटी ::
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उस दीर्घ श्वास ने ही शिल्पी के सन्देह को विदह बना दिया
और विश्वास को श्वास लेने हेतु एक देह मिली।
सही-सही अवधान नहीं हुआ सही समाधान नहीं हुआ। जिज्ञासा जीवित रही शिल्पी की। इसको देखकर ही
""माटी अव्यक्त भावों को व्यस्त करती है शब्दों का आलम्बन ले :
"अमीरों की नहीं गरीबों की बात है। कोठी की नहीं कुटिया की बात है
घा-काल में थोड़ी-सी वर्षा में टप-टप करती है
और उस टपकाव से धरती में छेद पड़ते हैं, फिरतो." इस जीवन-भर रोना ही रोना हुआ है दीन-हीन इन आँखों से धाराप्रवाह अश्रु-धारा बह
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पाठी का इतिहास माटी के मुख से सुन शिल्पी सहज कह उठा
कि
इन गालों पर पड़ी हैं ऐसी दशा में
गालों का सछिद्र होना
स्वाभाविक ही हैं
और
प्यार और पीड़ा के घावों में
अन्तर भी तो होता हैं,
रति और विरति के भाव एक से होते हैं क्या ?"
वास्तविक जीवन यही है सात्त्विक जीवन यही है
धन्य !
और
यह भी एक अकाट्य नियम है
कि
अर्थ यह हुआ कि
पीड़ा की अति ही पीड़ा की इति है
और
पीड़ा की इति ही सुख का अथ" |
अति के बिना
इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं और
इति के बिना
अथ का दर्शन असम्भव !
मूकमाटी 33
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माटी को सान्त्वना देता-सा अभय की मुद्रा में से कुछंक पल बीत गए शिल्पी के
और अपना साथी-सहयोगी आहूत हुआ अवैतनिक 'गदहा', तनिक-सा वह भी तन का वेतन लेता है वह सब बन्धनों से मुक्त घाटी में विचर रहा था जो। कोई भी बन्धन जिसे रुचते नहीं मात्र बंधा हुआ है वह स्वामी की आज्ञा से। अपदा माटी को स्वामी के उपाश्रम तक ले जा रहा है अपनी पुष्ट पीठ पर।
वीच पथ में दृष्टि पड़ती है माटी की गदहे की पीठ पर। खुरदरी बोरी की रगड़ से पीट छिल रही है उसकी
और माटी के भीतर जा
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और भीतर उतरती-सी पीर मिल रहीं हैं।
माटी की पतली सत्ता अनुक्षण अनुकम्पा से सभीत हो हिल रही है। बाहर-भीतर मीत बन कर प्रीत खिल रही है; केवल क्षेत्रीय ही नहीं भावों की निकटता भी अहमपिचा . इस प्रतीति के लिए। यहाँ पर अचेत नहीं चेतना की सचेतरीत मिल रही है !
भावों की निकरता तन की दूरी को पूरी मिटाती-सी।
और,
बोरी में से माटी क्षण-क्षण छनन्छन कर छिलन के छेदों में जा मृदुतम मरहम बनी जा रही है, करुणा रस में और सनी जा रही है। इतना ही नहीं,
मूक मारी :: 3
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उस स्थान में बोरी की रूखी स्पर्शा भी घनी मृदुता में डूबी जा रही है।
माटी के मुख पर उदासी की सत्ता परी हैं परत्र प्रयास करने को
मना कर रही है। माटी की इस स्थिति में कारण यह है कि
इस छिलन में इस जलन में निमित्त कारण 'मैं ही हूँ। यूँ जान कर पश्चाताप की आग में झुलसती-सी माटी। और उसे देख कर वहीं पली पड़ी-पड़ी भीतरी अनुकम्पा को चैन कहाँ ? सहा नहीं गया उसे रहा नहीं गया उसे
और वह रोती-बिलखती दृग-बिन्दुओं के मिष स्वेद कणों के बहाने
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बाहर आ पूरी बोरी को
भिगोती-सी अनुकम्पा : इस विषय में किसी भांति हो नहीं सकता संशय, कि विषयी सदा विषय-कषायों को ही बनाता अपना विषय। और हृदयवती आँखों में दिवस हो या तमस् चेतना का जीवन हा..: . . . ..... झलक आता है, भले ही वह जीवन दया रहित हो या दया सहित।
और दया का होना ही जीव-विज्ञान का
सम्यक् परिचय है। परन्तु पर पर दया करना बहिदृष्टि-सा"मोह-मूढ़ता-सा" स्व-परिचय से वंचित-सा" अध्यात्म से दूर प्रायः लगता है
ऐसी एकान्त धारणा से अध्यात्म की विराधना होती है।
मूक माटी :: 37
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T
-
P
.
..
क्योंकि, सुनो ! स्व के साथ पर का और पर के साथ स्व का ज्ञान होता ही है, गौण-मुख्यता भले ही हो। चन्द्र-मण्डल को देखते हैं नभ-मण्डल भी दीखता है। पर की दया करने से स्व की याद आती है और
- T
rans स्व-दया है विलोम-रूप से भी यही अर्थ निकलता है या'द द"या"।
साथ ही साथ, यह भी बात ज्ञात रहे
वासना का विलास'
दया का विकास''
___ "मोक्ष हैएक जीवन को बुरी तरह जलाती है भयंकर है, अंगार है ! एक जीवन को पूरी तरह जिलाती है. शुभंकर है, शृंगार है।
38 :: मृक माटी
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हाँ । हाँ !! अधूरी दया-करुणा मोह का अंश नहीं है अपितु
आंशिक मोह का ध्वंस है। वासना की जीवन-परिधि अचेतन है"तन है दया-करुणा निरवधि हैं करुणा का केन्द्र बन्द संवेदन-धर्मा"चेतन है पीयूष का केतन है यह।
करुणा की कर्णिका से ..... : .अविरत मरती हैं ::::::
समता की सौरभ-सुगन्ध; ऐसी स्थिति में कौन कहता है वह
करुणा का वासना से सम्बन्ध है !
वह अन्ध ही होगा विषयों का दास, इन्द्रियों का चाकर, और मन का गुलाम मदान्ध होगा कहीं !
-
माना, प्रति पदार्थ अपने प्रति कारक ही होता है
-
परन्तु
पूक माटी :: 30
ग
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.
::..:::::::: :: ................पर के प्रति
उपकारक भी हो सकता हैं।
और अपने प्रति करण ही होता है परन्तु पर के प्रति उपकरण भी हो सकता है। तभी तो अन्धा नहीं वह गदहा मदान्ध भी नहीं, उसका भीतरी भाग भीगा हुआ है समूचा। बाहर आता है सहज भावना भाता हुआ भगवान से प्रार्थना करता है
मेरा नाम सार्थक हो प्रभो ! यानी गद का अर्थ है रोग हा का अर्थ हारक मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ
"बस,
और कुछ वांछा नहीं गद-हा 'गदहा'":
और यह क्या ? अनहोनी-सी कुछ अनुभूत होती माटी को विस्मय का पार नहीं रहा,
40 :: मूक माटी
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अतिशय का सार यही रहा
भावना के फूल खिल गए खिले फूल सब फल गए; माटी के गाल घाव-हीन हो छेद-शून्य हो
"धुल गए ! आज सार्थक बना नाम
गद-हा"गदहा"धन्य । दोनों की अनुकम्पा सहना हैं सहजा बहनें-सी' लगती हैं ये, अनुजा अग्रजा-सी नहीं
'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' यह सूत्र-सूक्ति चरितार्थ होती है इन दोनों में ! सब कुछ जीवन्त है यहाँ जीवन ! चिरंजीवन !! संजीवन !!!
इस पर भी अपनी लघुता की अभिव्यक्ति करती हुई माटी की अनुकम्पा
संपदा हो या अपदा चेतन को अपना वाहन बनायात्रा करना अधूरी अनुकम्पा की दशा है यह, जो रुचती नहीं इस जीवन को।
मूक माटी :: 41
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और माटी श्वास का शमन कर अपमे भार को लघु करती-सी" उपाश्चम की ओर निहारती है प्रतीक्षा की मुद्रा में। रजत-पालकी में विराजती पर, ऊबी-सी. लज्जा-संकोचवती-सी राजा की रानी यात्रा के समय
रणवास की ओर निहारती-सी ! यहाँ पर मिलता है पूरा ऊपर उठा हुआ सुकृत का सर।
और माटी को प्राप्त हुआ है प्रथम अवसर!
यह
उपाश्रम का परिसर है यहाँ पर, कसकर परिश्रम किया जाता है निशि-वासर । यहाँ पर योग-शाला है प्रयोग-शाला भी जोरदार ! जहाँ पर शिल्पी से मिलता है शिक्षण-प्रशिक्षण क्षण प्रतिक्षण,
42 :: मूक माटी
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जिसका भीतरी जीवन पर पड़ता है सीधा असर !
यहाँ पर जीवन का 'निर्वाह' नहीं 'निर्माण' होता है
इतिहास साक्षी है इस बात का ।
1. ST
अधोमुखी जीवन ऊर्ध्वमुखी हा उन्नत बनता है;
हारा हुआ भी बेसहारा जीवन
सहारा देनेवाला बनता है । दर्शनार्थी वे
आदर्श पा जाते हैं, यहाँ पर ।
इतिहास सम्बन्धिनी सदियों से उलझी समस्याएँ
सहज सुलझती जाती हैं
क्षण भर की इस संगति से
I
और,
अयाचित होकर भी
सरल सरस संस्कृति के संस्कारार्थी
परामर्श पा जाते हैं, यहाँ पर ।
असि और मषि को भी
कृषि और ऋषि को भी
कुछ ऐसे सूत्र मिलते हैं निस्वार्थी भी वे
आर्ष पा जाते हैं यहाँ पर ।
मूक पाटी 45
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लो, अब उपाश्रम में उतारी गई माटी कि
तुरन्त बारीक तार वाली चालनी लाई गई
और
माटी छानी जा रही है। स्वयं शिल्पी चालनी का चालक है।
वह अपनी दयावती आँखों से नीचे उतरी निरी माटी का दरश करता है भाव-सहित हो। शुभ हाथों से खरी माटी का परस करता है चाब-सहित हो। और तन से मन से हरष करता है घाव-रहित हो। अनायास फिर बचन-विलास होता है
उसके मुख से, कि "ऋजुता की यह परम दशा है और
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मृदुता की यह चरम यशा है
""धन्य !"
" मृदु माटी से लघु जाति से
मेरा यह शिल्प
निखरता है
और
खर-काठी से
गुरु जाति से
सो अविलम्ब
बिखरता है
माटी का संशोधन हुआ, माटी को सम्बोधन हुआ,
परन्तु,
निष्कासित कंकरों में
समुचित-सा अनुभूत संक्रोधन हुआ ।
तथापि संयत भाषा में
शिल्पी से निवेदन करते हैं वे कंकर, कि
"हमारा वियोगीकरण
माँ माटी से
किस कारण हो रहा है ? अकारण ही !
क्या कोई कारण हैं ?"
इस पर तुरन्त
मृदु शब्दों में शिल्पी कहता है कि
दूसरी बात यह है कि
मूकमाटी 45
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संकर-दोष का वारण करना था मुझे
कंकर-कोष का वारण किया ।" इस बात को सुन कर कंकर कुछ और गरम हो जाते हैं कंकरों के अधरों में विशेष स्पन्दन है
और
वचनों में पूर्व की अपेक्षा
उष्णता का अभिव्यंजन है। "गात की हो या जात की, एक ही बात हैहममें और माटी में समता-सदृशता है विसदृशता तो दिखती नहीं ! तुम्हें दिखती है क्या शिल्पी जी ? तुम्हारी आँखों की शल्य-चिकित्सा हुई है क्या ?
और रही वर्ण की बात ! वों से वर्णन क्या करें ? वह भी समान है हम दोनों में जो सामने है कृष्ण जी का कृष्ण वर्ण है कृष्य वर्ण नहीं।
45 :: पूक माटी
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सुनते हो क्या नहीं? कर्ण तो ठीक हैं तुम्हारे ! फिर वर्ण-संकर की चर्चा कौन करे ?
अर्चा मौन करें हम !"
और"
कंकर मौन हो जाते हैं। इस पर भी शिल्पी का भाव ताव नहीं पकड़ता जरा-सा भी। धरा-सा ही सहज साम्ब भाव प्रस्तुत होता है उससे
"कि
इस प्रसंग में वर्ण का आशय ने ही रंग से है न ही अंग से वरन् चाल-चरण, ढंग से है। वानी ! जिसे अपनाया है उसे जिसने अपनाया है उसके अनुरूप अपने गुण-धर्म
रुप-स्वरूप को परिवर्तित करना होगा
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बरना वर्ण-संकर-दोष को
"वरना होगा ! और यह अनिवार्य होगा। इस कथन से वर्ण-लाभ का निषेध हुआ हो ऐसी बात नहीं है, नीर की जाति न्यारी है क्षीर की जाति न्यारी,
परस-रस-रंग भी परस्पर निरे-निरे हैं
और यह सर्व-विदित है, फिर भी यथा-विधि, यथा-निधि क्षीर में नीर मिलाते ही नीर, क्षीर बन जाता है।
और सुनो ! केवल वर्ण-रंग की अपेक्षा माय का क्षीर भी धवल है आक का क्षीर भी धवल है दोनों ऊपर से विमल हैं परन्तु परस्पर उन्हें मिलाते ही विकार उत्पन्न होता हैक्षीर फट जाता है पीर बन जाता है वह !
48 :: मूक माटी
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"नीर का क्षीर बनना ही वर्ण-लाभ है, वरदान है।
और
क्षीर का फट जाना ही वर्ण-संकर है अभिशाप है इससे यही फलित हुआ।" ...... . . .:: अलं विस्तरेण !
:
:::: :
-
"अरे कंकरो ! माटी से मिलन तो हुआ पर माटी में मिले नहीं तुम ! माटी से छुवन तो हुआ पर माटी में घुले नहीं तुम ! इतना ही नहीं, चलती चक्की में डाल कर तुम्हें पीसने पर भी अपने गुण-धर्म भूलते नहीं तुम ! भले ही चूरण बनते, रेतिला मादी नहीं बनते तुम !
-
-
-
जल के सिंचन से भीगते भी हो
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परन्तु, भूल कर भी फूलते नहीं तुम ! माटी - सम तुम में आती नमी ना क्या यह तुम्हारी कमी ना ? बता दो रे कमीना :
तुम में कहाँ है वह जल-धारण करने की क्षमता ? जलाशय में रह कर भी युगों-युगों तक नहीं बन सकते जलाशय तंम । मैं तुम्हें हृदय-शून्य तो नहीं कहूँगा परन्तु पाषाण-हृदय अवश्य है तुम्हारा, दूसरों का दुःख-दर्द देख कर भी नहीं आ सकता कभी उसे पसीना है ऐसा तुम्हारा
"सीना।
फिर भी ऋषि - सन्तों का सदा सदुपदेश - सदादेश हमें यही मिला, कि पापी से नहीं पर! पाप से, पंकज से नहीं
57 :: मूक माटी
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पर! पंक से घृणा करो अयि आर्य ! नर से नारायण बनो समयोचित कर कार्य।"
कड़वीं यूंट-सी पी कर दीनता भरी आँखों से कंकर निहारते हैं माटी की ओर अब।
और, माटी स्वाधीनता-धुली आँखों से कंकरों की ओर मुड़ी, देखती है
माटी की शालीनता कुछ देशना देती-सी"
"महासत्ता-माँ की गवेषणा समीचीना एषणा और संकीर्ण-सत्ता की विरेचना अवश्य करना है तुम्हें! अर्थ यह हुआलघुता का त्यजन ही गुरुता का यजन ही शुभ का सृजन है। अपार सागर का पार पा जाती है नाय हो उसमें छेद का अभाव भर :
मूक माटी :: 51
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.कीका:
. :: घबराती है और वह घबराहट न ही जल से है न ही जल के गहराव से, परन्तु जल की तरल सत्ता के विभाव से है
जल की गहराई को छोड़कर जल की लहराई में आ कर तैरता हुआ-सा'! अध-डूबा हिम का खण्ड है
मान का मापदण्ट'' | वह सरलता का अवरोधक है गरलता का उद्बोधक है इतना ही नहीं, तरलता का अति शोषक है
और सघनता का परिपोषक !
न ही तैरना जानता है.
और न ही तैरना चाहता है खेद की बात है, कि तरण और तारक को डुबोना चाहता है वह। जल पर रहना चाहता है पर,
52 :: मूक मार्टी
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जल में मिल कर नहीं, जग को जल के तल तक, भेज कर उस पर ऊपर रहना चाहता है जल में मिल कर नहीं ! हे मानी, प्राणी ! पानी को तो देख,
और अब तो पानी-पानी हो जा"! हे प्रमाण प्रभो !
मान का अवमान कब हो?" और, माटी की देशना की धारा अभी टूटी नहीं फिर भी ! अभिधा से हटकर व्यंजना की ओर गति है उसकी, कि
बीज का वपन किया है जल का वर्षण हुआ है बीज अंकुरित हुए हैं
और कुछ ही दिनों में फसल खड़ी हो लहलहातीबालबाली' 'अबला-सी! पर, हिम ही नहीं हिमानी - लहर भी कछ ही पलों में उस पकी फसल को
मूक माटी :: 59
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Safe . -जाना में अल्लन भी
जल जीवन देता है हिम जीवन लेता है, स्वभाव और विभाव में यही अन्तर है, यही सन्तों का कहना है
जग-जीवन-वेत्ता हैं। इससे यही फलित होता है
कि भले ही हिम की बाहरी त्वचा शीतशीला हो परन्तु, भीतर से हिम में शीतलता नहीं रही अब ! उसमें ज्वलनशीलता उदित हुई है अवश्य ! अन्यथा, जिसे प्यास लगी हो जिसका कण्ट सूख रहा हो,
और जिससे जिसकी आँखें जल रही हो यह जल्दी-से-जल्दी उन पीड़ाओं की मुक्ति के लिए जल के बदले में हिम की डली खा लेता हैं परन्तु, उलटी कसकर प्यास बढ़ती क्यों ? नाक से नाकी क्यों निकलती है?
54 :: मृक माटी
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यही तो विभाव की सफलता है,
और
स्वभाव-भाव की विकलता
इतने होने पर भी
सागरीय जल सत्ता
माँ- महासत्ता हिमखण्ड को डुबोती नहीं इसमें क्या राज है ?
ऐसा लगता हैं, कि
माँ की ममता है वह सन्तान के प्रति
वंश अंश के प्रति
ऐसा कदम नहीं उठा सकती -कभी भूल कर भी,
किन्तु, भावी बहुमान हेतु •
सब कुछ कष्ट-भार
अपने ऊपर ही उठा लेती है
और
भीतर-ही-भीतर चुप्पी बिठा लेती है I
"माना !
पृथक् वाद का आविर्माण होना
मान का ही फलदान है
साथ ही साथ
वह बात भी नकारी नहीं जा सकती
कि
मान का अत्यन्त बौना होना
मान का अवसान - सा लगता है
4-3
मूकमाटी : 55
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वह मान का बोना यानी वपन भी हो सकता है !"
यूं बीच में ही कंकरों की ओर से व्यंगात्मक तरंग आई
और संग की संगति से अछूती माटी के अंग को ही नहीं, सीधी जा कर अन्तरंग को भी छूती है वह कंकरों की तरंग !
कि
तुरन्त ही, "नहीं नहीं ! धृष्टता हुई, भूल क्षम्य हो माँ ! यह प्रसंग आपके विषय में घटित नहीं होता !" और" कंकरों का दल रो पड़ा। फिर, प्रार्थना के रूप में"ओ मानातीत मार्दव-मूर्ति, माटी माँ ! एक मन्त्र दो इसे जिससे कि यह हीरा बने
और खरा वने कंचन-सा !" कंकरों की प्रार्थना सुन कर माटी की मुस्कान मुखरित होती
"संयम की राह चलो
56 :: मूक माटी
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राही बनना ही तो हीरा बनना है, स्वयं राही शब्द ही विलोम-रूप से कह रहा हैराही हीरा
और इतना कठोर बनना होगा
तन और मन को तप की आग में तपा-तपा कर जला-जला कर राख करना होगा यतना घोर करना होगा। तभी कहीं चेतन – आत्मा खरा उतरेगा। खरा शब्द भी स्वयं विलोमरूप से कह रहा है... राख बने बिना खरा-दर्शन कहाँ ? राख खरा और आशीष के हाथ उटाली-सी माटी की मुद्रा उदार समुद्रा।
आज माटी को बस फुलाना है पात्र से, परन्तु अनुपात से
पुक पाटी :: 37
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उसमें जल मिला कर उसे घुलाना है।
आज माटी को
बस फुलाना है ! क्रमशः कम-कम कर बीते क्षणों को पुराने-पनों को बस, भुलाना है,
आज माटी को ..... . . . . . . उम, मुलाला है..।...
और उन कणों में क्षण-क्षणों में नव-नूतनपन बस, बुलाना है
आज माठी को
वस, फुलाना है। इसी कार्य हेतु प्रांगण में क्रूप है कूप पर खड़ा है कुम्भकार! कर में थी बालटीभँवर कड़ी-दार, उसे नीचे रखता है
और
उलझी रस्सी को सुलझा रहा है। झट-सी वह सुलझती भी पर, सुलझाते समय
18 :: मूक मादी
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रस्सी के बीचोंबीच एक गाँठ आ पड़ी कसी गांठ है वह |
खोलना अनिवार्य हैं उसे
और
आयाम प्रारम्भ हुआ शिल्पी का । हाथ के दोनों अंगुष्ठों में
दोनों तर्जनियों में
पूरी शक्ति ला कर
पर,
गाँठ खुल नहीं रही है। अंगुष्ठों का बल
घट गया हैं,
दोनों तर्जनी
केन्द्रित करता है वह,
श्वास रुकता है।
बाहर का बाहर भीतर का भीतर !
ली : कुम्भक प्राणायाम अपने आप घटित हुआ । होटों को चवाती-सी मुद्रा, दोनों बाहुओं में
नसों का जाल वह
तनाव पकड़ रहा है, त्वचा में उभार सा आया है
लगभग शून्य होने को हैं, और नाखून खूनदार हो उठे हैं
पर गाँठ खुल नहीं रही हैं !
मूकमाटी 531
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इसी बीच 'सेवक को सेवा दे कर उपकृत करो, स्वामिन्!"
दातों का दल शिल्पी को कह उठा
और "यह समयोचित है स्वामिन् ! हमने यही नीति सुनी है
बात का प्रभाव जव बल-हीन होता है हाथ का प्रयोग तब कार्य करता है।
और हाथ का प्रयोग जब बल-हीन होता है हथियार का प्रयोग तब आर्य करता है। इसलिए निःशंक हो कर दे दो रस्सी इसे स्वामिन् !"
और रस्सी प्रेषित होती दन्त पक्ति-तक
तुरन्त शूल का दाँत सब दाँतों से कह उठा कि "हे भात ! इस गाँठ में
li :: मूक मादी
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और, दाहिनी ओर का
निचला शूल
गाँठ का निरीक्षण करता है चारों ओर से सर्वांगीण
और अविलम्ब
सन्धि-स्थान की गवेषणा तुम नहीं कर सकते !"
उस सन्धि की गहराई में स्वयं को अवगाहित करता है, दाहिनी ओर के
उपरि शूल का सहयोग ले । दोनों शूलों के चूल
परस्पर मिल जाते हैं
और
उन शुलों के सबल मूल परस्पर बल पाते हैं
लो ! मार्दव मसूड़े तो इस संघर्ष में छिल-खुल गए हैं
फिर भी इस पर भी !!
गाँठ का खुलना तो दूर, वह हिलती तक नहीं
प्रत्युत,
शूलों के मूल ही लगभग हिलने को हैं
और
शूलों की चूलिकाएँ टूटने भंग होने को हैं ।
-
भूक माटी 61
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उनमें से मांस बाहर झाँकने को है ।
हठ छोड़ कर गाँठ को ढीली छोड़ !
घटी इस घटना को देख कर रसना भी
उत्तेजित हो बोल उठी
कि
62 : मूकमाटी
"खोरी रस्पी
मेरी और तेरी नामराशि एक ही हैं
परन्तु
आज तू रस-सी नहीं है,
निरी नीरस लग रही है सीधी सादी
-
श्री अब तक दादी, दीदी-सी
मानी जाती थी
उदारा अनूदरा-सी, अब सरला नहीं रही तू! घनी गठीली बनी है
और
अन्यथा
पश्चाताप हाथ लगेगा तुझे चन्द पलों में जब
घनी हठीली बनी है
I
अविभाज्य जीवन तेरा विभाजित होगा दो भागों में..!"
Somatice
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और इस निन्ध कार्य के प्रति छी'छी.
धिक्कारती-सी रसना गाँठ के सन्धि-स्थान पर लार छोड़ती है। परिणाम यह हुआ कि रस्सी हिल उठी अपने भयावह भविष्य से! और, कुछ ही पलों में गाँठ भीगी, नरमाई आई उसमें ढीली पड़ी वह। फिर क्या पूछो! दाँतों में गरमाई आई सफलता को देख कर! उपरित और निचले सामने के सभी दाँत तुरन्त गाँट को खोलते हैं।
अब रस्सी पूछती है रसना को जिज्ञासा का भाव ले
"जापके स्वामी को क्या बाधा थी इस गाँठ से?" सो रसना रहस्य खोलती है: "सुन री रस्सी!
पूक माटी :: 68
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मेरे स्वामी संयमी हैं हिंसा से भयभीत,
और
अहिंसा ही जीवन है उनका। उनका कहना है
भार्ग संयम केलिना आदनहीं । जाज
यानी! वही आदमी है जो यथा-योग्य सही आदमी है
हमारी उपास्य-देवता अहिंसा है और जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है वहाँ निश्चित ही हिंसा छलती है। अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है
और निन्थ-दशा में ही अहिंसा पलती है, पल-पल पनपती, "बल पाती है।
हम निन्ध-पन्थ के पथिक हैं इसी पन्थ की हमारे यहाँ चर्चा - अर्चा - प्रशंसा सदा चलती रहती है। यह जीवन इसी भाँति
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आगे-आगे भी चलता रहे
बस! और कोई वांछा नहीं। और तुमने कठिन-कठोर गाँठ पाल रक्खी थी उसे खोले बिना भरी बालटी को कूप से ऊपर निकालते समय जब वह गाँठ गिर्रा पर आ गिरेगी, नियम रूप से बालटी का सन्तुलन बिगड़ जाएगा तब।
रस्सी गिरी में फँसेगी। परिणाम-स्वरूप बालटी का बहुत कुछ जल उछल कर पुनः कूप में गिरेगा उस जल में रहते जलचर जीव लगी चोट के कारण अकाल में ही मरेंगे, इस दोष के स्वामी मेरे स्वामी कैसे बन सकते हैं? इसीलिए गाँठ का खोलना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य रहा। समझी बात!
पृक माटी :: 65
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आरी रस्सी!! बावली कहीं की मेरी आली!"
इधर यह क्या हुआ? स्निग्ध-स्मित मतिवाली काया की छाया, शिल्पी की सुदूर कूप में स्वच्छ जल में स्वच्छन्द तैरतीमछली पर जा पड़ी।
ऊपर हो उठी, और उसकी मानस-स्थिति भी ऊध्र्यमुखी हो आई,
परन्तु
उपरिल-काया तक मेरी काया यह कैसे उठ सकेगी? यही चिन्ता है मछली को! काया जड़ है ना! जड़ को सहारा अपेक्षित है,
और वह भी जंगम का। और सुनो ! काया से ही माया पली है माया से भावित-प्रभावित मति मेरी यह ।
66 :: मूक माटी
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......: : ...
मति सन्मति हो सकती है माया उपेक्षित हो तो"
अन्ध-कृप में पड़ी हूँ मैं कुरूपता की अनुभूति से कूप-मण्डूक-सी......... स्थिति है मेरी। गति, मति और स्थिति सारी विकृत हुई हैं स्वरूप-स्वभाव ज्ञात कैसे हो? ऊपर से प्रेषित हो कर मुझ तक एक किरण भी तो नहीं आती।
और, मछली के मुख से निकल पड़ी दीनता-धुली ध्वनि
कि इस अन्ध-कूप से निकालो इसे कोई उस हंस रूप से
मिला लो इसे कोई इस रुदन को कोई सुनता भी तो नहीं अरे कान वालो!'"सब बहरे हो गये हैं क्या?
यह रुदन, अरण्य-रोदन ही रहा है ऐसा सोच, पुनः विकल्पों में डूबती है माइली और उस डूबन में
मूक माटो :: 7
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एक किरण मिल जाती उसे
'सार-हीन विकल्पों से जीने की आशा को खाने के लिए विष हो मिल जाता है
और,
चिर-काल से सोती कार्य करने की सार्थक क्षमता धैर्य-धृति वह खोलती है अपनी आँख दृढ़-संकल्प की गोद में ही।" बस कृत-संकल्पिता हुई मछली ऊपर भूपर आने को।
नश्वर प्राणों की आस भाग चली ईश्वर प्राणों की प्यास जाग चली मछली के घर में!
फिर फिर क्या? जड़-भूत जल का प्यार निराधार कब तक टिकेगा? यह भी पल में हुआ पलायित
छूमन्तर कहीं। अभय का निलय मिला सभय का विलय हुआ मछली के जीवन में
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यहीं से घटित विजय हुआ धन्य!
अब ! प्रासंगिक कार्य आगे बढ़ता है, अंग-अंग संस्कारित थे सो. संयम की शिक्षा का संस्कार प्राप्त था जिन्हें वे दोनों हाथ शिल्पी के संयत हो उठे तुरन्त ! तभी वह शिल्पी रस्सी से बाँध. बालटी को धीमी गति से नीचे उतारता है कूप में जिससे कि मछली आदिक नाना जलचर जीवों का घात होना टल सके और अपने आत्म-तत्त्व को यहाँ और वहाँ अब और तब कर्म, कर्म-फल सोना छल सके !
मूक माटो :: 59
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..
लो ! हाथों-हाथ संकल्प फलीभूत होता-सा स्वप्न को साकार देखने की आस-भरी पछली की शान्त आँखें ऊपर देखती हैं। उतरता हुआ यान-सा दिखा, लिखा हुआ था उस पर "धम्मो दया-विसुद्धो” तथा "धम्म सरणं गच्छामि" ज्यों-ज्यों कूप में उत्तरती गई बालटी त्यों-त्यों नीचे, नीर की गहराई में झट-पट चले जाते प्राण-रक्षण हेतु मण्डूक आदिक अनगिन जलीय-जन्तु।
किन्तु, हलन-चलन-क्रिया मुक्त हो
अनिमेष - अपलक निहारती हैं उतरती बालटी को रसनाधीना रसलोलुपा सारी मछलियाँ वे, भोजन इससे कुछ तो मिलेगा
इस आशा से ! पर यह क्या! वंचना"! खाली बालटी देख कर
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उसे नूतन जाल-बन्धन समझ सब मछलियाँ भागतीं भीति से । मात्र संकल्पिता वह मछली वहीं खड़ी हैं साथ एक को सखी है उसकी
और
उस सखी को कुछ कहती है वहः "चल री चल! इसी की शरण लें हम। . 'धम्मो दया-विसुद्धो यही एक मात्र है अशरणों की शरण! महा-आयतन है यह यहीं हमारा जतन है बरना, निश्चित ही आज या कल काल के गाल में कवलित होंगे हम!
क्या पता नहीं तुझको? छोटी को बड़ी मछली साबुत निगलती हैं यहाँ
और
सहधर्मी सजाति में ही वैर वैमनस्क भाव परस्पर देखे जाते हैं ! श्वान, श्वान को देख कर ही नाखूनों से धरती को खोदता हुआ गुर्राता है बुरी तरह।"
मूक माटी :: 71
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आखिर:- आचार्य श्री सुनिशिसागर जी महारा उसकी सखी बोलती है"कथंचित बात सच है तुम्हारी,
परन्तु
हमारे भक्षण से अपनी ही जाति बदि पुष्ट-सन्तुष्ट होती है तो वह इष्ट हैं क्योंकि अन्त समय में अपनी ही जाति काम आती है शेष सब दर्शक रहते हैं दार्शनिक बन कर!
और विजाति का क्या विश्वास ?
आज श्वास-श्वास पर विश्वास का श्वास घुटता-सा देखा जा रहा है। प्रत्यक्ष!
और सुनो। बाहरी लिखावट-सी भीतरी लिखावट माल मिल जाए, फिर कहना ही क्या ! यहाँ तो. 'मुँह में राम बगल में बगुला' छलती है।
दया का कथन निरा है
और
दया का वतन निरा है
72:: मूक मादी
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एक में जीवन है एक में जीवन का अभिनय। अब तो अस्वों, शस्त्रों और वस्त्रों कृपाणों पर भी 'दया-धर्म का मूल है लिखा मिलता है। किन्तु, कृपाण कृपालु नहीं हैं वे स्वयं कहते हैं हम हैं कृपाण
हम में कृपा न ! कहाँ तक कहें अब ! धर्म का झण्डा भी डण्डा बन जाता हैं शास्त्र शस्त्र बन जाता है अवसर पा कर।
और प्रभु-स्तुति में तत्पर सुरीली बाँसुरी भी बाँस बन पीट सकती है प्रम-पथ पर चलनेवालों को। समय की बलिहारी है।"
सखी की बात सुन कर मछली पुनः कहती है कि "यदि तुझे नहीं आना है, मत आ
परन्तु
उपदेश दे कर व्यर्थ में समय मत खा!"
मूक माटी :: 73
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प्रत्येक व्यवधान का सावधान हो कर
और, सहेलों के बिना अकेली ही चलती मछली सामयिक सूक्तियाँ छोड़ती हुई :
सामना करना
नूतन अवधान को पाना है, या यूँ कहूँ इसे
अन्तिम समाधान को पाना है।
I
74 मूक पाटी
गुणों के साथ अत्यन्त आवश्यक है
दोषों का बोध होना भी,
किन्तु
दोषों से द्वेष रखना
दोषों का विकसन है
और
गुणों का विनशन है;
काँटों से द्वेष रख कर
फूल की गन्ध - मकरन्द से
वंचित रहना
अज्ञता ही मानी है,
और
काँटों से अपना बचाव कर
सुरभि - सौरभ का सेवन करना
विज्ञता की निशानी है
सो" विरलों में ही मिलती है !
i
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इधर''अधर से उत्तरी बालटी में पानी
और पानी में बालटी पूर्ण रूप से दोग अवगाहित होते हैं, मछली उसमें प्रवेश पा जाती है 'धम्म सरणं पव्यज्जामि' इस मन्त्र को भावित करती हुई आस्था उसकी और आश्वस्त होती जा रही है, आत्मा उसकी और स्वस्थ होती जा रही है। इस धुति की काष्टा को देख कर इस मति की निष्ठा को देख कर सारी-की-सारी मछलियाँ विस्मित हो आई
और कुछ क्षणों के लिए उनकी भीतियाँ विस्मृत हो आईं।
सत्कार्य करने का एक ने मन किया ""दृढ़ प्रण किया
और
शेष सबने उसका अनुमोदन किया।
मूक माटी :: 75
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एक 'भावित हुई शेष प्रभावित हुई एक को दृष्टि मिली दिशा सब पा गईं।
दया की शरण मिली जिवा में किरण खिली
और सब-की-सब उजली ज्योति से प्रकाशित हुईं स्नात स्नपित हुई भीतर से भी, बाहर से भी तत्काल!
..
.
......
...
इस अवसर पर पूरा-पूरा परिवार मा उपस्थित होता है मुदित-मुखी वह। तैरती हुई मछलियों से उठती हुई तरल-तरंगें तरंगों से घिरी मछलियाँ ऐसी लगती हैं कि सब के हाथों में एक-एक फूल-माला है
और सत्कार किया जा रहा है महा मछली का, नारे लग रहे हैं'मोक्ष की यात्रा
"सफल हो
76 :: मूक माटी
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मोह की मात्रा
"विफल हो धर्म की विजय हो कर्म का विलय हो जय हो, जय हो जय-जय-जय हो
लो ! समय निकट आ गया है, बालटी वह यान-सम ऊपर उठने को है और मंगल-कामना मुखरित होतीमछली के मुख से : "यही मेरी कामना है
कि आगामी छोरहीन काल में बस इस घट में
काम ना रहे !" इस शुभ यात्रा का एक ही प्रयोजन है, साम्य-समता ही मेरा भोजन हो सदोदिता सदोल्लसा मेरी भावना हो, दानव-तन धर मानव-मन पर हिंसा का प्रभाव ना हो,
दिवि में, भू में भूगर्भो में
मूक माटी ::17
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________________
लबालब जल से भरी हुई बालटी कूप से ऊर्ध्व-गतिवाली होती है
अब !
जिया-धर्म की दमा-धर्म की प्रभावना हो !
पतन-पाताल से
उत्थान - उत्ताल की ओर। केवल देख रही है मछली,
जल का अभाव नहीं
बल का अभाव नहीं तथापि
तैर नहीं रही मछली । भूल- सी गई है तैरना वह, स्पन्दन-हीन मतिवाली हुई है स्वभाव का दर्शन हुआ, कि क्रिया का अभाव हुआ-सा लगता है अब ! अमन्दस्थितिवाली होती है वह !
78 मूक पाटी
बालटी वह अबाधित ऊपर आई-भू पर
कूप का बन्धन दूर हुआ मछली का सुनहरी है, सुख-झरी हैं धूप का वन्दन !
द्वार
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________________
.
..: . ."
पूरा हुआ वह सुख का | धूप की आभा से भावित हो रूप का नन्दन वन। धूल का समूह वह सिन्दूर हुआ मुख का मछली की आँखें अब दौड़ती हैं सीधी उपाश्रम की ओर'! दिनकर ने अपनी अंगना को दिन-भर के लिए भेजा है उपाश्चम की सेवा में, .और वह ..... ... :: ......
आश्रम के अंग-अंग को प्रांगण को चूमती-सी
सेवानिरत-धूप"! स्थूल हैं रूपवती रूप-राशि है वह पर पकड़ में नहीं आती। पर-छुवन से परे हैं वह प्रभाकर को छोड़ कर प्रभु के अनुरूप ही सूक्ष्म स्पर्श से रीता रूप हुआ है किसका ?
धूप का मानना होगा यह परिणाम-भाव उपाश्रम की छाँव का है और
मूक माटी :: 79
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________________
*
मछली की मूल का
भंजन"" चूर हुआ दुःख का।
एक दृश्य दर्शित होता है उपाश्रम के प्रांगण में: * गुरुतम भाजन है, जिसके मुख पर वस्त्र बँधा है साफ-सुथरा खादी का दोहरा किया हुआ
और उसी ओर बढ़ता है कुम्भकार
बालटी ले हाथ में। बड़ी सावधानी से धार बाँध कर जल छानता है वह धीरे-धीरे जल छनता है, इतने में ही शिल्पी की दृष्टि थोड़ी-सी फिसल जाती है अन्यत्र ।
उछलने को मचलती-सी यह मछली बालटी में से उछलती है और जा कर गिरती है माटी के पावन चरणों में"! फिर फूट-फूट कर रोती है उसकी आँखें संवेदना से भर जाती हैं
HT :: मूक माटी
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और वेदना से घिर आती हैं एक साथ तत्काल वे अपूर्यता की प्यासी है प्रभु की दासी-सी वरीयमी लनी हैं.. ... . जिन आँखों से छूट-छूट कर माटी के चरणों को धोती हैं वह
ज्जली-उजली अश्रु की बूंदें...! जिन बूंदों ने क्षीर-सागर की पावनता मूलतः हरी है पीर-सागर की सावणता चूलतः झरी है।
यहाँ पर इस युग को यह लेखनी पूछती है
क्या इस समय मानवता पूर्णत: मरी है? क्या यहाँ पर दानवता आ उभरी है? लग रहा है कि मानवता से दानवत्ता कहीं चली गई है? और फिर
पृक माटी :: 81
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भी मा.
महावता में दानवजाही
पली थी कब वह? 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इस व्यक्तित्व का दर्शनस्वाद - महसूस इन आँखों को सुलभ नहीं रहा अब'''! यदि वह सुलभ भी है तो भारत में नहीं, महा-भारत में देखो! भारत में दर्शन स्वारथ का होता है।
हाँ-हाँ! इतना अवश्य परिवर्तन हुआ है
'वसुधैव कुटुम्बकम्' इसका आधुनिकीकरण हुआ है 'वसु' यानी धन-द्रव्य 'धा' यानी धारण करना आज धन ही कुटुम्ब बन गया है
धन ही मुकुट बन गया है जीवन का ! अब मछली कहती हैं माटी को"कुछ तुम भी कहो, माँ: कुछ और खोल दो इसी विषय को, माँ!"
सो मछन्नी की प्रार्थना पर
माटी कुछ सार के रूप में कहती है, कि "सुनो बेटा! यही कलियुग की सही पहचान हैं
12 :: मूक मारी
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जिसे
'खरा' भी अखरा है सदा
और
सतयुग तू उसे मान बुरा भी
'बूरा' - सा लगा है सदा । "
कलि काल समान हैं अदय-निलय रहा अति क्रूर होता है और सत् कलिका लता समान है अतिशय सदय रहा हैं
पुनः बीच में ही निवेदन
है. सली
कि
विषय गहन होता जा रहा है जरा सरल करो ना!
सो माँ कहती है "समझने का प्रयास करो, सतयुग हो या कलियुग बाहरी नहीं
भीतरी घटना है वह
सत् की खोज में लगी दृष्टि ही
सत-युग हैं, बेटा!
और
असत् - विषयों में डूबी
आ-पाद-कण्ठ
सत् को असत् माननेवाली दृष्टि स्वयं कलियुग है, बेटा !
बेटा !
मूक पाटी : 13
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________________
मृदु-पूर होता है। कलि की आँखों में भ्रान्ति का तामस ही महराता है सदा
और
सत की आँखों में शान्ति का मानस ही लहराता हैं सदा ।
एक की दृष्टि व्यष्टि की ओर भाग रही है, एक की दृष्टि समष्टि की ओर जाग रही है, एक की सृष्टि चला-चपला है एक की सृष्टि
कला-अचला है एक का जीवन मृतक-सा लगता है कान्तिमुक्त शब है, एक का जीवन अमृत-सा लगता है कान्तियुक्त शिव है। शव में आग लगाना होगा,
और शिव में राग जगाना होगा। समझी बात, बेटा!"
SA:: मूक माटी
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________________
"नासमझ थी, समझी बात, माँ ! उलझी थी, अब सुलझी, माँ! अब पीने को जल-तत्त्व की अपेक्षा नहीं; अब जीन को बल-सत्त्व की अपेक्षा नहीं टूटा-फूटा फटा हुआ यह जीवन जुड़ जाय बस, किसी तरह शाश्वत सत् से,
__ "सातत्य चित्त से बेजोड़ बन जाय, बस: अब सीने को
सूई-सूत्र की अपेक्षा नहीं। जल में जनम लेकर भी जलती रही यह मछली जल से, जलचर जन्तुओं से जड़ में शीतलता कहाँ माँ? चन्द पलों में इन चरणों में जो पाई !
मलयाचल का चन्दन
और
चैतीहारिणी चाँद की चमकती चाँदनी भी चित्त से चली गई उछली-सी कहीं मेरी स्पर्शा पर आज। हषां की वर्षा की है तेरी शीतलता ने। माँ ! शीत-लता हो तुम ! साक्षात् शिवायनी !
मूक मार्टी :::
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________________
तेरी गोद में ही
और बोध मिलेगा, माँ ! तेरी गोद में ही फिर शोध चलेगा, माँ ! अगणित गुणों के ओघ का!
__ और सुनो, माँ! व्याधि से इतनी भीति नहीं इसे ....जितनी, आधि. से है........:::.
और आधि से इतनी भीति नहीं इसे जितनी उपाधि से। इसे उपधि की आवश्यकता है उपाधि की नहीं, माँ! इसे समधी - समाधि मिले, बस! अवधि - प्रमादी नहीं। उपधि यानी उपकरण- उपकारक है ना! उपाधि यानी परिग्रह - अपकारक है ना!"
और मछली कहती है, "इसलिए मुझे सल्लेखना दो, माँ! बोधि के बीज, सो उल्लेखना दो, माँ! मुझे देखना दो
समाधि को बस देख सकूँ!" इस पर मुस्कान लेती हुई माटी कहती है कि
86 :: एक माटी
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________________
"सल्लेखना, यानी काय और कषाय को कृश करना होता है, बेटा! काया को कृश करने से कषाय का दम घुटता है,
"घुटना ही चाहिए। और, काया को मिटाना नहीं, मिटती-काया में मिलती-माया में म्लान-मुखी और मुदित-मुखी नहीं होना ही ... सही सल्लेखना है, अन्यथा आतम का धन लुटता है, बेटा!
वातानुकूलता हो या न हो बातानुकुलता हो या न हो सुख या दुःख के लाभ में भी भला छपा हुआ रहता है, देखने से दिखता है समता की आँखों से, लाभ शब्द ही स्वयं विलोम रूप से कह रहा है
लाभ भ"ला अन्त-अन्त में यही कहना है बेटा!
कि अपने जीवन-काल में छली मछलियों-सी छली नहीं बनना विषयों की लहरों में भूल कर भी मत चत्ती बनना।
मूक मादी :: 87
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________________
....
और सुनो, बेटा मासूम मछली रहना, यही समाधि की जनी है।'
और माटी सकेत करती है शिल्पी को.......
. कि "इस भव्यात्मा को कूप में पहुंचा दो सुरक्षा के साथ अविलम्ब ! अन्यथा इस का अवसान होगा, दोष के भागी तुम बनोगे असहनीय दुःख जिसका
फलदान होगा !" जल छन गया है
और जलीय जन्तु शेष बचे हैं वस्त्र में उन्हें और मछली को बालटी में शुद्ध जल डाल कर कूप में सुरक्षित पहुँचाता है शिल्पी, पूर्ण सावधान हो कर ।
कूप में एक बार और 'दया-विसुद्धो धम्मो' ध्वनि गूंजती है
और
ध्वनि से ध्वनि. प्रतिध्वनि निकलती हुई दीवारों से टकराती-टकराती ऊपर आ उपाश्रम में लीन डूबती"सी !
88 :: मूक पाटी
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रखण्ड : दो शब्द सो बोध नहीं बोध सो शोध नहीं
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०००००००० NVO 10:00 UND
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लो, अब शिल्पी
मात्रानुकूल मिलाता है छना निर्मल जल। नूतन प्राण फूंक रहा है माटी के जीवन में करुणामय कण-कण में,
अलगाव से लगाव की ओर एकीकरण का आविर्भाव
और फूल रही है माटी। जलतत्व का स्वभाव थावह बहाव इस समय अनुभव कर रहा है ठहराव का। माटी के प्राणों में जा पानी ने वहाँ नव-प्राण पाये हैं, ज्ञानी के पदों में जा अज्ञानी ने जहाँ नव-ज्ञान पाया है। अस्थिर को स्थिरता मिली अचिर को चिरता मिली नय-नूतन परिवर्तन'''!
मूक माटी :: 9
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wa
तन में चेतन का चिरन्तन नर्तन है यह वह कौन-सी आँखें हैं
किस की, कहाँ, क्या हैं? जिन्हें संभव है
इस नर्तन का दर्शन यह?
→
अथ
शीत - काल की बात है अवश्य ही इसमें
90: मूक भाटी
•
विकृति का हाथ है पेड़-पौधों की
डाल-डाल पर
पात-पात पर
कम्पन के परिचय से परिचित सब के गात हैं पर अनुकम्पा से भरा उर किसका हैं ? कौन हैं वह,
कहाँ ?
हिमपात है
और इसी की हाँ में हाँ मिलाता
प्रकृति के साथ
मलिन मना, कलिल तना बात करता वात है ।
कल-कोमल कायाली लता - लतिकाएँ ये, शिशिर छुवन से पीली पड़ती-सी
I
पूरी जल जात है।
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उस की कृपा कब होती है? वसुधा पर वरीयसी अनुकम्पा की बरसात है।
गीत-काल में कब थे दीक्षित भी शिक्षित कब थे प्रशिक्षित भी, फिर भी अभ्यासी-सम
नर्तन करते सब के दाँत हैं। दिन में सिकुड़न हो आई है प्रभाकर की प्रखरता भी इरती बिखरती-सी लगती है
और
ऊपर हो कर भी नभ में ... ... .. ... ... .. .. पाकर लनामाश है! . : .. जहाँ कहीं भी देखा महि में महिमा हिम की महकी, और आज! धनी अलिगुण-हनी शनि की खनी-सी भय-मद अघ की जनी
दुगुणी हो आई सत है। आखिर अखर रहा है यह शिशिर सबको पर! पर क्या? एक विशेष बात है, कि
शिल्पी की बह
सहज रूप से कटती-सी रात है ! एक पतली-सी सूती-चादर भर
-.
-'.
मूक माटी ::
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. .. ... ... ..उसक अंग पर है !
और वह पयांप्त है उसे,
शीत का विकल्प समाप्त है। फिर भी, लोकोपचार वश कछ कहती है माटी शिल्पी से वाहर प्रांगण से ही"काया तो काया है जड़ की छाया-माया है । लगती है जाया-सी. सो. कम-से-कम एक कंबल तो.. काया पर ले लो ना ! ताकि और चुप हो जाती है माटी तुरन्त ही फिर शिल्पी से कुछ सुनती है बह
''कम बलवाले ही कंबलवाले होते हैं
और काम के दास होते हैं। हम बलवाले हैं राम के दास होते हैं
और राम के पास सोते हैं। कंबल का संबल आवश्यक नहीं हमें सस्ती सूती चादर का ही आदर करते हम ! दूसरी बात यह है कि
92 :: मूक पाटी
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गरम चरमवाले ही शीत-धरम से भय-भीत होते हैं
और नीत-करम से विपरीत होते हैं। मेरी प्रकृति शीत-शीला है
और ऋतु की प्रकृति भी शीत-झीला है दोनों में साम्य है तभी तो अबाधित यह
चल रही अपनी मीत-लीला है। स्वभाव से ही प्रेम है हमारा
और स्वभाव में ही क्षेम है हमारा। पुरुष प्रकृति से यदि दूर होगा निश्चित ही वह विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही मोक्ष है, सार है।
और अन्यत्र रमना ही भ्रमना है मोह है, संसार है!
और सुनो। शमी-सन्तों से एक
मूक माटी :: ५.
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सुनो, सही सुनो! मनोयोग से !
अकाय में रत हो जा !
काय और कायरता
ये दोनों
सूत्र मिला है हमें किकेवल वह बाहरी उद्यम हीनता ही नहीं,
वरन्
मन के गुलाम मानव की जो कामवृत्ति है
तामसता काय-रता है
वही सही मायने में भीतरी कायरता है!
अन्त काल की गोद में विलीन हों आगामी अनन्त काल के लिए!
94. मूक पाटी
फूल दलों-सी पूरी फूली माटी है माटी का यह फूलन ही चिकनाहट स्नेहिल भाव का
आदिम रूप-मूलन है।
और
रूखापन का, द्वेषिल-भाव का अभाव रूप उन्मूलन है।
यह जो गति आई है माटी में माटी ने जो किया
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जल-पान का परिणाम हैं, परन्तु जल-धारण की क्षमता कब उभरेगी इसमें? जब माटी में चिकनाहट की प्रगति हो
और अनल का पान करेगी यह । माटी की चिकनाहर का । अपनी चूलिका तक पहुंचाने शिल्पी का आना हो रहा है।
प्रभात की पावन वेला में माटी के हर्ष का पार नहीं
और वहीं पर पड़ा-पड़ा इस दृश्य का दर्शन करता एक काँटा निशा के आँचल में से झाँकत्ता
चकित चोर-सा! मादी खोदने के अवसर पर कुदाली की मार खा कर जिसका सर अध-फटा है जिसका कर अध-कटा है दुबली पतली-सी कमर - कटि थी उसकी, वहीं अब और कटी है, जिधर की टाँग टूटी है उधर की ही आँख फूटी है, और चपला जवला उमर पर भी
भूकं मारी :: 9:
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असर पड़ा है मार का लगभग वह भी घटी है। कहीं तक कहें कांटे की कैंटीली काया दिखती अब अटपटी-सी हैं। इसमें सन्देह नहीं हैं प्रायः प्राण उसके कण्ट-गत हैं श्वास का विश्वास नहीं अब, फिर भी आसमान का आधार आस हैं ना! तन का बल वह कण-सा रहता है और मन का बल वह मन-सा रहता हैं वह एक अकाट्य नियम है।
हाँ ! यही यहाँ पर घट रहा है कंटक का तन सो पूर्णतः ज्वर से घिरा है फिर भी मिट नहीं रहा वह, जो रहा है, और उसका मन मधुर ज्वार सं भरा रस पी रहा वह, इस पर किसका चित्त यह चकित नहीं होगा ? इस विस्मय का कारण भी सुनो ! मन को छल का संबल मिला हैंस्वभाव से ही मन चंचल होता है,
तथापि
!!! :: पृक मादी
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इस मन का छल निश्चल हैं मन माया की खान है ना ! बदला लेना ठान लिया है शिल्पी से इसने। शिल्पी को शल्य-पीड़ा द कर ही इस मन को चैन मिलंगी वैसे मन वैर-भाव का निधान होता ही है।
मन की छांव में ही मान पनपता है मन का माधा नमता नहीं न-मन' हो, तव कहीं नमन हो 'समण' को इसलिए मन यही कहता है सदा-.
नम न! नम न:: नम न!!! बादल-दल पिघल जाए, किसी भाँति! काँटे का बदले का भाव बदल जाए इसी आशय से माटी कुछ कहती हैं उसे
"बदले का भाव यह दल-दल है.
कि जिसमें बड़े-बड़े बैल ही क्या, चल-शाली गज-दल तक बुरी तरह फंस जाले हैं
और
गल-कपोल तक पूरी तरह धंस जाते हैं।
गृक पाटा .
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बदले का भाव वह अनल है
जलाता है तन को भी, चेतन को भी भवों-भवों तक!
. बहले का भाव बह राह ......... : . :. : . : ......
जिसके सुदीर्घ विकराल गाल में छोटा-सा कवल बन चेतनरूप भास्वत भान भी
अपने अस्तित्व को खो देता है और सुनो: बाली से बदला लेना ठान लिया था दशानन ने फिर क्या मिला फल? तन का बल मथित हुआ मन का बल व्यथित हुआ
और यश का बल पतित हुआ यही हुआ ना ! त्राहि मां! त्राहि मां:! त्राहि मां!!! यूँ चिल्लाता हुआ राक्षस की ध्वनि में रो पड़ा तभी उसका नाम रावण पड़ा।"
"हाँ! हाँ! बस! बस! । अधिक उपदेश से विराम हो, माँ! मात्र दृष्टि में मत नाम हो, माँ: गुणवत्ता काम की ओर भी कुछ आयाम हो अब!
98 :: मृक माटी
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... यहाँ आक्रमण हो रहा है ::..
वहीं निकट में एक गुलाब का पौधा खड़ा है सुरभि से महकता।
और ध्वनि गूंजती है सतेज शूल-दलों की ओर से
कि इस बात को हम स्वीकारते हैं
दूसरों की पीड़ा-शल्य में हम निमित्त अवश्य हैं इसी कारण से हम शूल हैं। तथापि सदा हमें शूल के रूप में ही देखना बड़ी भूल है, कभी कभी शूल भी अधिक कोमल होते हैं
___फूल से भी और कभी कभी फूल भी अधिक कठोर होते हैं "शूल से भी।
मृदु-मांसल गालों से हमें छू लेती है फूली पुष्पावली वह इस कठिन चुभन से इस मुदता की कली-कली खिल उठती है
मूक माटी :: #
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एक अपूर्व सुख-शान्ति
संवदित ही खेलती है उसमें । फिर तुम ही बताओ हम शूल कहाँ रहे? बे फूल कहाँ रहे?
उस वासना की क्रीड़ा ने हम पर आक्रमण किया है, हमारी उपासना को बड़ी पीड़ा पहुँचाई है फिर भी क्या वह फूल शूल नहीं है ? लगता है, कि
दृष्टि में कहीं धूल पड़ी है! हमें अपने शील-स्वभाव से च्युत करने का प्रयास करती हैं ललित-लताएँ ये.. हमसे आ लिपटती हैं खुलकर आलिंगित होती हैं तथापि हम शूलों की शील-छवि विलित-विचलित ना होती,
नोकदार हमारे मुख पर आ कर अपने राग-पराग डालती हैं तथापि रागी नहीं बना पाती हमें हम पर
दाग नहीं लगा पाती वह । आशातीत इस नासा तक अपनी सुरभि-सुगन्ध
[१९ :: गृक पाटी
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प्रेषित करती रहती पर, पर क्या इस नासा में वह कहाँ आस जगा पाती?
विस्मित लोचन वानी सस्मित अधरों वाली वह इन लोचनों तक कुछ मादकता, कुछ स्वादकता सरपट सरकाती रहती हैं हाव-भाव-भंगों में नाच नाचती रहती हैं
हमारे सम्मुख सदा सलील! प्रायः यही देखा गया है
ललाम चाम वाले घाम-चाल वाले होते हैं बाहर से कुछ विमल-कोमल रोम वाले होते हैं
और भीतर से कुछ समल-कठोर कौम वाले होते हैं।
लोक-ख्याति तो यही है
कामदेव का आबुध फूल होता है
और महादेव का आयुध शूल। एक में पराग है सघन राग है जिस का फल संसार मिलता है
मूक पाटी :; 101
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एक में विराग है अनघ त्याग है जिसका फल पार मिलता है।
एक औरों का दम लेता है बदले में
मद भर देता है,
एक औरों में दम भर देता हैं तत्काल फिर
निर्मद कर देता है ।
102 : मूक माटी
दम सुख हैं, सुख का स्रोत भद दुःख है, सुख की मौत ! तथापि
यह कैसी विडम्बना है,
कि
सब के मुख से फूलों की ही प्रशंसा की जाती है,
और
शूलों की हिंसा की जाती हैं
यह क्या
सत्य पर आक्रमण नहीं है?
पश्चिमी सभ्यता
आक्रमण की निषेधिका नहीं है अपितु !
आक्रमण - शीता गरीयसी हैं जिसकी आँखों में
विनाश की लीला विभीषिका घूरती रहती है सदा सदोदिता
और
महामना जिस ओर अभिनिष्क्रमण कर गये
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सब कुछ तज कर, बन गये नग्न, अपने में मग्न बन गये उसी ओर''. उन्हीं की अनुक्रमणिका-निर्देशिका भारतीय संस्कृति है
सुख-शान्ति की प्रवेशिका है यह। .. . छूत की अर्धा होती है .......... ... ... ...... :::
इसलिए फूलों की चर्चा होती हैं। फूल अर्चना की सामग्री अवश्य हैं ईश के चरणों में समर्पित होते वह
फूलों को छूते नहीं भगवान शूल-धारी होकर भी। काम को जलाया है प्रभु ने तभी तो" शरण-हीन हुए फूल शरण की आस ले प्रभु-चरणों में आते वह;
और सुनो ! प्रभु का पावन सम्पर्क पा कर फूलों से विलोम परिणमन शूलों में हुआ है कहाँ से यहाँ तक
और यहाँ से कहाँ तक? कब से अब तक और अब से कब तक?
मृक माटी :: 103
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आदि, आदि सूक्ष्माति-सूक्ष्म स्थान एवं समय की सूचना सूचित होती रहती है सहज ही शूलों में। अन्यथा, दिशा-सूचक यन्त्रों
और
समय-सूचक यन्त्रों-घड़ियों में
काँटे का अस्तित्व क्यों ? इस बात को भी हमें नहीं भूलना है
घन-घमण्ड से भरे हुए उद्दण्डों की उद्दण्डता दूर करने दण्ड-संहिता की व्यवस्था होती हैं, और शास्ता की शासन-शय्या फूलवती नहीं शूल-शीला हो, अन्यथा, राजसत्ता वह राजसता को सनी-राजधानी बनेगी वह!
इसीलिए तो ऐसी शिल्पी की मति-परिणति में परिवर्तन - गति वांछित है सही दिशा की ओर और क्षत-विक्षत कॉटा वह पुनः कहता हैकम-से-कम शिल्पी
14 :: मूक माटी
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इस भूल के लिए शूल से क्षमा याचना तो करे, माँ !"
अब माटी का सम्बोधन होता है : "अरे सुनो ! कुम्भकार का स्वभाव - शील तुम्हें कहाँ ज्ञात हैं ? जो अपार अपरम्पार क्षमा-सागर के उस पार को पा चुका है क्षमा की मूर्ति क्षमा का अवतार है।"
इतने में ही को पारिन को भी मानली.. .. . अनुकम्पा पीयूषभरी वाणी निकली शिल्पी के मुख से,
जिसमें
धीर-गम्भीरता का पुट भी है . "खम्मामि, खमंतु मेंक्षमा करता हूँ सबको, क्षमा चाहता हूँ सबसे सबसे सदा-सहज बस मैत्री रहे मेरी ! वैर किससे क्यों और कब करूँ ? यहाँ कोई भी तो नहीं है संसार-भर में मेरा वैरी !"
मूक माटी :: 105
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i
विनयोपजीवी उस पुट नेकोटि-पुटी अभ्रक-सा तन- वितान को पार कर काँटे की सनातन चेतना को प्रभावित किया।
M
106 :: पूक माटी
उत्तुंग ऊँचाइयों तक उठनेवाला ऊर्ध्वमुखी भी ईंधन की विकलता के कारण
उलटा उतरता हुआ
अति उदासीन अनल- सम
क्रोध-भाव का शमन हो रहा है। पल प्रतिपल
पाप-निधि का प्रतिनिधि बना
प्रतिशोध - भाव का वमन हो रहा है। पल प्रतिपल
-
-
पुण्य-निधि का प्रतिनिधि बना हुआ air- भाव का आगमन हो रहा है, और
अनुभूति का प्रतिनिधि बना हुआ शोध-भाव को नमन हो रहा है सहज अनायास ! यहाँ !!
प्रकृत को ही और स्पष्ट प्रकाशित करती-सी यह लेखनी भी उद्यमशीला होती है, कि बोध के सिंचन बिना शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है, कि शब्दों के पौधों पर सुगन्ध मकरन्द-भरे
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बोध के फूल कभी महकते नहीं,
फिर !
संबंध- स्वाद्य फलों के दल दोलायित कहाँ और कब होंगे...?"
लो सुनो, मनोयोग से ! लेखनी सुनाती है, कि
बोध का फूल जब ढलता - बदलता, जिसमें
वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है I बोध में आकुलता पलती है शोध में निराकुलता फलती है,
फूल से नहीं, फल से तृप्ति का अनुभव होता है,
फूल का रक्षण हो
और
फल का भक्षण हो; हाँ! हाँ !!
फूल में भले ही गन्ध हो
पर, रस कहाँ उसमें !
फल तो रस से भरा होता ही है, साथ ही
सुरभि से सुरभित भी" ।
क्षत-विक्षत शूल का दिल हिल उठा,
दिल का काठिन्य गल उठा शिल्पी के इस शिल्पन से अश्रुतपूर्व जल्पन से ।
सूक माटी : 1617
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पश्चाताप के साथ कंटक कहता है
। 'अहित में हित
और
हित में अहित ...... . . .. भिहित-सालमा इस, ::
मूल-गम्य नहीं हुआ। चूल-रम्य नहीं लगा इसे बड़ी भूल बन पड़ी इससे।
प्रतिकूल पद बढ़ गये वह पीछे बहुत दूर अनुकूल पथ रह गया गन्ध को गन्दा कहा
चन्द को अन्धा कहा पीयूष विष लगा इसे भूल क्षम्य हो स्वामिन् ! एक इसे अच्छा मन्त्र दो, परिणामस्वरूप आमूल जीवन इसका प्रशम-पूर्ण शम्य हो फिर, क्रमशः जीवन में वह भी समय आयेशरणागतों के लिए अभय-पूर्ण शरण्य हो परम नम्ध हो यह भी।"
इस पर शिल्पी कहता है, कि "मन्त्र न ही अच्छा होता है न ही बुरा अच्छा, बुरा तो अपना मन होता है
108:: मूक मारी
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स्थिर मन ही वह महामन्त्र होता है
और .... ...... अस्थिर बन ........:. : .
पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है, एक सुख का सोपान है
एक दुःख का 'सो' पान है।" पुनः शूल जिज्ञासा व्यक्त करता है
“मोह क्या बला है
और
मोक्ष क्या कला हैं ? इनकी लक्षणा मिले, व्याख्या नहीं, लक्षणा से ही दक्षिणा मिलती है। लम्बी, गगन चूमती व्याख्या से मूल का मूल्य कम होता है सही मूल्यांकन गुम होता है।
मात्रानुकूल भले ही दुग्ध में जल मिला लो दुग्ध का माधुर्य कम होता है अवश्य !
जल का चातुर्य जम जाता है रसना पर ।" कंटक की जिज्ञासा समाधान पाती है शिल्पी के सम्बोधन से"अपने को छोड़ कर पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है
और सबको छोड़ कर अपने आप में भावित होना ही
मूक माटी :: 109
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मोक्ष का धाम है।" यह सुन कर तुरन्त ! धन्य हो ! धन्य हो ! कह उठा कंटक पुनः ।
आज इसने सही साहित्य-छाँव में
अपने आपको पाया है झिल-मिल झिल-मिल मुक्ता-मोती-सी लगती हैं आपके मुख से निकलती शब्द-पंक्तियाँ ये लक्षणा का उपयोग-प्रयोग विलक्षण है यह, बहुतों से सुना, पर बहुत कम सुनने को मिला यह।
और व्यंजना भी आपकी निरंजना-सी लगती है विविध व्यंजन विस्मृत होते हैं। यदि सुविधा हो, बड़ी कृपा होगी, उदार बन कर अभिधा की विधा भी सुधारूँसुनाओ" तो "सुनूँ स्वामिन् ! 'साहित्य' इस शब्द पर हो तो फिर कहना ही क्या,
सर्वोत्तम होगा सम-सामयिक !" शिल्पी के शिल्पक-साँचे में साहित्य शब्द ढलता-सा !
..
सूझ पाटी
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“हित से जो युक्त - समन्वित होता है वह सहित माना हैं और सहित का भाव ही साहित्य बाना है,
अर्थ यह हुआ कि.: .....
जिसके अंवलांकन से " सुख का समुभव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है अन्यथा, सुरभि से विरहित पुष्य-सम सुख का राहित्य है वह
सार-शून्य शब्द-झुण्ड" इसे, यूँ भी कहा जा सकता है
कि
शान्ति का श्वास लेता सार्थक जीवन ही स्रजक है शाश्वत साहित्य का। इस साहित्य को
आँखें भी पद सकती हैं कान भी सुन सकते हैं इसकी सेवा हाथ भी कर सकते हैं
यह साहित्य जीवन्त है ना।" इस बार'"तो"काँटा कान्ता-समागम से भी कई गुणा अधिक आनन्द अनुभव करता है फटा माथ होकर भी
मूक माटी :: 111
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-
!
साहित्य का मन्धन करता मन्मथ-मथक बना वह उसका माथा'! मानिसटला ... भोर-विभोर हो एक टाँग वाला, पर नर्तन में तत्पर है काँटा !
मन्द-मन्द हँसता-हँसता उसका हंसा एहसास कराता है शिल्पी को
कि
--
-
-
सदा-सदियों से हंसा तो जीता है दोषों से रीता हो, परन्तु सबकी वह काया पीड़ा पहुँचाती है सबको इसीलिए लगता हैं, अन्त में इस काया का दाह-संस्कार होता हो। हे काया ! जल-जल कर अग्नि से, कई बार राख, खाक हो कर भी अभी भी जलाती रहती है आतम को बार-बार जनम ले-ले कर !
-
--
-
-
इधर, यह लेखनी भी कह उठी प्रासंगिक साहित्य-विषय पर, कि
लेखनी के धनी लेखक से
और प्रवचन-कला-कुशल से भी
-
--
-
112 :: मुक पाटो
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1:
कई गुणा अधिक साहित्यिक रस को
आत्मसात् करता है
श्रद्धा से अभिभूत श्रोता वह । प्रवचन-श्रवण-कला-कुशल है; हंस - राजहंस सदृश श्रीजीविषेक शीतवा
यह समुचित है कि रसोइया की रसना रसदार रसोई का
4
रसास्वादन कम कर पाती है। क्योंकि,
प्रवचन - काल में प्रवचनकार, लेखन - काल में लेखक वह दोनों लौट जाते हैं अतीत में
I
उस समय प्रतीति में न ही रस रहता है
न ही नीरसता की बात,
केवल कोरा टकराव रहता है
लगाव रहित अतीत से, बस !
口
शिल्पी का आगमन हो रहा है। माटी की ओर !
फुली माटी को रौंदना है
रौंद - रौंद कर उसे
लोंदा बनाना है रौंदन क्रिया भी बह
मूकमाटी : 113
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स्निग्धता की अधिकता माटी में और लाना है ना ! गोंद बनाना है उसे पगलियों से ही सम्भव है यह कारण कि कर्तव्य के क्षेत्र में कर प्रायः कायर बनता है
और . कर माँगता है कर वह भी खुल कर ! इतना ही नहीं, मानवत्ता से घिर जाता है
मानवता से गिर जाता है। इससे विपरीत-शील है पांव का परिश्रम का कायल बना यह पूरा का पूरा, परिश्रम कर प्रायः घायल बनता है
और पॉव नता से मितता है पावनता से खिलता है।
लो ! यकायक यह क्या घटने को! श्वास का सूरज वह अस्ताचल की ओर सरकता-सा शिल्पी का दाहिना पद चेतना से रहित हो रहा है खून का बहाव था जिसमें
उस पद में अब खून का अमाव हो रहा है।
[14 :: मूक माटी
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...
और दूसस पद कुछ पदों को कहता है पद-पद पर प्रार्थना करता है प्रभु से
कि पदाधिनावी नाकार, पर पर पद-पात न करूं, उत्पात न करूं, कभी भी किसी जीवन को पद-दलित नहीं करूं, हे प्रभो ! हे प्रभो ! और यह कैसे सम्भव हो सकता है ? शान्ति की सत्ता-सती माँ-माटी के माथे पर, पद-निक्षेप ! क्षेम-कुशल क्षेत्र पर प्रलय की बरसात है यह। प्रेम-वत्सल शैल पर अदय का पविपात है यह। सुख-शान्ति से दूर नहीं करना है इस युग को
और दुःख-क्लान्ति से चूर नहीं करना है।
माटी में उतावली की लहर दौड़ आती हैं स्थिति आवती की भी जहर छोड़ जाती है
मुक मादी :: ॥5
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यहाँ से अब आगे
उस घटना का घटक वह किस रूप में उभर आएगा सामने
और उस रूप में आया हुआ उभार बह कब तक टिकेगा ? उसका परिणाम किमात्मक होगा ? यह सब भविष्य की गोद में हैं परन्तु, भवन-भूत-भविष्यत्-वेत्ता भगवद-बोध में बराबर भास्वत है।
माटी की वह मति मन्दमुखी हो मौन में समाती है, म्लान बना शिल्पी का मन भी नमन करता है मौन को, पदों को आज्ञा देने में पूर्णतः असमर्थ रहा
और मन के संकेत पाए बिना
भला, मुख भी क्या कहे ? इस पर रसना कह उटी कि 'अनुचित संकेत की अनुचरी रसना ही बह रसातल की राह रहीं हैं" बानी ! जो जीव अपनी जीभ जीतता है दुःख रीतता है उसी का सुख मय जीवन बीतता है चिरंजीव बनता वहीं
16 :: मूक माटी
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और उसी की बनती वचनावली स्व-पर-दुःख-निवारिणी संजीवनी बटी
चलना, अनुचित चलना ... ... . ...:.:.::. :: .. :: .. दुबां -
ये तीन बातें हैं। प्रसंग चल रहा है कुचलने का कुचली जाएगी माँ माटी'! फिर भला क्या कहूँ, क्यों कहूँ किस विधि कहूँ पदों को ?
और, गम्भीर होती है रसना। महकती इस दर्गन्ध को शिल्पी की नासा ने भी अपना भोजन बना लिया तभी "तो" माटी को कुचलने अनुमति प्रेषित नहीं करती वह इस घृणित कार्य की निन्दा ही करती है, और थोड़ी-सी अपने को मरोड़ती, फूलती-सी नासा पदों का पूरा समर्थन करती है
कि पदों का इस कार्य से विराम लेना न्यायोचित हैं और पदोचित भी !
बाल-भानु की भाँति विशाल-भाल की स्वर्णाभा को
मूक माटी :: 7
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कुन्दित-भंगित होती देख शिल्पी की दोनों आँखें अपनी ज्योति को
118: मूकमाटी
I
बहुत दूर भीतर भेजती हैं और द्वार बन्द कर लेती हैं इससे यही फलित हुआ कि इस अवसर पर आँखों का
अनुपस्थित रहना ही
होनहार अनर्थ का असमर्थन हैं । ये आँखें भी
बहुत दूरदर्शिनी हैं। थोड़े में यूँ कहूँ
शिल्पी के अंग-अंग और उपांग उत्तमांग तक
उसी पथ के पथिक बने हैं
जिस पथ के पथिक पद बने हैं
I
माटी और शिल्पी दोनों निहार रहे हैं उसे उनके बीच में मौन जो खड़ा है मौन से कौन वो बड़ा है ? मौन की मौनता गौण कराता हो और
मौन गुनगुनाता है
उसे जो सुने, वहीं बड़ा है मौन से
I
बोल की काया वह अवधि से रची हैं ना
ढोल की माया वह परिधि से बची है ना ! परन्तु सुनो !
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पोल की छाया की अवधि सीमा कहाँ ?
वह
सब निधियों की निधि है बोध की जाया-सी सदियों से शुचि है ना ! माटी की और मौन मुड़ता है पहले मोम समान . मौन गलला-पिघलता है और मुस्कान वाला मुख खुलता हैं उसका। मृदु - मीठे मोदक-सम समतामय शब्द-समृह
निकलता है उसके मुख से : "ओ माँ माटी ! शिल्पी के विषय में तेरी भी.
.: आस्था अस्थिर-सी लग रही है। यह बात निश्चित है कि
जो खिसकती-सरकती है सरिता कहलाती है सो अस्थाई होती है।
और
सागर नहीं सरकता सो स्थाई होता है
परन्तु,
सरिता सरकती सागर की ओर ही ना ! अन्यथा, न सरिता रहे, न सागर ! यह सरकन ही सरिता की समिति है,
मूक माटी :: 119
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यह निरखन ही सरिता की प्रमिति है, बस यही तो आस्था कहलाती है। आस्था छटपटाती रहती है। जब तक उसे चरण नहीं मिलते चलने को,
आस्था के बिना आचरण में आनन्द आता नहीं, आ सकता नहीं। फिर, आस्थावाली सक्रियता ही निष्ठा कहलाती है,
यह भी बात ज्ञात रहे ! निगूढ़ निष्ठा से निकली निशिगन्धा की निरी महक-सी बाहरी-भीतरी वातावरण को सुरभित करती जो वही निष्टा की फलवती प्रतिष्ठा प्राणप्रतिष्ठा कहलाती है, जन-जन भविजन के मन को सहलाती - सुहाती हैं।
धीरे-धीरे प्रतिष्ठा का पात्र फैलाव पाता जाता है पराकाष्ठा की ओर जब प्रतिष्ठा बहती - वहती स्थिर हो जाती है जहाँ बही तो समीचीना संस्था कहलाती है। यूँ क्रम-क्रम से 'क्रम' बढ़ाती हुई सही आरथा ही वह निष्टा-प्रतिष्टाओं में से होती हुई सच्चिदानन्द संस्था की
12} :: मूक माटी
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सदा-सदा के लिए क्रय-विक्रय से मुक्त अन्य अवस्था एती है मां.. और
मौन अपने में डूबता है ।
"अरे मौन ! सुन ले जरा कोरी आस्था की बात मत कर तू आस्था से बात कर ले जरा !" यूँ माटी की आस्था ने मौन की, जो सम्मुख खड़ा
नींव की सृष्टि वह पुण्यापुण्य से रची इस धर्म-दृष्टि में नहीं
ललकारा
है
I
"मैं पाप से मौन हूँ तू आस्था से मौन, पाप के अतिरिक्त
सबसे रिक्त है तू ! आँखों की पकड़ में आशा आ सकती है परन्तु
आस्था का दर्शन आस्था से ही संभव है न आँखों से, न आशा से ।
अपितु
आस्था की धर्म-दृष्टि में ही उतर कर आ सकती है।"
वाहर आई आस्था माटी की वह गहरी मति में लौटती हुई मुड़ कर मौन को निहारती -सी घोड़ी लाल भी हो आई उसकी आँखें !
मूकमाटी 121
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मौन को डराती हुई तुरन्त उसकी लाल आँखों पर शिल्पी की नीली आँखें
नीलिमा छिड़काती पल-भर ! शिल्पी ने तन के पक्ष को विपक्ष के रूप में देख, दूसरे पक्ष चेतन को सचेत किया, यह कह कर
"तन, मन, वचन ये बार-बार बहु बार मिले हैं,
और प्राप्त स्थिति पूरी कर तरलदार हो पिघले हैं, मोह-मूढ़तावश इन्हें हम गले लगायें परन्तु खेद है, पुरुष के साथ रह कर भी
पुरुष का साथ नहीं देते थे। प्रकृति ने पुरुष को आज तक कुछ भी नहीं दिया यदि दिया भी है तो रस-भाग नहीं, खोखा दिया है कोरा धोखा दिया है।
धोखा दिया : धोखा ही सही यूँ बार-बार कह, उसे भी पुरुष ने आँखों के जल से धो, खा दिया और आज भी
122 :: मूक मारी
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पामर पुरुष मौका देख रहा है
कुछ अपूर्व पाने का प्रकृति से !" चेतन अब शिल्पी को अपना आशव बताता है :
"वेतन वाले वतन की ओर कम ध्यान दे पाते हैं
और चेतन वाले तन की ओर कव ध्यान दे पाते हैं ? इसीलिए तो राजा का मरण वह रण में हुआ करता है। प्रजा का रक्षण करते हुए, और महाराज का मरण वह धन में हुआ करता है ... . ध्वजा का रक्षण करते हुए जिस ध्वजा की छाँव में सारी धरती जीवित है सानन्द सुखमय श्वास स्वीकारती हुई !"
प्रकृति की आकृति में तुरन्त ही विकृति उदित हो आई सुन कर अपनी कद आलोचना और लोहिता क्षुभिता हो आई उसकी लोहमयी लोचनी ।
मूक माटी :: 123
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प्रखर किरणावली फूटतीं जिनसे जिस आलोक से उसका ललाट-तल आलोकित हुआ, जिस पर कुछ पंक्तियाँ लिखित हैं :
"प्रकृति नहीं, पाप-पुंज पुरुष है, प्रकृति की संस्कृति-परम्परा पर से पराभूत नहीं हुई, अपितु
अपनेपन में तत्परा है।" पुरुष को पुरुषार्थ के रूप में कुछ उपदेश और ! "अपने से विपरीत पनों का पूर पर को कदापि मत पकड़ी सहा-सहा परवा लस, ह. पुरुष !: ....... ... ... ... . ...
किसीविध मन में मत पाप रखो, पर, खो उसे पल-भर परखो पाप को भी फिर जो भी निर्णीत हो,
हो अपना, लो, अपनालो उसे ! फिर सूक्ष्माति-सूक्ष्म दोष की पकड़, ज्ञान का पदार्थ की ओर दुलक जाना ही परम-आर्त पीड़ा है,
और ज्ञान में पदार्थों का झलक आना ही - परमार्थ क्रीड़ा है
124 :: मूक माटी
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:
एक दीनता के भेष में है हार से लज्जित है, एक स्वाधीनता के देश में है सार से सज्जित हैं।
पुरुप की पिटाई प्रकृति ने की, ..... प्रकारान्नर से चेन ...... : ::
उसकी चपेट में आया। गुणी के ऊपर चोट करने पर। गुणों पर प्रभाव पड़ना ही है
"आघात मूल पर हो द्रुम सूख जाता है, दो मूल में सलिल'"तो. पूरण फूलता है।' सो ! शिल्पी का चेतन सचेत हो
स्व-पर कर्तव्य पर प्रकाश डालता-सा ! पुरुष का प्रकृति पर नहीं, चेतन पर चेतन का करण पर नहीं, अन्तःकरण-मन पर मन का तन पर नहीं, करण-गण पर
और करण-गण का पर पर नहीं, तन पर नियन्त्रण-शासन हो सदा। किन्तु तन शासित ही हो किसी का भी वह शासक-नियन्ता न हो, भाग्य होने से ।
भूक माटी :: 125
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और सर्वे-सर्वा शासक हो पुरुष गुणों का समूह गुणी, संवेदक भोक्ता होने से !
वेतन की क्रियावती शक्ति जो बिना वेतनमाली है सक्रिय होती है चेतन की इस स्थिति को अनुमति प्रेषित करती शिल्पी के अधरों पर
स्मिति उभर आती है। उपयोग का अन्तरंग ही रंगीन ढंग बो योगों में रंग लाता है शिल्पी के अंग-अंग चालक से चातित यन्त्र-सम संचालित होते हैं
और सर्व-प्रथम शिल्पी का दाहिना चरण मंगलाचरण करता है शनैः शनैः ऊपर उटता हुआ फिर माटी के माथे पर उतरता है। चन्द्रमा की चाँदनी को तरसती चतुरी चकबी सम, शिल्पन-चरण का स्वागत करती माटी अपना माया ऊपर उटाती हुई।
उपरिन नीचे की ओर निचली ऊपर की ओर
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झट-पट झट-पट
उलटी-पलटी जाती माटी ! शिल्पी के पदों ने अनुभव किया असंभव को संभव किया-सम लगा, लगा यह मृदुता का परस पार पर परख रहा है परम-पुरुष को कहीं जो परस की पकड़ से परे हैं
यहाँ पर मखमल मार्दव का मान
भिटा-साः लाय... ... . . .. .. :: .. ::: आम्न-मंजुल-मंजरी कोमलतम कोंपलों की पसृणता भूल चुकी अपनी अस्मिता यहाँ पर, अपने उपहास को सहन नहीं करती लज्जा की बूंघट में छुपी जा रही है,
और कुछ-कुछ कोपवती हो आई है, अन्यथा उसकी बाहरी-पतली त्वचा
हलकी रक्तरंजिता लाल क्यों है ? मोम की मां भाटी की मृदुता चुप रह न सकी गुप रहस रह न सका बोल पड़ी वह"चाहो, सुनो, सुनाती हूँ कुछ सुनने-सुनाने की बातें :
मूक माटी :: 127
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....
उस स
. . . .: ..:.:::. :: .. किस तरह
अतिशय बता दूँ परिचय-पता दूँ तुम्हें !
जिन आँखों में काजल-काली करुणाई वह छलक आई है, कुछ सिखा रही हैचेतन की तुम पहचान करो"! जिन अधरों में प्रांजल लाली अरुणाई वह झलक आई है, कुछ दिला रही है.. समता का नित अनुपान करो, जिन गालों में मांसल बाली तरुणाई वह ढुलक आई है, कुछ बता रही हैसमुचित बल का
बलिदान करो! जिन बालों में अलि-गुण हरिणी कुटिलाई यह भणक आई है कुछ सुना रहीं है
128 :: मूक माटी
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: :: :: .
...
काया का मत सम्मान करो!
जिन चरणों में ...: मटर आली : ::
चरणाई वह पुलक आई है गुनगुना रही हैपूरा चल कर विश्राम करो।
और सुनो ! ओर-छोर कहाँ उस सत्ता की ? तीर-तट कहाँ गुरुमन्ता का ? जो कुछ है प्रस्तुत है अपार राशि की एक कणिका बिन्दु की जलांजलि सिन्धु को बह भी सिन्धु में रह कर ही।" यूँ कहती-कहती मुदिता माटी की मृदुता मौन का घूघट मुख पर लेती :
'पूरा चल कर विश्राम करो !' इस पंक्ति ने शिल्पी के चेतन को सचेत किया
और मन को मथ डाला पूरी स्फूति आई तन में जो शिधिल-श्लच हो आया था।
पूक पाटी :: 129
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रौंदन-क्रिया और गति पकड़ती है माटी की गहराई में डूबते हैं शिल्पी के पद आजानु ! पुरुष की पुष्ट पिटरियों से लिपटती हुई प्रकृति, माटी सुगन्ध की प्यासी बनी
चन्दन तरु-लिपटी नागिन-सी" लिपटन की इस क्रिया से महासत्ता माटी की बाहओं से फूट रहा है वीर रस और पूछ रहा हैं शिल्पी से वह
कि
"क्यों स्मरण किया गया है इसे क्यों बाहर बुलाया गया है ? वीरों से स्तुत है यह वीर रस प्रस्तुत है, सदियों से वीर्य प्रदान किया हैं, 'युग को इसने !
लो ! पी लो प्याला भर-भर कर विजय की कामना पूर्ण हो तुम्हारी युग-वीर बनो ! महावीर बनो !
अक्षत-वीर्य बनो तुम !" अब शिल्पी का वीर्य वीलता है
'वीर रस से, कि "तुम नशे में बोल रहे हो ! इस विषय में हमारा विश्वास दृढ़तर बन चुका है,
कि
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वीर रस से तीर का मिलना कभी संभव नहीं हैं
और वीर रस से पीर का मिटना त्रिकाल असंभव !
आग का योग पाता है शीतल जल भी वह शनैः शनैः । जलता-जलता,
उबलता भले ही किन्तु सुनो ! धधकती जान को भी नियात्रता : : : :: .. .: बुझा सकता है उसे।
परन्तु, धीर-रस के सेवन करने से तुरन्त मानव-खून खुब उबलने लगता है काबू में आता नहीं वह दूसरों को शान्त करना तो दूर, शान्त माहौल भी खौलने लगता है ज्वालामुखी-सम।
और इसके सेवन से उद्रेक-उद्दण्डता का अतिरेक जीवन में उदित होता है, पर पर अधिकार चलाने की भूख इसी का परिणाम है। ववूल की हँट की भाँति मान का मूल कड़ा होता है
मूक माही :: 11
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और खड़ा होता है पर को नकारता पर के मूल्य को अपने पदों दबाता है, मान को धक्का लगते ही भीर रस पिता
:: .. ... ....:: आपा भूल कर आग बबूता हो
पुराण-पुरुषों की परम्परा को ठुकराता है। मनु की नीति मानव को मिली थी क्या उसका विस्मरण हुआ या मरण ? पहला पद बही होमान का मनन जो, अगला पद सही हो मान का हनन हो, वह भी आमूल ! भूल न हो !"
वीर रस की अनुपयोगिता
और
उसके अनादर को देख कर माटी की महासत्ता के अधरों से फूटता-फिसलता हुआ हास्य-रस ने एक ठहाका मारा
शिल्पी की ओर : “वीर रस का अपना इतिहास है वीरों को उसका अहसास है, पर उसके उपहास का साहस मत करो तुम ! जो वीर नहीं हैं, अवीर हैं उन पर क्या, उनकी तस्वीर पर भी अबीर छिटकाया नहीं जाता ! हाँ, यह बात निराली है जाते समय अर्थी पर सुला कर भले ही छिटकाया जाता हो"
132 :: मूक माटी
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.. .. :
उनके इतिहास पर न रोना बनता है, न हंसना !" यूँ कहते-कहते हास्य रस ने एक कहावत कह डाली कहकहाहट के साथ'आधा भोजन कीजिये
दुगुणा पानी पीव। तिगुणा श्रम चटगुणी हँसी वर्ष सवा सौ जीव !'
प्रसन्नता आसन्न भव्य की आली है प्रसन्नता एक आश्रय, दिव्य डाली है
जिस पर गुणों के पदों फलों के लतः .. .
सदा-सदा दोलायित होते हैं। "ओरे हँसिया ! हँस-हँस कर बहस मत कर हास्य रस की कीमत इतनी मत कर ! तेरे अभिमत पर हम सम्मत नहीं हैं, हँसी की बात हम स्वीकार नहीं सकते सत्य-तथ्य की भाँति किसी कीमत पर !"
शिल्पी ने यूँ फिर से कहा"खेद-भाव के विनाश हेतु हास्य का राग आवश्यक भले ही हो किन्तु वेद-भाव के विकास हेतु हास्य का त्याग अनिवार्य हैं
हास्य भी कषाय है ना ! हँसन-शीलवाला प्रायः उतावला होता है। कार्याकार्य का विवेक
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गम्भीरता धीरता कहाँ उसमें ? बालक-सम बावला होता है वह
तभी तो! स्थित-प्रज्ञ हँसते कहाँ ? मोह-माया के जाल में आत्म-विज्ञ फंसते कहाँ ?"
अपनी दाल नहीं गलती, लख कर अपनी चाल नहीं चलती, परख कर हास्य ने अपनी करवट बदल ली।
और साथी का स्मरण किया, जो महासत्ता माटी के भीतर, बहुत दूर सततरसातल उपलत.. ... ... . . . . . .:..:. :: :: .. .. .. ... ...... कराल-काला रौद्र रस जग जाता है ज्वलनशीलवाला हृदय-शुन्ध अदय-मूल्यवाला,
घटित घटना विदित हई उसे चित्त शुभित हुआ उसका पित्त कुपित हुआ उसका भृकुटियाँ टेढ़ी-सी तन गई आँख की पुतलियाँ तो
लाल-लाल तेजाबी बन गईं। देखते-देखते गुब्बारा-सी फड़फड़ाती लम्बी नासा फूलती गई उसकी।
अगर बाती को अगरबाती का योग नहीं मिलता'"तो.
134 :: मृक पाटी
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::
वात दूसरी थी अधूरी थी, मगर बात पूरी हुई, भीतर बराबर बारूद भरा हुआ था ही फिर क्या पूछना ! नाक में से बाहर की ओर संघन धूम-मिश्रित कोषको ला ... :: लपलपाती लाली बहने लगी अब वह नाक खतरनाक लगने लगी। इसी से लगता है, कि कोप की कोषिका नाक ही है 'नाक में दम कर रखा है।
सबका मना भी सन्देह नहीं इसमें। 'सतो गुण के सत्त्व की इति का यहाँ अवभासन हुआ राजसी - तामसी की अति का यहाँ अब भाषण हुआ'
"अधिक परिचय मत दो-" निर्भीक हो शिल्पी ने कहा रौद्र से
सोम की सौम्य मुद्रा में : "रुद्रता विकृति है विकार समिट-शीला होती है, भद्रता प्रकृति का है प्रकार अमिट-लीला होती है।
और सुनो ! यह सूक्ति सुनी नहीं क्या ? 'आमद कम खर्चा ज्यादा लक्षण है मिट जाने का कूबत कम गस्सा ज्यादा लक्षण है पिट जाने का'
मृक पाटो :: 135
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बस, इसी बीच कुछ उलटी स्थिति उभरती है शिल्पी की मति बिगड़ती हैं
भीतर से बाहर, बाहर से भीतर एक साथ, सात-सात हाथ के सात-सात हाथी आ-जा सकते इतना बड़ा गुफा-सम महासत्ता का महाभयानक मुख खुला है जिसकी दाद-जबाड़ में सिंदूरी आँखोंवाला बाहर बार-बार घूर रहा है भय जिसके मुख से अध-निकली लोहित रसना लटक रही है
और ... ... ... ..बिस य ही है लार
लाल-लाल लहू की बूंदें-सी अगम-अतल पाताल-सम
___“उस मुख में दृष्टि फिसलती-फिसलती लुप्त हुई मेरी पद फिसलते-फिसलते टिक गये
"तीर पर मेरे और प्राण निकलते-निकलते रुक गये
पीर पर मेरे। आँखों में चक्कर आ गया उसने मुझे देखा "कुछ धुंधला-सा दिखा मुझे भी वह भय ! हाँ भय !! महाभय !!!
.....
16 :: मूक माटी
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...
यूँ ! चिरर् चिर चिल्लाती बचाओ बचाओ बचाओ ! इसकी रक्षा करो, क्या नहीं ? बताओ स्वामिन् !" और शिल्पी की छाती से चिपकती भीति से कैंपती हुई शिल्पी की मति। तुरन्त, मति के सिर पर फिरता है अभय का हाथ शिल्पी का
ब्रम इनाना पर्याप्त .................. हलकी-सी चेतना आती है मति की पलकों में
और हलकी-सी चपलता आती है ललाट-तल पर पड़ी मति की अलकों में।
एक ओर अभय खड़ा है एक ओर भय अड़ा है
और बीच में भयाभयवाली उभयवती
"खड़ी हैं मति देखो किस ओर झुकती सो भय की चंगुल में जा फँसती है या" अभय के मंगल में आ बसती है। कुछ ही क्षण व्यतीत हुए कि अभया बनती है मत्ति
मूक माटी :: 187
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पुरुष का प्रभाव पड़ा इस पर
"प्रभूत । प्रकृति का प्रभाव आप दब गया
अभूत।
लो ! रण को पीठ दिखा रहा है वीर को अवीर के रूप में रौद्र को रुग्ण-पीड़ित के रूप में
और
भय को भयभीत के रूप में
पाया । इस अद्भुत घटना से । विस्मय को बहुत विस्मय हो आया। उसके विशाल भाल में ऊपर की ओर उटती हुई लहरदार विस्मय की रेखाएँ उभरी, कुछ पलों तक विस्मय की पलकें अपलक रह गई! उसकी वाणी मूक हो आई
और
भूख मन्द हो आई। विस्मय की यह स्थिति देख कर श्रृंगार-मुख का पानी भी लगभग सूखने को है
और विषय-रसिकों की सरस कथा मयूख अन्ध हो आई !
[38 :: मुक माटी
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अन्धो दियों करे
प्रकाश की गन्ध कब मिलेगी भगवन् यूँ दीर्घ श्वास लेता शिल्पी ।
फिर सम्बोधन के उभरते स्वर
"जो अरस का रसिक रहा है उसे रस में से रस आये कहाँ ?
जो अपरस का परस करता है परस का परस क्या वह चाहेगा ? और
सुरभि दुरभि से जो दूर रहा है उसकी नासा वह
किस सौरभ की उपासना करेगी ?
दूसरी बात यह है कि तन मिलता है तन-धारी को
सुरूप या कुरूप, सुरूप वाला रूप में और निखार कुरुप वाला रूप में सुधार लाने का प्रयास करता है आभरण- आभूषणों श्रृंगारों से । परन्तु
जिसे रूप की प्यास नहीं है, अरूप की आस लगी हो
उसे क्या प्रयोजन जड़ शृंगारों से !
रस- रसायन की यह
ललक और चखन
पर - परायन की यह
परख और लखन
कब से चल रही है
यह उपासना वासना की ?
>
मूक माटी : 139
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यह चेतना मेरी जाया चाहती है, दर्श में बदलाहट, काम नहीं अब,
"राम मिले ! कितनी तपन है यह । . .. ..... ... .:. : ... ..... : वाहर और भीतर ज्वालामुखी हवाएँ ये ! जल-सी गई मेरी काया चाहती है स्पर्श में बदलाहट. घाम नहीं अब,
'धाम मिले ! इन दिनों भीतरी आयाम भी बहुत कुछ आगे बढ़ा है,
मनोज का ओज वह कम तो हुआ है तत्त्व का मनन-मथन वहुत हुआ, चल भी रहा है। अब मन थकता-सा लगता है तन रुकता-सा लगता है अब झाग नहीं, ""पाग मिले ! मानता हूँ, इस कलिका में सम्भावनाएँ अगणित हैं किन्तु, यह कलिका कली के रूप में कब तक रहेगी ?
14ft :: मुक मारी
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इसकी भीतरी संधि से सुगन्धि कब फूटेगी वह ? उत्त घर के दशा में बाधक है यह गूंघट अब ! राग नहीं,
पराग मिले :* लो, और मिलता है शृंगार को शिल्पी से सम्बोधन रूप धन"है भंगार ! स्वीकार करो या मत करो यह तथ्य है कि, प्रति प्राणी सुख का प्यासा है परन्त, रागी का लक्ष्य-बिन्दु अर्थ रहा है और त्यागी-विरागी का परमार्थ । यह सूक्ष्म अभेद्य भेद-रेखा बाहरी आदान-प्रदान पर आधारित नहीं है, भीतरी घटना है स्वाश्रित अपने उपादान की देन !
सही अलंकार, सही शृंगार
भीतर झाँको, आँको उसे हे शृंगार !" शृंगार की कोमलता को पूछता यह : "किसलय ये किसलिए किस लय में गीत गाते हैं : किस वलय में से आ किस वलय में क्रीत जाते हैं ?
और अन्त-अन्त में श्वास इनके
मूक माटी :: HI
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किस लय में रीत जाते हैं। किसलय ये किसलिए किस लय में गीत गाते हैं...?"
अर्थ और परमार्थ की सूक्ष्मता कुछ और उजाले में लाई जाती है :
"अन्तिम भाग, बाल का भार भी जिस तुला में तुलता है वह कोयले की तुला नहीं साधारण-सी, सोने की तुला कहलाती है असाधारण ! सोना तो तुलता है सो"अतुलनीय नहीं है और तुले कमो लिमही
: . सो अतुलनीय रही है
और परमार्थ तुलता नहीं कभी
"अर्थ की तुला में अर्थ को तुला बनाना अर्थशास्त्र का अर्थ ही नहीं जानना है
और सभी अनर्थों के गर्त में युग को ढकेलना है।
अर्थशास्त्री को यह अर्थ क्या ज्ञात है ?" इस प्रसंग में 'स्वर' का स्मरण तक नहीं हो सका यूं दबे-मुख से निकले श्रृंगार के कुछ स्वर ! स्वर को भास्वर ईश्वर की उपमा मिली है। "ईश्वर ने भी स्वर को अपनाया
142 :: मूक मार्टी
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स्वर के बिना स्वागत किसविध सम्भव है.... शाश्वत भास्वत सुख का !
स्वर संगीत का प्राण है संगीत सुख की रीढ़ हैं और सुख पाना ही सबका ध्येय इस विषय में सन्देह को गेह कहाँ ? निःसन्देह कह सकते हैंविदेह बनना हो तो स्वर की देह को स्वीकारता देनी होगी
हे देहिन ! हे शिल्पिन् !" इस पर साफ़-साफ़ कहता है शिल्पी का साफ़-सुथरा साफा
जो खादी का हैपुरुष और प्रकृति के संघर्ष से खर-नश्वर प्रकृति से उभरते हैं स्वर ! पर, परम पुरुष से नहीं।
दुःस्वर हो या सुस्वर
सारे स्वर नश्वर हैं। भले ही अविनश्वर हों ईश्वर परमेश्वर ये परन्तु, उनके स्वर तो नश्वर ही हैं !
श्रवण-सुख सो. स्वर में निहित क्यों न हो, कुछ सीमा तक-प्राथमिक दशा में अविनश्वर सुख का बाह्य साधन स्वर रहा हो
मूक माटी : 143
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तथापि, स्वर न ही ध्येय हैं, न उपादेय स्वर न ही अमेय है, न सुधा पेय साधक यह जान ले भली-भाँति !"
चिन्तन की मुद्रा में डूबता है शिल्पी"ओ श्रवणा! कितनी बार श्रवण किया स्वर का
ओ मनोरमा ! कितनी बार स्मरण किया स्वर का कब से चल रहा है संगीत - गीत यह ? कितना काल अतीत में व्यतीत हुआ, पता हो, बता दो'''! भीतरी भाग भीगे नहीं अभी तक दोनों बहरे अंग रहे कहाँ हुए हरे भरे? हे नीराग हरे ! अब बोल नहीं, माहौल मिले !
संगीत को सुख की रीढ़ कह कर स्वयं की प्रशंसा मत करो सही संगीत की हिंसा मत करो
रे शृंगार ! संगीत उसे मैं मानता हूँ जो संगातीत होता है और प्रीति उसे मैं मानता हूँ
II :: मूक पाटो
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जो अंगातीत होती है मेरा संगी संगीत है सप्त-स्वरों से अतीत ''!
श्रृंगार के अंग-अंग ये खंग-उतार शीलवाले हैं युग छलता जा रहा है और श्रृंगार के रंग-रंग ये अंगार-शीलवाले हैं, युग जलता जा रहा है, इस अपाय का निवारक उपाय
"मिला इसे आज . ............... अपूर्व पेय के रुप में ! तन का खेद टल कर चूर होता है पल में मन का भेद धुल कर दूर होता है पल में इसका पान करने से।
मेरा संगी संगीत है
समरस नारंगी-शीत है। किसी वय में बँध करके रह सकूँ ! रहा नहीं जाता है
और किसी लय में सध करके कह सकूँ ! कहा नहीं जाता है।
मेरा संगी संगीत हैं मुक्त नंगी रीत है।
मूक माटी :: 145
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अगर सागर की ओर दृष्टि जाती हैं, गुरु-गारव-सा कल्प-काल वाला लगता है सागर; अगर लहर की ओर कि जाती है. . : . . . . . . . . . . .:. अत्प-काल बाला लगता है सागर।। एक ही वस्तु अनेक भंगों में भंगायित है अनेक रंगों में रंगायित है, तरंगायित !
मेरा संगी संगीत है
सप्त-भंगी रीत है। सुख के बिन्दु से ऊब गया था यह दुःख के सिन्धु में डूब गया था यह, कभी हार से सम्मान हुआ इसका, कभी हार से अपमान हुआ इसका। कहीं कुछ मिलने का लोभ मिला इसे, कहीं कुछ मिटने का क्षोभ मिला इसे, कहीं सगा मिला, कहीं दगा, भटकता रहा अभागा यह ! परन्तु आज, यह सब वैषम्य मिट-से गये हैं जब से"मिला"यह
146 :: मूक माटी
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मेरा संगी संगीत है स्वस्थ जंगी जीत है।"
स्वर की नश्वरता और सारहीनता सुन कर शृंगार के बहाव में बहने वाली नासा बहने लगी प्रकृति की। कुछ गाढ़ा, कुछ पतला कुछ हरा, पीला मिलामल निकला, देखते ही हो घृणा !
जिस पर मक्षिकाएँ
जो राग की जानकाएँ हैं . .. .. ... ... ... लिपा की रसिकाएँ हैं ..
भिनभिनाने लगीं सो" ऐसा लगता है कि बीभत्स रस ने भी शृंगार को नकारा है चुना नहीं उसे ! अन्यथा सबकी नासिका से अनुनासिक
नकारात्मक ही वर्ण क्यों निकलता है ? उपरिल-अधर पर चिपकता हुआ निचले अधर पर भी उतरता आया
वह मल ! और शृंगार की रसना ने उसका स्वाद लिया
"बड़ी ही चाव से
मूक माटी :: 147
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जिसे देख कर शृंगार की अज्ञता पर सब रसों की मूल-निका स्रोतस्विनी प्रकृति माँ कुपित हो आई
शृंगार के गालों पर दो-चार चाटें दिये, बाल-लाल के माल ये
प्रवाल-सम लाल हो आयें। सुत को प्रसूत कर विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करने मात्र से माँ का सतीत्व वह विश्रुत - सार्थक नहीं होता प्रत्युत, सुत-सन्तान की सुसुप्त शक्ति को सचेत और शत-प्रतिशत सशक्तसाकार करना होता है, सत-संस्कारों से।
सन्तों से यही श्रुति सुनी है। सन्तान की अवनति में निग्रह का हाथ उठता है माँ का
और
सन्तान की उन्नति में अनुग्रह का माथ उठता है माँ का और यहीं हुआप्रकृति मां की आँखों में रोती हुई करुणा,
बिन्दु-बिन्दु करके दृग-बिन्दु के रूप में
148 :: मूक माटी
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करुणा कह रही है
कण-कण से कुछ : ''परस्पर कलह हुआ तुम लोगों में बहुत हुआ, वह गलत हुआ।
मिटाने-मिटने को क्यों तुले हो इतने सयाने हो ! जुटे हो प्रलय कराने
विष से धुले हो तुम ! इस घटना से बुरी तरह माँ घायल हो चुकी है
जीवन को मत रण बनाओ
प्रकृति माँ का व्रण सुखाओ ! सदय बनो । अदव पर दया करो .... ......... अभय बनो। सभय पर किया करो अभय की अमृत-मय वृष्टि सदा सदा सदाशय दृष्टि । रे जिया, समष्टि जिया करो !
जीवन को मत रण बनाओ
प्रकृति माँ का ऋण चुकाओ ! अपना ही न अंकन हो पर का भी मूल्यांकन हो, पर, इस बात पर भी ध्यान रहे पर की कभी न वांछन हो पर पर कभी न लांछन हो ।
जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का न मन दुखाओ !
मृक माटी :- 149
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जीवन-जगत् क्या? आशय समझो, आशा जीतो !" आशा ही को पाशा समझो!"
फिर, गम्भीर हो कुछ और कहती माँ
करुणा
"मेरे रोने से यदि
तुम्हारा मुख खिलता हो सुख मिलता हो तुम्हें लो ! मैं रो रही हूँ और रो सकती हूँ
और
मेरे होने से यदि
तुम्हारा दिल धुक् - धुक् करता हो हिलता हो, घबराहट से दुखता हो लो इस होने को खोना चाहूँगी चिरकाल तक सोना चाहूँगी, प्रार्थना करती हूँ प्रभु से, कि शीघ्रातिशीघ्र
150 सूक पाटी
मेरा होना मिट जाय
मेरा अस्तित्त्व अशेष रूप से शून्य में मिल जाय, बस !"
इस पर प्रभु फर्माति हैं कि
होने का मिटना सम्भव नहीं है, बेटा ! होना ही संघर्ष - समर का मीत हैं होना ही हर्ष का अमर गीत है।
मैं क्षमा चाहती हूँ तुमसे तुम्हारी कामना पूरी नहीं हो सकी हे भोक्ता - पुरुष !
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इससे इस लेखनी का गला भी
भर आता है, माँ का समर्थन करता हुआ -
"कभी किसी दशा पर इसकी आँखों में,
करुणाई छलक आती
और
कभी किसी दशा पर इसकी आँखों में
अरुणाई झलक आती है क्या करूँ ?
विश्व की विचित्रता पर रोऊँ "क्या ""हँसूँ"?
बिलखती इस लेखनी को विश्व लखता तो है
इसे भरसक परखता भी है
ईश्वर पर विश्वास भी रखता है
और
परन्तु,
उस पावन पथ पर
ईश्वर का इस पर गहरा असर भी हैं
पर इतनी ही कसर है कि
वह असर सर तक ही रहा है, अन्यथा
सर के बल पर क्यों चल रहा है,
आज का मानव ? इसके चरण अचल हो चुके हैं माँ ! आदिम ब्रह्मा आदिम तीर्थंकर आदिनाथ से प्रदर्शित पथ का आज अभाव नहीं है माँ !
मूकमाटी 151
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दूव उग आई है खूब ! वर्षा के कारण नहीं,
कर कंवल कथनी में करुणा रस घोल धर्मामृत-वर्षा करने वालों की भीड़ के कारण !
आज पथ दिखाने वालों को पथ दिख नहीं रहा है, माँ ! कारण विदित ही हैजिसे पथ दिखाया जा रहा है. वह स्वयं पथ पर चलना चाहता नहीं, औरों को चलाना चाहता है और
इन चालाक चालकों की संख्या अनगिन है। क्या करूँ ? जो कुछ घट रहा है लिखती हूँ"उसे उसका रस चखती हूँ फिर "बिलखती हूँ लिखती हूँ"! लेखनी जो रहीं।"
शिल्पी को स्तब्ध देख कर क्या करुणा की पालड़ी भी हलकी पड़ी ? इतनी बाल की खाल लो मत निकालोकहती-कहती करुणा रो पड़ी !
152 :: मूक पाटो
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इस पर शिल्पी कहता हैं : "सना करुणा का स्वभाव नहीं है, बिना रोये करुणा का प्रयोग भी सम्भव नहीं। करुणा का होना और करुणा का करना इन दोनों में अन्तर है, तथापि
इतनी अति अच्छी नहीं लगती ! इस बात को मानता हूँ,
कि बिना खाद-डली खेत की अपेक्षा खाद-इली खेत की वह फसल लहलहाती है, परन्तु खाद में बीज बोने पर तो फसल जलती - देहदहाती है। हाँ, हाँ !! अनुपात से खाद-जल दे दिया खेत को बीज बिखेर दिये खेत में फिर भी बीज के अंकरित नहीं होते माटी का हाथ उन पर नहीं होने से। इतना ही नहीं, जिन बीजों पर माटी का भार-दयाव बहुत पड़ा हो वे भी अंकरित हो नहीं आ सकते भू-पर दम घुट जाता है उनका, भीतर ही भीतर।
मूक पाटी :: [53
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करुणा हेय नहीं है. करुणा की अपनी उपादेयता हैं अपनी सीमा फिर भी,
करुणा की सही स्थिति समझना है। करुणा करने वाला अहं का पोषक भले ही न बने, परन्तु स्वयं को गुरु-शिष्य अवश्य समझता है
और जिस पर करुणा की जा रही है वह स्वयं को शिशु-शिष्य अवश्य समझता है। दोनों का मन द्रवीभूत होता है शिष्य शरण लेकर गुरु शरण देकर कुछ अपूर्व अनुभव करते हैं पर इसे सही सख नहीं कह सकते हम। दुःख मिटने का
और
सुख मिलने का द्वार खुला अवश्य, फिर भी ये दोनों दुःख को मूल जाते हैं इस घड़ी में !
करुणा करने वाला अधोगामी तो नहीं होता, किन्तु अधोमुखी यानी
154:: मूक माटी
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बहिर्मुखी अवश्य होता है।
और जिस पर करुणा की जा रही है, वह अधोमुखी"तो नहीं, ऊर्ध्वमुखी अवश्य होता है। तथापि,
ऊर्ध्वगामी होने का कोई नियम नहीं है। करुणा की दो स्थितियाँ होती हैं- . एक विषय लोलुपिनी दूसरी विषय-लोपिनी, दिशा-बोधिनी। पहली की चर्चा यहाँ नहीं है चर्चा-अचां दूसरी की है ! 'इस करुणा का स्वाद किन शब्दों में कहूँ ! .. . गर यकीन हो नमकीन आँसओं का स्वाद है वह !'
इसीलिए करुणा रस में शान्त-रस का अन्तर्भाव मानना
बड़ी भूल है। उछलती हुई उपयोग की परिणति वह
नहर की भाँति !
और
उजली-सी उपयोग की परिणति वह शान्त रस है नदी की भाँति : नहर खेत में जाती है
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दाह को मिटा कर सूख पाती है, और नदी सागर को जाती है राह को मिटा कर सुख पाती है।
इस विषय को और उघाड़ना चाहूँगा
धूल में पड़ते ही जल वह दल-दल में बदल जाता है
हिम की डली चो धूली में पड़ी भी हो बदलाहट सम्भव नहीं उसमें ग्रहण-भाव का अभाव है उसमें।
और जल को अनल का योग मिलते ही उसकी शीतलता मिटती है
और वह जलता है, औरों को जलाता भी ! परन्तु, हिम की डली को अनल पर रखने पर भी उसकी शीतलता मिटती नहीं है और वह जलती नहीं, न जलाती औरों को।
लगभग यही स्थिति है
करुणा और शान्त-रस की। करुणा तरल है, बहती है पर से प्रभावित होती झट-सी।
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शान्त-रस किसी बहाव में बहता नहीं कभी जमाना पलटने पर भी जमा रहता अपने स्थान पर । इससे यह भी ध्वनि निकलती है कि करुणा में वात्सल्य का मिश्रण सम्भव नहीं है
और वात्सल्य को हम पोल नहीं कह सकते न ही कपोल-कल्पित।
महासत्ता माँ के . .. . :: .::ो -गोन पर ...
पुलकित होता है यह वात्सल्य । करुणा-सम वात्सल्य भी द्वैत-भोजी तो होता है पर, ममता-समेत मौजी होता है, इसमें बाहरी आदान-प्रदान की प्रमुखता रहती है, भीतरी उपादान गौण होता है यही कारण है, इसमें
अद्वैत मौन होता है। सह-धर्मी सम आचार-विचारों पर ही इसका प्रयोग होता है इसकी अभिव्यक्ति मृदु मुस्कान के बिना सम्भव ही नहीं है। वात्सल्य रस के आस्वादन में
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हलकी-सी मधुरता फिर क्षण-भंगुरता झलकती है
ओस के कणों से । न ही प्यास बुझती, न आस बझता बस श्वास का दीया वह ! फिर तुम ही बताओ; . वात्सल्य में शान्त-रस का
अन्तर्भाव कैसा ? मों की गोद में बालक हो माँ उसे दूध पिला रही हो बालक दूध पीता हुआ ऊपर माँ की ओर निहारता अवश्य, अधरों पर, नयनों में और कपोल-बुगल पर। क्रिया-प्रतिक्रिया की परिस्थिति प्रतिफलन किस रूप में हैपरीक्षण चलता रहता है यदि करुणा या कठोरता नयनों में झलकेगी कुछ गम्भीर हो रुदनता की ओर मुड़ेगा वह, अधरों की मन्द मुस्कान से । यदि कपोल चंचल स्पन्दित होते हों ठसका लेगा वह ! यही एक कारण है, कि प्रायः माँ दूध पिलाते समयअपने अंचल में बालक के मुख को छिपा लेती है।
15 :: मूक माटो
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यानी, शान्त रस का संवेदन वह सानन्द- एकान्त में ही ही और तब
एकाकी हो संवेदी वह" !
औसे रहित सरवर के अन्तरंग से
अपने रंगहीन या रंगीन अंग का संगम होना ही संगत है
शान्त - रस का यही संग है "यही अंग !
।
करुणा-रस जीवन का प्राण है घमघम समीर-धर्मी है वात्सल्य जीवन का त्राण है धवलिम नीर-धर्मी है किन्तु, यह
द्वैत - जगत् की बात हुई, शान्त रस जीवन का गान है मधुरिम क्षीर-धर्मी है।
करुणा रस उसे माना है, जो कठिनतम पाषाण को भी मोम बना देता है, वात्सल्य का वह बाना है जघनतम नादान को भी
सीम बना देता है।
किन्तु, यह लौकिक चमत्कार की बात हुई । शान्त रस का क्या बताना,
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संयम-रत धीमान् को ही 'ओम्' बना देता है। जहाँ तक शान्त-रस की बात है वह आत्मसात् करने की ही है कम शब्दों में निषेध-मुख से कहूँ सब रसों का अन्त होना हीशान्त-रस है। यूँ गुनगुनाता रहता सन्तों का भी अन्तःप्रान्त ब्रह।
रस-राज, रस-पाक शान्त-रस की उपादेयता पर बल देती हुई पूरी होती हैं इधर माटी की रौंदन-क्रिया भी।
और पर्वत-शिखर की भाँति धरती में गड़े लकड़ी की रॉड पर हाथ में दो हाथ की लम्बी लकड़ी ले अपने चक्र को घुमाता है शिल्पी। फिर घूमते चक्र पर लोंदा रखता है माटी का लोंदा भी घूमने लगता हैचक्रवत् तेज-गति से, कि माटी कुछ कहती है शिल्पी को,
10 :: मूक मारी
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'म धात् गति के अर्थ में आती है, सं यानी समीचीन सार यानी सरकना" जो सम्बक सरकता है वह संसार कहलाता है। काल स्वयं चक्र नहीं है संसार-चक्र का चालक होता है वह यही कारण है कि उपचार से काल को चक्र कहते हैं इसी का यह परिणाम है कि चार गतियों, चौरासी लाख योनियों में चक्कर खाती आ रही हूँ। . .. . .. . . . . .लो. साने अन्नान वापर
और रख दी इसे ! कैसा चक्कर आ रहा है घूम रहा है माथा इसका
उतार दो"इसे"तार दो !' फिर से उत्तर के रूप में । माटी को समझाती हुई शिल्पी की मुद्रा :
"चक्र अनेक-विध हुआ करते हैं संसार का चक्र वह है जो राग-रोष आदि वैभाविक अध्यवसान का कारण है; चक्री का चक्र वह है जो भौतिक जीवन के अवसान का कारण हैं, परन्तु
गक पाटी :: 161
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कुलाल-चक्र यह, वह सान है जिस पर जीवन चढ़ कर अनुपम पहलुओं से निखर आता है,
पावन जीवन की अब शान का कारण है। हों ! हाँ ! तुम्हें जो चक्कर आ रहा है उसका कारण कुलाल-चक्र नहीं, वरन् तम्हारी दृष्टि का अपराध है वह । क्योंकि परिधि की ओर देखने से चेतन का पतन होता है और परम केन्द्र की ओर देखने से चेतन का जतन होता है। परिधि में भ्रमण होता है जीवन यूँ ही गुजर जाता है, केन्द्र में रमण होता है जीवन सुखी नज़र आता है।
और सुनो, यह एक साधारण-सी बात है कि चक्करदार पथ ही, आखिर गगन चूमता अगम्य पर्वत-शिखर तक पथिक को पहुँचाता है बाधा-बिन वेशक !"
अब, सहजरूप से सर्व-प्रथम संकल्पित होता है शिल्पी,
12 :: मुक मारी
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उसके उपयोग में
आकृत होता हैं कुम्भ का आकार । प्रासंगिक प्राकृत हुआ, ज्ञान ज्ञेयाकार हुआ, और ध्यान ध्येयाकार :
-
मन का अनुकरण तन भी करता है, कुम्भकार के उभय कर
कुम्भाकार हुए,
प्राथमिक छुवन हुआ माटी के भीतर अपूर्व पुलकन
आत्मीयता का अथ सा लगा।
लो, रह-रह कर
तरह-तरह की माटी की मंजुल छवियाँ उभर उभर कर ऊपर आ रहीं, क्रम-क्रम से तरंग-क्रम से रहस्य की घूँघट में निहित थीं...जो चिर से !
रहस्य की घूँघट का उद्घाटन पुरुषार्थ के हाथ में है रहस्य को सूँघने की कड़ी प्यास उसे ही लगती है जो भोक्ता संवेदनशील होता है, यह काल का कार्य नहीं है,
जिसके निकट पास
करण यानी कर नहीं होता है
वह परं का कुछ न करता, न कराता । जिसके पास
चरण चर नहीं होता है
वह स्वयं न चलता पद भर भी
-
मूक पाटी : 163
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न ही चलाता पर को। काल निष्क्रिय है ना क्रय-विक्रय से परे है वह । अनन्त-काल से काल एक ही स्थान पर आसीन है पर के प्रति उदासीन"! तथापि इस भांति काल का उपस्थित रहना यहाँ पर प्रत्येक कार्य के लिए अनिवार्य है; परस्पर यह
निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध जो रहा ! मान-घमण्ड से अछूती माटी पिण्ड से पिण्ड छुड़ाती हुई कुम्भ के रूप में ढलती है कुम्भाकार धरती है धृति के साथ धरती के ऊपर उठ रही है।
वैसे, निरन्तर सामान्य रूप से वस्तु की यात्रा चलती रहती है अबाधित अपनी गति के साथ, फिर भी विशेष रूप से विकास के क्रम तब उठते हैं जब मति साथ देती है जो मान से विमुख होती है,
और विनाश के क्रम तब जुटते हैं जब रति साथ देती है जो मान में प्रमुख होती है उत्थान-पतन का यही आमख है।
164 :: मूक माटी
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धृत से भरा घट-सा
बड़ी सावधानी से शिल्पी ने चक्र पर से कुम्भ को उतारा, धरती पर !
दो-तीन दिन का अवकाश मिला
सो कुम्भ का गीलापन मिट-सा गया"
सो कुम्भ का ढीलापन सिमट-सा गया।
आज शिल्पी को बड़ी प्रसन्नता है
कुम्भ को उठा लिया है हाथ में । एक हाथ में सोट लिया हैं एक हाथ की कुम्भ को ओट दी है और
कुम्भ की खोट पर चोट की है।
हाथ की ओट की ओर देखने से दया का दर्शन होता है, मात्र चोट की ओर देखने से निर्दयता उफनती - सी लगती है
परन्तु,
चोट खोट पर है ना !
सावधानी बरत रही है;
शिल्पी की आँखें पलकती नहीं हैं तभी "तो"
इसने कुम्भ को सुन्दर रूप दे घोट-घोट किया है
कुम्भ का गला न घोट दिया !
D
मूकमाटी : 16.3
.:".
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________________
कुछ तत्त्वोद्घाटक संख्याओं का अंकन विचित्र चित्रों का चित्रण
और
कविताओं का सृजन हुआ है कुम्भ पर ! ६६ और ६ की संख्याएँ
जो कुम्भ के कर्ण-स्थान पर आभरण-सी लगती अंकित हैं अपने-अपने परिचय दे रही हैं।
यथा : €€x २
६६ x ३
-
.7
166 : मूक माटी
एक क्षार संसार की द्योतक है एक क्षीर-सार की।
एक से मोह का विस्तार मिलता है, एक से मोक्ष का द्वार खुलता है ६६ संख्या को
दो आदि यों में गुणित करने पर भले ही संख्या बढ़ती जाती उत्तरोत्तर,
=
परन्तु लब्ध-संख्या को परस्पर मिलाने से E की संख्या ही शेष रह जाती है
1
१६८, 9 + € + ए = १६, १+८ = ६ २६७, २
१८,१८
- f
३८.६, ३
१८, १
-
ε
ff, xx
इसी भाँति गुणन क्रम
६ की संख्या तक ले जाइए
और
€
-
७ =
=
६ की संख्या को
दो आदि संख्याओं से गुणित करने पर संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती हुई भी
Ι
= €
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परस्पर मिलाने पर ज्यों की त्यों E की संख्या ही शेष रहती है... यथा : t. x २ = १८, १ . ८ .. ६. Ex ३ = २७, २ + ७ = ६ ६ x ४ = ३६, ३ + ६ = . इसी भाँति गुणन-क्रम
की संख्या तक ले जाइए और आएगी, रहेगी, दिखेगी केवल #
यही कारण है कि ८६ वह विघन-माया छलना है, क्षय-स्वभाव वाली है और अनात्म-तत्त्व की उद्योतिनी है; और E की संख्या यह सघन छाया हैं पलना है, जीवन जिसमें पलता है अक्षय-स्वभाव वाली है अजर-अमर अविनाशी आत्म-तत्त्व की उद्बोधिनी है
विस्तरेण अलम् । संसार हF का चक्कर है यह कहावत चरितार्थ होती है इसीलिए भविक मुमुक्षुओं की दृष्टि में ff हेय हो और ध्येय हो E नव-जीवन का स्रोत !
पूक माटी :: 167
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कुम्भ के कण्ठ पर एक संख्या और ऑकत है, वह है ६३ जो पुराण -पुरुषों की समृति दिलाती हैं हमें 1 इसकी यह विशेषता है कि
छह के मुख को तीन देख रहा है
और तीन को सम्मुख दिख रहा छह ! एक-दूसरे के सुख-दुःख में परस्पर भाग लेना सज्जनता की पहचान है, और औरों के सुख को देख, जलना औरों के दुःख को देख, खिलना दुर्जनता का सही लक्षण है। जब आदर्श पुरुषों का विस्मरण होता है
६३ का विलोम परिणमन होता है यानी
३६ का आगमन होता है। तीन और छह इन दोनों की दिशा एक-दूसरे से विपरीत है। विचारों की विकृति ही आचारों की प्रकृति की उलटी करवट दिलाती है। कलह-संघर्ष छिड़ जाता है परस्पर ।
1168 :: मृक माटो
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फिर क्या बताना ! ३६ के आगे एक और तीन की संख्या जुड़ जाती है, कुल मिलाकर तीन सौ त्रेसठ मतों का उद्भव होता है जो परस्पर एक-दूसरे के खून के प्यासे होते हैं जिनका दर्शन सुलभ है आज इस धरती पर ।
कुम्भ पर हुआ वह सिंह और श्वान का चित्रण भी बिना बोले ही सन्देश दे रहा हैदोनों की जीवनचर्या-चाल परस्पर विपरीत है। पीछे से, कभी किसी पर धावा नहीं बोलता सिंह, गरज के बिना गरजता भी नहीं,
और बिना गरजे किसी पर बरसता भी नहींयानी
मायाचार से दूर रहता है सिंह। परन्तु, श्वान सदा पीठ-पीछे से जा काटता है, बिना प्रयोजन जब कभी भौंकता भी हैं।
जीवन-सामग्री हेतु दीनता की उपासना
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कभी नहीं करता सिंह ! जब कि स्वामी के पीछे-पीछे पूँछ हिलाता .भयान फिरता. है एक रोटी के लिए। सिंह के गले में पट्टा बँध नहीं सकता किसी कारण वश बन्धन को प्राप्त हुआ सिंह पिंजड़े में भी बिना पट्टा ही घूमता रहता है, उस समय उसकी पूँछ ऊपर उठी तनी रहती है अपनी स्वतन्त्रता-स्वाभिमान को कभी किसी भाँति आँच आने नहीं देता बह ! और श्वान स्वतन्त्रता का मूल्य नहीं समझता, पराधीनता-दीनता वह श्वान को चुभती नहीं कभी, श्वान के गले में जंजीर भी
आभरण का रूप धारण करती है। एक और विशेष बात है कि श्वान को पत्थर मारने से पत्थर को ही पकड़ कर काटता है मारक को नहीं ! परन्तु सिंह विवेक से काम लेता है सही कारण की ओर'"ही" सदा दृष्टि जाती है सिंह की, मारक के ऊपर मार करता है वह ।
170 :: मूक माटी
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श्वान-सभ्यता-संस्कृति की इसीलिए निन्दा होती है
वह अपनी जाति को देख कर धरती खोदता, गुर्राता है। सिंह अपनी जाति में मिल कर जीता है, राजा की तन्ति ऐसी ही होती है. होना भी चाहिए।
कोई-कोई श्वान पागल भी हुआ करते हैं
और वे जिसे काटते हैं वह भी पागल हो श्वान-सम भौंकता हुआ नियम से कुछ ही दिनों में मरता है, परन्तु कभी भी यह नहीं सुना कि
सिंह पागल हुआ हो। श्वान-जाति का एक और अति निन्द्य कर्म है, कि जब क्षुधा से पीड़ित हो खाद्य नहीं मिलने से मल पर भी मुँह मारता है वह,
और जब मल भी नहीं मिलता "तो. अपनी सन्तान को ही खा जाता है,
किन्तु, सुनो ! भूख, मिटाने हेतु सिंह विष्ठा का सेवन नहीं करता है
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न ही अपने
सद्यःजात शिशु का भक्षण वहीं कुम्भ पर कछुवा और खरगोश का चित्र साधक को साधना की विधि बता सचेत करा रहा है।
कछुवा धीमी अपनी चाल चलता । .गाय के भीतर लय तक जा चुका है,
और खरगोश-धावमान होकर भी बहुत पीछे रह चुका है कारण विदित ही हैएक की गति अविरल थी एक ने पथ में निद्रा ली थी, प्रमाद पथिक का परम शत्रु है।
अब दर्शक को दर्शन होता हैकुम्भ के मुखमण्डल पर 'ही' और 'भी' इन दो अक्षरों का। ये दोनों बीजाक्षर हैं, अपने-अपने दर्शन के प्रतिनिधित्व करते हैं।
'ही' एकान्तवाद का समर्थक है
'भी' अनेकान्त, स्यावाद का प्रतीक । हम ही सब कुछ हैं यूँ कहता है 'ही' सदा, तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो!
और, "भी' का कहना है कि हम भी हैं
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तुम भी हो सब कुछ !
'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को 'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है।
'भी' वस्तु के भीतरी भाग को भी छूता है, 'ही पश्चिमी सभ्यता है 'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता। रावण था 'ही' का उपासक राम के भीतर 'भी' बैठा था वही कारण है कि राम उपास्य हुए, हैं, रहेंगे आगे भी।
'भी' के आस-पास बढ़ती-सी भीड़ लगती अवश्य, किन्तु भीड़ नहीं,
'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है। लोक में लोकतन्त्र की नोड़ तब तक सुरक्षित रहेगी जब तक 'भी' श्वास लेता रहेगा। 'भो' से स्वच्छन्दता-मदान्धता मिटती है स्वतन्त्रता के स्वप्न साकार होते हैं, सविचार सदाचार के बीज 'भी' में हैं, 'ही' में नहीं।
प्रभु से प्रार्थना है, कि 'ही' से हीन हो जगत् यह अभी हो या कभी भी हो
भी' से भेंट सभी की हो। 'कर पर कर दो कुम्भ पर लिखित पंक्ति से ज्ञात होता है, कि
मूक पार्टी :: 173
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हमारे धवलिम भविष्य हेतु प्रभु की यह आज्ञा है कि : 'कहाँ बैठे हो तुम श्वास खोते सही-सही उद्यम करो पाप - पाखण्ड से परे हो
कर पर कर दो
बच जाओगे ।
अन्यथा
मेल में अन्ध हो
जेल में बन्द हो
पच पाओगे !'
'मर हम मरहम बनें
यह चार शब्दों की कविता भी मिलती है
यहीं, कुम्भ पर !
इसका आशय यही हो सकता है कि
कितना कठिनतम
पाषाण - जीवन रहा हमारा !
कितने पथिक जन
ठोकर खा गये इससे
रुक गये, गिर गये :
पथ को छोड़ कर फिर गये कितने !
फिर,
कितने पद लहूलुहान हो गये, कितने गहरे घाव - दार बन गये वे ! समुचित उपचार कहाँ हुआ उनका, होता भी कैसे पापी पाषाण से " ! उपचार का विचार भर
17.1 मूक पार्टी
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उभरा इसमें आज ! यह भी सुभगता का संकेत हैं इससे आगे पद बढ़ना सम्भव नहीं। प्रभो ! यही प्रार्थना है पतित पापी की,
कि
इस जीवन में न सही अगली पर्याय में"तो मर, हम 'मरहम' बनें!
चार अक्षरों की एक और कविता "मैं दो गला" इससे पहला भाव यह निकलता है, कि मैं द्विभाषी हूँ भीतर से कुछ बोलता हूँ बाहर से कुछ और पय में विष घोलता हूँ। अब इसका दूसरा डाव सामने आता है : मैं दोगला छली, धूर्त, मायावी हूँ अज्ञान-मान के कारण ही इस छद्म को छुपाता आया हूँ यूँ, इस कटु सत्य को, सब हितैषी तुम भी स्वीकारो अपना हित किसमें है ? और इसका तीसरा भाव क्या हैपूछने की क्या आवश्यकता है ? सब विभावों - विकारों की जड़ 'मैं' यानी अहं को दो-गला-समाप्त कर दो
मूक मारी :: 175
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मैं दो-गला'! मैं"दोगला ! मैं दोगला !!!
कम्भ में जलीय अंश शेष है अभी निश्शेष करना है उसे
और तपी हुई खुली धरती पर कुम्भ को रखता है कुम्भकार।
बिना तप के जलत्व का-अज्ञान का, बिलय हो नहीं सकता
और बिना तप के जलव का-वर्षा का, उदय हो नहीं सकता तप के अभाव में ही तपता रहा है अन्तमन यह अनल्प संकल्प-विकल्पों से, कल्प-कालों से। विफलता ही हाथ लगी है विकलता ही साथ चली है किसविध कहें, किसविध सहें
और, किसविध रहें ? कोरी बस, सफलता की बात मिली हैं.
आज तक, इस जीवन में | अनन्त की सुगन्ध में खो जाने को मचल रहा है, अन्त की सीमा से परे हो जाने को उछल रहा है,
1315 :: मृक नाटो
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सन्त का अशान्त मन यूँ पूछता है : ओ वासन्ती ! मही माँ ! कहाँ गई
ओ वसन्त की महिमा ! कहाँ गई?
इस पर
कुछ शब्द मिलते सुनने सन्त को,
" वसन्त का अन्त हो अनन्त में सान्त खो चुका है
चुका है
और उसकी देह का अन्तिम दाह-संस्कार होना है
I
निदाघ आहूत था, सो आगत है प्रभाकर का प्रचण्ड रूप है चिलचिलाती धूप है बाहर भीतर, दायें-बायें आगे पीछे ऊपर नीचे
धग धगाहट लपट चल रही है बस : बरस रही केवल
तपन' तपन" "तपन ं’!
-
-
-
दशा बदल गई है
दशों दिशाओं की
-
धरा का उदारतर उर
और
उरु उदर ये
गुरु दरारदार बने हैं जिनमें प्रवेश पाती है आग उगलती हवाएँ ये
अपना परिचय देती-सी रसातल-गत उचलते लावा को ।
मूकमाटी : 177
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यहाँ जल रही है केवल
तपन"तपन “तपन"! नील नीर की झील नाली - नदियों ये अनन्त सलिला भी अन्तःसलिला हो अन्त-सलिला हुई हैं, इनका विलोम परिणमन हुआ है यानी, नदी... दीन। जल से विहीन हो दीनता का अनुभव करती है नदी,
और ... ... .. . . . ... .. ना"ली लीना" लीना हुई जा रही है धरती में लज्जा के कारण,
यहाँ चल रही है केवल तपन "तपन तपन !
अविलम्ब उदयाचल पर चढ़ कर भी विलम्ब से अस्ताचल को छू पाता है दिनकर को अपनी यात्रा पूर्ण करने में अधिक समय लग रहा है। लग रहा है, रवि की गति में शैथिल्य आया है, अन्यथा इन दिनों दिन बड़े क्यों ?
यहाँ यही बल है केवल तपन"तपन "तपन"!
178 :: मूक मारी
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|
हरिता हरी वह किससे ? हरि की हरिता फिर किस काम की रही ? लचकती लतिका की मृदुता पक्व फलों की मधुता
किधर गईं सब ये ?
वह मन्द सुगन्ध पवन का बहाव, हलका-सा झोंका वह
फल-दल दोलायन कहाँ ?
फूलों की मुस्कान, पल-पल पत्रों की करतल- तालियाँ श्रुति मधुर श्राव्य मधूपजीवी अलि-दल गुंजन कहाँ ? शीत -लता की छुवन छुपी पीत-लता की पलित छवि भी
-
पल भर भी पली नहीं
जली, चली गई कहाँ, पता न चला, यहाँ पल रही है केवल
तपन "तपन तपन''!
वह राग कहाँ, पराग कहाँ चेतना की वह जाग कहाँ ? वह महक नहीं, वह चहक नहीं, वह ग्राह्य नहीं, वह महक नहीं,
वह 'वि' कहाँ, वह कवि कहाँ, मंजु किरणधर यह रवि कहाँ ? वह अंग कहाँ, वह रंग कहाँ अनंग का वह व्यंग कहाँ ? चह हाव नहीं, वह भाव नहीं, चेतना की छवि छाँव नहीं,
मूकमाटी 179
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यहाँ चल रही हैं केवल
तपन तपन 'तपन''! भोग पड़े हैं वहीं .. भोगी चला गया... ... . .... .:::.::
योग पड़े हैं यहीं योगी चला गया, कौन किसके लिएधन जीवन के लिए था जीवन धन के लिए ? मूल्य किसका तन का चा वतन का, जड़ का क्या चेतन का ? आभरण आभूपण उतारे गये बसन्त के तन पर से वासना जिस ओट में छुप जाती वसन भी उतारा गया वह। वासना का वास वह न तन में हैं, न वसन में
वरन
माया से प्रभावित मन में हैं।
बसन्त का भौतिक तन पड़ा है निरा हो निष्क्रिय, निरावरण, गन्ध-शून्य शुष्क पुष्प-सा 1 उसका मुख थोड़ा-सा खुला है, मुख से बाहर निकली है रसना उसकी रसना थोड़ी-सी उलटी पलटी हैं, कुछ कह रही-सी लगती हैं..भौतिक जीवन में रस ना !
Isti :: मूक पाटो
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और
रसना, नासर यानी बसन्त के पास सर नहीं था धुद्धि नहीं थी हिताहित परखने की, यहीं कारण है कि वसन्त-सम जीवन पर सन्तों का नाऽसर पड़ता है। दाह-संस्कार का समय आ ही गया बैराग्य का वातावरण छा-सा गया जब उतारा गया वह बसन्त के सन पर से कफन'कफन कफन
यहाँ गल रही है केवल
तपन'तपन' "तपन": देखते ही देखते, बस दिखना बन्द हो गया, बसन्त का शव भी अतीत की गोद में समा गया वह शेष रह गया अस्थियों का अस्तित्व । और, यूँ कहती-कहती अस्थियाँ हँस रही हैं विश्व की मूढ़ता पर, कि
जिसने मरण को पाया है उसे जनन को पाना है
और जिसने जनन को पाया है। उसे मरण को पाना है यह अकाट्य नियम हैं !
भूक माटी :: 181
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गणना करना सम्भव नहीं है, अनगिन बार धरती खुदी गहरी-गहरी वहीं-वहीं पर अनगिन बार अस्थियाँ दधीं ये ! अब तो मत करो हमारा दफन 'दफन 'दफन" हमारा दफन ही यह आगामी वसन्त-स्वागत के लिए वपन "चपन "वपन
यहाँ चल रही है केवल तपन...तपन...तपन...
कभी कराल काला राहू प्रभा-पंज भानु को भी पूरा निगलता हुआ दिखा, कभी-कभार भान भी यह अनल उगलता हुआ दिखा। जिस उगलन में पेड़-पौधे पर्वत-पाषाण पूरा निखिल पाताल तल तक पिघलता गलता हुआ दिखा अनल अनिल हुआ कभी अनिल सलिल हुआ कभी
और
जल थल हुआ झटपट बदलता ढलता परस्पर में घुला-मिला कलिल हुआ कभी। सार-जनी रजनी दिखी कभी शशि की हँसी दिखीं
12 :: मूक माटी
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कभी-कभी खुशी-हँसी, कभी निशि मषि दिखी कभी सुरभि कभी दुरभि कभी सन्धि दुरभिसन्धि कभी आँखें कभी अन्धी
बन्धन-मुक्त कभी बन्दी कभी कमी मधुर भी वह मधुरता से विधुर दिखा । कभी-कभी बन्धुर भी वह बारता से विशाल दिला . . बन्धु कभी बन्धु-विधुर भाचुकता की चाल चली बाल कभी आगे बढ़ा बबाल बढ़े, बढ़ते चले पालक बना चालक बना बाल हा पलित कभी कभी दमन कभी शमन कभी-कभी सुख चमन कभी वमन कभी नमन कभी कुछ परिणमन"!
अभी रुकती नहीं कहती थकती नहीं अस्थियाँ कुछ और कहती हैं,
इन स्थितियों-परिस्थितियों को देख ये कुछ हैं भी या नहीं ऐसी धारणा मत बनाओ कहीं ! ये सबके सब निशा के निरे, बस स्वपन"स्वपन' 'स्वपन""
पूक माटी :: 183
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.
... वहीं चल रही
तपन"तपन "तपन"! किस वजह से आती है बस्तु में यह भंगुरता
और किस जगह से आती है वस्तु में यह संगुस्ता , कुछ छुपी-सी लगती हैं यहाँ सहज-स्वाभाविक ध्रुवता वह कौन है ? क्यों मौन है? उसका रूप-स्वरूप कब दिखेगा ? वह भरपूर रसकूप कब मिलेगा ?
और
यह मिलन-मिटन की तरलिम छवि यह क्षणिक स्फुरण की सरलिम छवि पकड़ में क्यों नहीं आती ? इन सब शंकाओं का समाधान अस्थियों की मुस्कान है !
'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्' सन्तों से यह सूत्र मिला है। इसमें अनन्त की अस्तिमा सिमट-सी गई हैं। यह वह दर्पण है, जिसमें भूत, भाक्ति और सम्भावित सब कुछ झिलमिला रहा है,
"तैर रहा है दिखता है आस्था की आँखों से देखने से !
LR4 :: मूक पाटो
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बोल-चाल की भाषा में इस सूत्र का भावानुवाद प्रस्तुत है : आना, जाना, लगा हुआ है आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय हैं लगा हुआ यानी स्थिर-धौव्य है
और है यानी चिर-सत् यही सत्य है यही तथ्य!
इससे यह और फलित हुआ, कि देते हुए श्रय परस्पर में मिले हैं ये सर्व-द्रव्य पय-शक्कर से घुले हैं शोभे तथापि अपने-अपने गुणों से छोड़े नहीं निज स्वभाव युगों-युगों से । फिर कौन किसको कब ग्रहण कर सकता है ? फिर कौन किसका कब
हरण कर सकता है? अपना स्वामी आप है अपना कामी आप है। फिर कौन किसका कब भरण कर सकता है?
फिर भी, खेद है ग्रहण-संग्रहण का भाव होता है सो भवानुगामी पाप है। अधिक कथन से विराम हो आज तक यह रहस्य खुला कहाँ ? जो 'है' वह सब सत्
मूक माटी :: 185
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स्वभाव से ही सुधारता है
स्वपन ं 'स्वपन``"स्वपन अब तो चेतें विचारें
अपनी ओर निहारें
186 : मूक माटी
अपने अपन अपन ।
-
यहाँ चल रही है केवल
तपन तपन तपन'!
वसन्त चला गया
उसका तन जलाया गया, तथापि
रूप पर, गन्ध पर, रस पर, परिणाम जो हुआ है परस पर पर्त-पर-पर्त गहरा लेप चढ़ गया है। वह प्राकृत सब कुछ ढक चुका है वह विषय बहुत गूढ़ बन चुका है इसीलिए
वन-उपवनों पर, कण-कणों पर
उसका प्रभाव पड़ा है प्रति जीवनों पर यहाँ:
रग-रग में रस वह रम गया है रक्त बन कर ।
दाह-संस्कार के अनन्तर भी पूरा परिसर यह
स्नपित स्नात होना अनिवार्य है ।
परन्तु यह क्या !
अतिथि होकर भी अति क्यों ? आय नहीं होती, नहीं सही
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व्यय से भी कोई चिन्ता नहीं
परन्तु
अपव्यय महा भयंकर है।
भविष्य भला नहीं दिखता अव
भाग्य का भात धूमिल है !
अधर में डुलती-सी बादल - दलों की बहुलता
अकाल में काल का दर्शन क्यों ?
यूँ कहीं निखिल को एक ही कवल बना एक ही बार में
विकराल गाल में डाल ....बिना चबाये साबुत निगलना चाहती है !
एक भाटी
:: 187
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जब कभी धरा पर प्रलय हुआ यह श्रेय जाता है केवल जल को
धरती को शीतलता का लोभ दे इसे लूटा है, इसीलिए आज यह धरती धरा रह गई है न ही वसुन्धरा रही न वसुधा !
वह जल रत्नाकर बना हैबहा-बहा कर
धरती के वैभव को ले गया है। पर-सम्पदा की ओर दृष्टि का जाना अज्ञान को बताता है,
और पर सम्पदा हरण कर संग्रह करना मोह-मूर्छा का अतिरेक है। यह अति निम्न-कोटि का कर्म है स्व-पर को सताना है, नीच - नरकों में जा जीवन बिताना है।
यह निन्द्य कर्म करके जलधि ने जड़-धी का, बुद्धि-हीनता का, परिचय दिया है अपने नाम को सार्थक बनाया है।
मुक पाटी :: 188
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अपने साथ दुर्व्यवहार होने पर भी प्रतिकार नहीं करने का संकल्प लिया है धरती ने, इसलिए"तो"धरती सर्व-सहा कहलाती है सर्व-स्वाहा नहीं
और सर्व-सहा होना ही सर्वस्व को पाना है जीवन में
सन्तों का पथ यही गाता है। न्याय पथ के पथिक बने सूर्य-नारायण से यह अन्याय देखा नहीं गया, सहा नहीं गया और अपने मुख से किसी को कहा न ही गया ! फिर भी, अकर्मण्य नहीं हुआ वह बार-बार प्रयास चलता रहा सूर्य का, अन्याय पक्ष के विलय के लिए न्याय पक्ष की विजय के लिए।
लो ! प्रखर-प्रखरतर अपनी किरणों से जलधि के जल को जला-जला कर सखाया, चुरा कर भीतर रखा हुआ अपार धन-वैभव दिख गया सुरों, सुराधिपों को ! इस पर भी स्वभाव तो देखा, जला हुआ जल वाष्प में ढला
IA : मृक मादी
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गलाद बाबा बरसाता रहा और अपने दोष-छद्य छुपाता रहा
जलधि को बार-बार भर-भर कर! कई बार भानु को घूस देने का प्रयास किया गया पर न्याय मार्ग से विचलित नहीं हुआ
''वह
परन्तु, इस विषय में चन्द्रमा विचलित हुआ
और उसने जलतत्त्व का पक्ष लिया, लक्ष्य से च्युत हो, भर-पूर घूस ले लिया। तभी तो चन्द सम्पदा का स्वामी भी आज सुधाकर बन गया चन्द्रमा !
वसुधा की सारी सुधा सागर में जा एकत्रित होती फिर प्रेषित होती"ऊपर
और उस सुधा का सेवन करता है
सुधाकर, सामर नहीं सागर के भाग्य में क्षार ही लिखा है। 'यह पदोचित कार्य नहीं हुआमेरे लिए सर्वथा अनुचित है। यूँ सोच कर चन्द्रमा को लज्जा-सी आती है उज्ज्वल भाल कलंकित हुआ उसका
मूक माटी :: 191
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दिन में क्यों नहीं रात्रि में क्यों निकलता है घर से बाहर ? वह भी चोर के समान-सशंक छोटा-सा मुख छुपाता हुआ अपना"!
और धरती से बहुत दूर क्यों रहता है ? जब कि भानु धरती के निकट से प्रवास करता है अपना !
चन्द्रमा का ही अनुसरण करती हैं ताराएँ भी। इधर सागर की भी यही स्थिति है चन्द्र को देख कर उमड़ता है
और सूर्य को देख कर उबलता है।
यह कटु सत्य है कि 'अर्थ की आँखें परमार्थ को देख नहीं सकती, अर्थ की लिप्सा ने बड़ी-बड़ों को निर्लज्ज बनाया है।'
यह बात निराली है, कि मौलिक मुक्ताओं का निधान सागर भी है कारण मुक्ता का उपादान जल है, यानी-जल ही मुक्ता का रूप धारण करता है
112 :: मूक माटी
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रखण्ड : तीन पुण्य का पालन पाप-प्रक्षालन
.
.
.
.
Pass.
:
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---
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तधापि
इस विषय पर विचार करने से विदित होता है कि
इस कार्य में धरती का ही प्रमुख हाथ है। जल को मुक्ता के रूप में ढालने में शुक्तिका सीप कारण हैं
और
सीप स्वयं धरती का अंश है।
स्वयं धरती ने सीप को प्रशिक्षित कर
सागर में प्रेषित किया है। जल को जड़त्व से मुक्त कर
::.
मुक्ता-फल बना पतन के गर्त से निकाल कर
उत्तुंग उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय हैं ।
यही दया-धर्म हैं
यही जिया कर्म है
I
फिर भी !
सबकी प्रकृति सही-सुलटी हो यह कैसे सम्भव है ?
जल की उलटी चाल मिटती नहीं वह जल का स्वभाव छल-छल उछलना नहीं है उछलना केवल बहाना है उसका उसका स्वभाव तो छलना है I
मुक्तमुखी हो, ऊर्ध्वमुखी हो सागर की असीम छाती पर
अनगिन शुक्तियाँ तैरती रहती हैं जल- कणों की प्रतीक्षा में
मूक माटी
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एक-दो बूंदें मुख में गिरते ही तत्काल बन्द-मुखी बना कर सागर उन्ह डुबाता है, कोई उन्हें छीन न ले, इस भय से। और, अपनी अतल-अगम गहराई में छुपा लेता है। वहाँ पर कोई गोताखोर पहुँचता हो सम्पदा पुनः धरा पर लाने हेतु वह स्वयं ही लुट जाता है।
खाली हाथ लौटना भी उसका कठिन है. दिन-रात जाग्रत रहती है यहाँ की सेना भयंकर विषधर अजगर मगरमच्छ, स्वच्छन्द सम्पदा के चारों ओर विचरण करते हैं, अपरिचित-सा कोई दिखते ही साबुत निकलते हैं उसे ! वदि वह पकड़ में नहीं आता हो तो तो "क्या ? वातावरण को विषाक्त बनाया जाता है तुरन्त, विष फैला कर। यही कारण है कि सागर में विष का विशाल भण्डार मिलता है।
पूरी तरह जल से परिचित होने पर भी आत्म-कर्तव्य से चलित नहीं हुई धरती बह । कृतघ्न के प्रति विघ्न उपस्थित करना तो दूर,
194 :: मूक माटी
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देखो ना !
बाँस भी धरती का अंश है धरती ने कह रखा हैं बाँस को
कि
वंश की शोभा तभी है जल को मुक्ता बनाते रहोगे
युग-युगों तक..
संघर्ष के दिनों में श्री
दीर्घ श्वास लेते हुए भी
हर्ष के क्षणों में भी ।
फिर क्या कहना !
I
विघ्न का विचार तक नहीं किया मन में निर्विघ्न जीवन जीने हेतु कितनी उदारता है धरती की यह ! उद्धार की बात ही सोचती रहती सदा सर्वदा सबकी ।
धरती माँ की आज्ञा पा बड़े घने जंगलों में गगन चूमते गिरिकुलों पर
बाँस की संगति पा
जलदों से झरा जल वंशमुक्ता में बदलने लगा तभी तो
वंशीधर भी मुक्त कण्ठ से
वंशी की प्रशंसा करते हैं मुक्ता पहनते कण्ठ में और
अपने ललित लाल अधरों से
लाड़ प्यार देते हैं वंशी को ।
-
-
मूकमाटी : 195
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बदले में फिर सुरीने स्वर-संगीत सनते हैं, श्रवणों से मन्त्र-मुग्ध हो, खो कर अपने को दैनिक - रात्रिक सपने को !
इसी भाँत, धनी मां की आज्ञा पालने में ग्त हैं. नाग, सूकर, मच्छ, गज, मेघ आदि जिनके नाम से मुक्ता प्रचलित हैंवंश-मकः।।, सीप-मुक्ता नाग-मुक्ता, सूकर-भुक्ता मन-मुक्ता, गज-मुक्ता
और गंध-मुक्ता ! मंघ-ममता बनने में भी धरती का ही हाथ है
सो 'रग्रप्ट होगा यहीं... इन सब विशेषताओं से सातिशय यश बढ़ता गया धरती का, चन्द्रमा की चन्द्रिका को अतिशय ज्चर चढ़ता गया ।
धरती के प्रति लिएकार का भाव ओर बढ़ा धरती को अपमानित - अपधादित करने हेतु चन्द्रमा के निर्देशन में न तत्च वह अति तेजी में अत्तरन की पाल चतने लगा, यदा-कदा म्वन्प वषां करके। दन्न दल पंदा करने लगा धरती पर। घाती को शकता-अखण्डता को
19G :: पूक मारी
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अति पहुँचाने हेतु
दल-दल पैदा करने लगा ! दल-बहुलता शान्ति की हननी है ना ! जितने विचार, उतने प्रचार उतनी चाल-ढाल हाला युला जल- ... ... .. . .. .. . क्लान्ति की जननी है ना !
इसी का यह परिणाम है कि अतिवृष्टि का, अनावृष्टि का और
अकाल-वर्षा का समर्थन हो रहा यहाँ पर ! तुच्छ स्वार्थसिद्धि के लिए कुछ व्यर्थ की प्रसिद्धि के लिए सब कुछ अनर्थ घट सकता है !
वह प्रार्थना कहाँ है प्रभु से, वह अर्चना कहाँ है प्रभु की
परमार्थ समृद्धि के लिए ! इसी बीच विशाल आँखें विस्फारित खोल खड़ी लेखनी यह बोल पड़ी कि"अधःपातिनी, विश्वघातिनी इस दुर्बुद्धि के लिए धिक्कार हो, धिक्कार हो ! आततायिनी, आर्तदायिनी दीर्घ गीध-सी इस धन-गृद्धि के लिए धिक्कार हो, धिक्कार हो !"
मुक माटी :: 197
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तीन-चार दिन हो गये किसी कारणवश विवश हो कर जाना पड़ा बाहर कुम्भकार को। पर, प्रवास पर तन ही गया है उसका, मन यहीं पर
बार-बार लौट आता आवास पर ! तन को अंग कहा है मन को अंगहीन अन्तरंग अनंग का योनि-स्थान है यह ... . . . . . . .. सब संगों का उत्पादक है सब रंगों का उत्पातक!
तन का नियन्त्रण सरल है
और मन का नियन्त्रण असम्भव तो नहीं, तथापि वह एक उलझन अवश्य है
कटुक-पान गरल है वह"। कुम्भकार की अनुपस्थिति होना कुम्भ में सुखाव की उपस्थिति होना यह स्वर्णावसर है मेरे लिएयूँ जलधि ने सोचा।
और हर-हर कहती लहरों के बहाने सूचित किया बादलों को अपनी कूटनीति से जो पहले से ही प्रशिक्षित थे।
TIK :: मूक सारी
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जलधि 'जड़धी' है इसका भाव बुद्धि का अभाव नहीं'
जड़ यानी निर्जीवचेतना-शून्य घट-पट पदार्थों से धी यानी बुद्धि का प्रयोजन
और
चित् की अर्चना-स्वागत नहीं करना है। सागर में परोपकारिणी बुद्धि का अभाव, जन्मजात है उसका वह स्वभाव।
वही बुद्धिमानी है हो हितसम्पत्-सम्पादिका
और स्व-पर-आपत्-संहारिका'! सागर के संकेत पा कर सादर सचेत हुई हैं सागर से गागर भर-भर अपार जल की निकेत हुई गजगामिनी भ्रम-भामिनी दुबली-पतली कटि वाली गगन की गली में अबला-सी तीन बदली निकल पड़ी हैं। दधि-धवला साड़ी पहने पहली वाली बदली वह ऊपर से
साधनारत साध्वी-सी लगती है। रति-पति-प्रतिकूला-मतिवाली पति-मति-अनुकूला गतिवाली
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इससे पिछली, बिचली बदली पलाश की हंसी-सी साड़ी पहनी गुलाब की आभा फीकी पड़ती जिससे लाल पगतली वाली लाली-रची. . . . पद्मिनी की शोभा सकुचाती है जिससे, इस बदली की साड़ी की आभा वह जहाँ-जहाँ गई चली फिसली-फिसली, बदली वहाँ की आभा भी।
और, नकली नहीं, असली सुवर्ण वर्ण की साड़ी पहने हैं सबसे पिछली बदली वह।
इनका प्रयास चलता है सर्वप्रथम प्रभाकर की प्रभा को प्रभावित करने का ! प्रभाकर को बीच में ले कर परिक्रमा लगाने लगीं ! कुछ ही पलों में प्रभा तो प्रभावित हुई, परन्तु, प्रभाकर का पराक्रम वह प्रभावित-पराभूत नहीं हुआ, उसके कार्यक्रम में कुछ भी
कमी नहीं आई। अपनी पत्नी को प्रभावित देख कर प्रभाकर का प्रवचन प्रारम्भ हुआ। प्रवचन प्रासंगिक है, पर है सरोष !
"अतीत के असीम काल-प्रवाह में स्त्री-समाज द्वारा
200 :: मूक माटी
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पृथ्वी पर प्रलय हुआ हो, सुना भी नहीं देखा भी नहीं । प्रलय हेतु आगत बदलियाँ ये क्या अपनी संस्कृति को विकृत-छांवे मे बदलना चाहती हैं ?
अपने हों या पराये, भूखे-प्यासे बच्चों को देख
माँ के हृदय में दूध रुक नहीं सकता बाहर आता ही है उमड़ कर, इसी अवसर की प्रतीक्षा रहती हैंउस दूध को ।
क्या सदय हृदय भी आज प्रलय का प्यासा बन गया ?
क्या तन-संरक्षण हेतु धर्म ही बेचा जा रहा है ? क्या धन-संवर्धन हेतु शर्म ही बेची जा रही है ?
स्त्री जाति की कई विशेषताएँ हैं जो आदर्श रूप हैं पुरुष के सम्मुख ।
प्रतिपल परतन्त्र हो कर भी पाप की पालड़ी भारी नहीं पड़ती पल-भर भी !
7
इनमें पाप भीरुता पलती रहती है अन्यथा,
स्त्रियों का नाम भीरू' क्यों पड़ा ?
प्रायः पुरुषों से बाध्य ही कर ही कुपथ पर चलना पड़ता है स्त्रियों को
परन्तु,
मूक मादी 201
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कुपथ- सुपथ की परख करने में प्रतिष्ठा पाई है स्त्री - समाज ने ।
इनकी आँखें हैं करुणा की कारिका शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें मिलन- सारी मित्रता
मुफ्त मिलती रहती इनसे ।
यही कारण है कि
इनका सार्थक नाम है 'नारी'
यानी
'न अरि' नारी"
202 : मूक माटी
अथवा
ये आरी नहीं हैं "सी"नारी"!
जो
मह यानी मंगलमय माहौल, महोत्सव जीवन में लाती है 'महिला' कहलाती वह !
जो निराधार हुआ, निरालम्ब,
आधार का भूखा
जीवन के प्रति उदासीन - हतोत्साही हुआ उस पुरुष में.. मही यानी धरती
धृति-धारणी जननी के प्रति अपूर्व आस्था जगाती है।
और पुरुष को रास्ता बताती है सही-सही गन्तव्य का'महिला' कहलाती वह !
इतना ही नहीं, और सुनो ! जो संग्रहणी व्याधि से ग्रसित हुआ है
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जिसकी संयम की जठराग्नि मन्द पड़ी है, परिग्रह-संग्रह से पीड़ित पुरुष को महीं यानी मठा-महेरी पिलाती है,
'महिला' कहलाती है वह"! जो अव यानी 'अवगम'-ज्ञानज्योति लाती हैं, तिमिर-तामसता मिटा कर जीवन को जागृत करती है 'अबला' कहलाती है वह ! अथवा, जो पुरुष-चित्त की वृत्ति को विगत की दशाओं से
और अनागत की आशाओं से पूरी तरह हटा कर 'अब' यानी आगत-वर्तमान में लाती हैं 'अबला' कहलाती है बह"! बला यानी समस्या संकट है न बला सो अबला समस्या-शून्य-समाधान ! अबला के अभाव में सबल पुरुष भी निर्वल बनता है समस्त संसार ही, फिर, समस्या-समूह सिद्ध होता है, इसलिए स्त्रियों का यह 'अबला' नाम सार्थक है :
पृक पाटी :: 203
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'क' यानी पथिवी 'मा' यानी लक्ष्मी
और 'री' यानी देनेवाली इससे कुल मिला कर 'भाव निकलता है कि यह धरा सम्पदा-सम्पन्ना तब तक रहेगी जब तक यहाँ 'कुमारी' रहेगी। यही कारण है कि सन्तों ने इन्हें प्राथमिक मंगल माना है
लौकिक सब मंगलों में! धर्म, अर्थ और काम परुषाथों से गृहस्थ जीवन शोभा पाता है। इन पुरुषार्थों के समय प्रायः पुरुष ही पाप का पात्र होता है, वह पाप, पुण्य में परिवर्तित हो इसी हेतु स्त्रियाँ प्रयत्नशीला रहती हैं सदा। पुरुष की वासना संयत हो,
और पुरुष की उपासना संगत हो, यानी काम पुरुषार्थ निर्दोष हो, वस, इसी प्रयोजनवश वह गर्भ-धारण करती है। संग्रह-वृत्ति और अपव्यय-रोग से पुरुष को बचाती है सदा, अर्जित-अर्थ का समुचित वितरण करके।
204 :: मूक पार्टी
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दान-पूजा-सया आदिक सत्कर्मों को, गृहस्थ धर्मों को सहयोग दे, पुरुष से करा कर धर्म-परम्परा की रक्षा करती है। यूं स्त्री शब्द ही स्वयं गुनगुना रहा है
'स' यानी सम-शील संयम है 'श्री' यानी तीन अर्थ हैं धर्म, अर्थ, काम-पुरुषाथों में पुरुष को कुशल-संयत बनाती है सो'स्त्री' कहलाती है।
ओ, सुख चाहनेवालो ! सुनो, 'सुता' शव गायं सुना रहा है, कि ....... :: ... ..' 'सु' यानी सुहावनी अच्छाइयों
और 'ता प्रत्यय वह भाव-धर्म, सार के अर्थ में होता है. यानी, सुख-सुविधाओं का स्रोत' 'सो'सुता' कहलाती है
यही कहती हैं श्रुत-सूक्तियों ! दो हित जिसमें निहित हों वह 'दुहिता' कहताती है अपना हित स्वयं कर ही लेती है, पतित में पतित पति का जीवन भी हित से सहित होता है, जिससे वह 'दुहिता' कहलाती है।
मृक माटी :: 205
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उभय-कुल मंगल-वर्धिनी उभय-लोक-सुख-सर्जिनी स्व-पर-हित सम्पादिका कहीं रह कर किसी तरह भी हित का दोहन करती रहती
सो दुहिता' कहताती है। हमें समझना है 'मातृ' शब्द का महत्त्व भी। प्रमाण का अर्थ होता है ज्ञान प्रमेय यानी ज्ञेय
और प्रमात को ज्ञाता कहते हैं समा: जानने की शक्ति वह मातृ-तत्त्व के सिवा अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। यही कारण है, कि यहां कोई पिता-पितामः, पुरुष नहीं है जो सबकी आधारशिला हो, सवकी जननी मान मातृतत्त्व है।
मातृतन्च की अनुपलब्धि में जेय-ज्ञायक सम्बन्ध ठप् ! ऐसी स्थिति में तुम ही बताओ, सुख-शान्ति भुक्ति वह किसे मिलेगी, क्यों मिलेगी
किस-विध? इसीलिए इस जीवन में उसी माता का मान-सम्मान हो, उसी का जय-गान हो सदा,
धन्य'!
21 :. मृझ, पा
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सदियों से सदुपदेश देती आ रही हैं पुरुष-समाज को यह अनंग के संग से अंगारित होने वालो ! सुनो, चारा सुनो तो! स्वीकार करती हूँ कि मैं 'अंगना' हूँ परन्तु, मात्र अंग ना हूँ और भी कुछ हूँ मैं! अंग के अन्दर भी कुछ झाँकने का प्रयास करो, अंग के सिवा भी कुछ माँगने का प्रयास करी, जो देना चाहती हूँ, लेना चाहते हो तुम ! 'सो' चिरन्तन शाश्वत है 'सो' निरंजन भास्वत है भार-रहित आभा का आभार मानो तुम !"
प्रभाकर का प्रवचन वह हृदय को जा गया छूमन्तर हो गया, भाव का वैपरीत्य, वाद-विवाद की बात सुला दी गई चन्द पलों के बाद ही संबाद की बात भी सुला दी गई बाहर के अनुरूप बदलाहट भीतर भी तीनों बदली ये बदलीं।
मुक माटी :: 207
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अपने पति सागर का पक्ष प्रतिषत हुआ इन्हें जगत्पति प्रभाकर की पक्ष अनुकूल प्रकाशित हुआ इन्हें अपनी उज्ज्वल परम्परा सुन घटित अपराध के प्रति
और
अपने प्रति, घृणा का भाव भावुक हुआ,
सो तुरन्त कह उठीं :
"भूल क्षम्य हो, स्वामिन् !
सेविका सेवा चाहती हैं
वह दृश्य छवि दृष्ट कब हो इन आँखों से धूल शम्य हो, स्वामिनू !
अपरिचित आहार रहा जो अपरिमित आधार रहा जो आनन्द-तत्व का स्रोत मूल-गम्य हो स्वामिन् !"
208 भूक भाटी
कार्य क्या, अकार्य क्या,
श्रीर-नीर- विवेक जागृत हुआ संव्य की सेविका बनी समता की आँखों से लखने वाली, जिन की लीला तन की, मन की और वचन प्रणाली मृदुता मुदिता - शीला वनी
दान-कर्म में लीना दवा-धर्म-प्रवीणा
वीणा-विनीता-सी बनी "" ! राग-रंग त्यागिनी विराग संग भाविनी
सरला-तरला मराली. सी बनी..!
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जिनमें सहन-शीलता आ ठनों हनन-शीलता सो हनी, जिनमें सन्तों-महन्तों के प्रति नति नमन-शीलता जगी यति वजन-शीलता जगी पक्षपात से रीता हो कर
न्यायपक्ष की गीता-समीता बनी'! भावी भोगों की अभिलाषा को । आभेशाप देतो-सी : शुक्ला-पद्मा-पीता-लेश्या-धरी भीग भावों, भीगी आँखों वाली विनय अनुनय से भरी प्रभाकर को परिक्रमा देती पुनः पुण्य में पलटाने पाप के पाक को ।
घटती इस घटना का अवलोकन किया धरती की आँखों ने, उपरिल देहिलता झिलमिलाई
निचली स्नेहिलता से मिला आई। धरती के अनगिन कर ये अनगिन कणों के बहाने अधर में उठते अविलम्ब ! और, बटना-स्थल तक पहुंचते बदली की आँखों से छर कर गालों पर, कुछ पल टहरे, चमकते मात्विक जीवन के सूचक शित-शुभ्र विशुद्ध टपकते जल-कणों को सहलाने ।
मक गरी ।
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ज्यों ही क्षेत्र की दूरी सिमट गई
सघन-कणों का ........:...: ...::.. '
पिलर हारों से मिलन हुआ
परस्पर गले से गले मिल गये ! शेष बचा संस्कार के रूप में छल का दिल छिल गया सब कुछ निश्छल हो गया
और जल को मुक्ति मिली। लो ! यूँ मेघ - से मेघ-मुक्ता का अवतार !
यह किसकी योग्यता वह कौन उपादान है ? यह किसकी सहयोगता वह कौन अवदान है ? यहाँ वेदना किसकी वह कौन प्राणं हैं ? यहाँ प्रेरणा किसकी वह कौन बाण हैं ? ये सब शंकाएँ स्वयं निःशंका हुईं अब सब कुछ रहस्य खुल गया पूरा का पूरा, मुक्ता की वर्षा होती अपक्व कुम्भों पर कुम्भकार के प्रांगण में! पूजक का अवतरण ! पूज्य पदों में प्रणिपात।
110 :: मूक माटी
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कुम्भकार की अनुपस्थिति प्रांगण में मुक्ता की वर्षा पूरा माहौल आश्चर्य में डूब गया अड़ोस-पड़ोस की आँखों में बाहर की ओर झाँकता हुआ लोभ !
हाथों-हाथ हवा-सी उड़ी बात राजा के कानों तक पहुँचती है।
फिर क्या कहना प्राणी ! क्यों ना छूटे राजा के मुख में पानी !!
अपनी मण्डली ले राजा आता है
मण्डली वह मोह-मुग्धा
लोम-लुब्धा, मुधा-मण्डिता बनी. अदृष्टपूर्व दृश्य देख कर !
पाप पाप पाप ! क्या कर रहे आप?
परिश्रम करो पसीना बहाओ
मुक्ता की राशि को
बोरियों में भरने का संकेत मिला मण्डली को ।
राजा के संकेत को
आदेश- तुल्य समझती
ज्यों ही नीचे झुकती मण्डली राशि भरने को,
त्यों ही
गगन में गुरु गम्भीर गर्जना : "अनर्थ अनर्थ अनर्थ !
मूक माटी 201
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बाहुवन मिला है तुम्हें करी पुरुषार्थ सही पुरुष को पहचान करा सली, परिश्रम के बिना तुम नवनीत का गोला निगतो भले ही, कभी पचेगा नहीं वह प्रत्युत, जीवन को खतरा ह !
पर-कामिनी, यह जननी हो, पर-धन कंचन की गिट्टी भी मिट्टी हो, सज्जन की दृष्टि में ! हाय रे ! समग्र संसार-सृष्टि में अव शिष्टता कहाँ है वह ?
अवशिष्टता दुष्टता की रही मात्र !" यूँ, कर्ण-कटक अप्रिय यंगात्मक-वाणी सन कर भी हाथ पसारती है मण्डली,
और मुक्ता को छूते ही बिच्छू के इंक की वंदना, पापड़-सिकती-सी काया सबकी छटपटाने लगी करवटें बदलने लगी। अंग-अंग में नयापन-पौदा गाड़ी से लो चोटी तक विष ध्याप्त हा हा सव में मुग्धा मण्डली मन्छिन । मोही मन्त्री समेत पवकी देह-यष्टि नलो एन गई !
:: :: गुम पार
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यह सब देख कर
भयभीत हुआ राजा का मन भी, उसका मुख खुला नहीं
मुख पर ताला पड़ गया हो कहीं, हाथ की नाड़ी ढीली पड़ गई। राजा को अनुभूत हुआ, कि किसी मन्त्र शक्ति के द्वारा
मुझे कीलिए किया गया है... हाथ हिल नहीं सकते,
"थम गये हैं I
पाद चल नहीं सकते जम गये हैं । धुँधला-धुंधला - सा दिखने लगा, कान सुन नहीं सकते, "गुम गये हैं।
प्रतिकार का विचार मन में है पर, प्रतिकार कर नहीं सकता, किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ राजा !
और
माहौल का मन्तव्य गूढ़ हो गया !
जमाने का जमघट आ गया इसी अवसर पर ! कुम्भकार का भी आना हुआ, देखते ही इस दृश्य को एक साथ शिल्पी की आँखों में तीन रेखाएँ खिंचती हैं विस्मय-विषाद विरति की !
विशाल जन समूह वह विस्मय का कारण रहा;
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राज-मण्डली का मूच्छित होना, राजा का कीलित-स्तम्भित होना विधाका कारण स्टा
स्त्री और श्री के चंगल में फंसे दुस्सह दुःख से दूर नहीं होते कभीयह जो स्पष्ट दिखा विरति का कारण रहा। कुम्भकार को रोना आया इस दुर्घटना का घटक प्रांगण रहा, जो स्वर्ग और अपवर्ग का कारण था आज उपसर्ग का कारण बना, मंगलमय प्रांगण में
दंगल क्यों हो रहा, प्रभो ? लगता है कि अपने पुण्य का परिपाक ही इस कार्य में निमित्त बना है
स्व-पर-संवेदन हेतु प्रभु से निवेदन करता है, कि
जीवन का मुण्डन न हो सुख-शान्ति का मण्डन हो, इनकी मूर्छा दूर हो बाहरी भी, भीतरी भी इनमें ऊर्जा का पूर हो।
कुछ पलों के लिए माहौल स्पन्दन-हीन होता है। वह बोल बन्दन-लीन होता है
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.
फिर वह मौन टूटता है, ओंकार के उच्च उच्चारण के साथ ! शीतल जल करतल ले ... . ... ... . मन्त्रित करता है अन्तर्जल्प से मंगल-कुशलता को आमन्त्रित करता है अन्तःकल्प से, मूर्छित मन्त्रि-मण्डल के मुख पर मन्त्रित जल का सिंचन कर।
फिर क्या कहना ! पल में पलकों में हलचली हुई मुंदी आँखें खुलती हैं, जिस भाँति प्रभाकर के कर-परस पा कर अधरों पर मन्द-मुस्कान ले सरवर में सरोजिनी खिलती हैं।
मूर्छा दूर होते ही मण्डली मुक्ता से दूर भाग खड़ी होती, राजा का भी स्थानान्तरण हुआ कहीं पुनरावृत्ति न हो जाय
इस भीति से"! फिर, उत्कण्ठा नहीं कण्ठ में अबरुद्ध-सा कण्ट है दवी-दबी कैंपती वाणी में। सजल लोचन लिये कर मुकुलित किये, विनवावनत कुम्भकार कहता है : "अपराध क्षम्य हो, स्वामिन् !
मूक माटी :: PI
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आप प्रजापति हैं, दयानिधान ! हम प्रजा हैं दया-पात्र, आप पालक हैं, हम बालक यह आप की ही निधि है हमें आप की। समिति है
एक शरण ! भेरी अनुपस्थिति के कारण आप लोगों को कष्ट हुआ, अब पुनरावृत्ति नहीं होगी स्वामिन् ! आप अभय रहें।" यूं कहता-कहता मुक्ता की राशि को बोरियों में स्वयं अपने हाथों से भरता है बिना किसी भीति से। इस दृश्य को देख कर मण्डली-समेत राज-मुख से तरन्त निकलती है ध्वनि-- "सत्य-धर्म की जय हो। सत्य-धर्म की जय हो !!
इसी प्रसंग में प्रासंगिक वात बताता है अपक्व कुम्भ भी प्रजापति को संकेत कर : "बाल-बाल बच गये, राजन ! बड़े भाग्य का उदय समझो ! वरना, जल जल कर वाप्य बन
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खो जाते शून्य में तभी के । और
यह कौन-सी बुद्धिमत्ता हैं
कि
जलती अगरबाती को
हाथ लगाने की आवश्यकता क्या थी?
अगर
अगरबाती अपनी सुरभि को स्वयं पीती,
तो "बात निराली थी,
मगर,
सौम्य सुगन्धि को
आपकी नासिका तक प्रेषित कर ही रही थी
दूसरी बात यह भी है कि 'लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन रावण हो या सीता हो राम भी क्यों न हों
दण्डित करेगा ही !'
अधिक अर्थ की चाह - दाह में
जो दग्ध हो गया है
अर्थ ही प्राण, अर्थ ही त्राण
यूँ - जान-मान कर, अर्थ में ही मुग्ध हो गया है, अर्थ-नीति में वह
विदग्ध नहीं है ।
कलि-काल की वैषयिक छाँव में प्रायः यही सीखा है इस विश्व ने वैश्यवृत्ति के परिवेश मेंवेश्यावृत्ति की वैयावृत्य "!"
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कुम्भ के व्यंगात्मक बचनों से राजा का विशाल भाल एक साथ तीन भावों से भावित हुआलज्जा का अनरंजन! रोष का प्रसारण-आकुंचन!!
और
घटना की यथार्थता के विषय में
चिन्ता-मिश्रित चिन्तन!!! मुख-मण्डल में परिवर्तन देख राजा के मन को विषय बनाया,
फिर
कुम्भकार ने कुम्भ की ओर बंकिम दृष्टिपात किया।
आत्म-वेदी, पर मर्म-भेदी काल-मधुर, पर आज कटक कुम्भ के कथन को विराम मिले
___किसी भौति,
और
राजा के प्रति सदाशय व्यक्त हो अपना
इसी आशय से। लो, कुल-क्रमागतकोमल कुलीनता का
परिचय मिलता कुम्भ को ! लघु हो कर गुरुजनों को भूल कर भी प्रवचन देना महा अज्ञान है दुःख-मुधा,
परन्तु,
गुरुओं से गुण ग्रहण करना
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यानी शिव-पथ पर चलेंगे हम, यू. उन्हें वचन देना महा वरदान है सुख-सुधा,
और गुरु हो कर लघु जनों को स्वप्न में भी बचन देना, यानी उनका अनुकरण करना सुख की राह को मिटाना है।
पर, हाँ !
विनय अनुनय-समेत यदि हित की बात पूछते हों, पक्षपात से रहित हो
अक्षरात मे हेित. हो.. हित-मित-मिष्ट वचनों से उन्हें प्रवचन देना
दुःख के दाह को मिटाना है। शनैः शनैः ज्वर-सूचक यन्त्र-गत ऊपर चढ़े हुए उतरते पारा-सम !
या
उबलते-उफनते ऊपर उठ कर पात्र से बाहर उछलने को मचलते दूध में जल की कुछ बूंदें गिरते ही शान्त उपशमित दूध-सम ! कुम्भ को समझाते कुम्भकार की बातों से राजा की मति का उफान
मूक मादी :: 219
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उद्दीपन उतरता-सा गया, अस्त-व्यस्त-सी स्थिति
अब पूरी स्वस्थ-शान्त हुई देख, फिर से निवेदन, कर-जोड़ प्रार्थना : "हे कृपाण-पाणि ! कृपाप्राण ! कृपापात्र पर कृण करो . . . यह निधि स्वीकार कर इस पर उपकार करो ।
इसे उपहार मत समझो यह आपका ही हार है, शृंगार आपकी ही जीत है इसका उपभोग-उपयोग करना हमारी हार है, स्वामिन् !"
बोरियों में भरी उपरिल मुक्ताराशि बाहर की ओर झाँकती कुम्भकार की इस विनय-प्रार्थना को जो राजा से की जा रही है, सुनती-देखती; और समझ भी रही है राजा के मन की गुदगुदी को, सम्मति की ओर झुकी राजा की चिति की बुदबुदी को मुख पर मन्द-मुस्कान के मिष : हे राजन् ! पदानुकूल है, स्वीकार करो इसे
यूँ मानी कह रही है। 220 : मूक माटी
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परन्तु सुनो! मुम्ता वह नामानुकूल न राग करतीं, न द्वप से धरती
अपने आपको । न ही मद-मान-मात्सर्य
उसे छू पाते कोई विकार ! सर्व-प्रथम प्रांगण में गिरी
आकाश मण्डल में .. .. . . . . . . . . फिर निरी-निरी हो बिखरी, बोरियों में भरी गई। सम्मान के साथ अब जा रही है राज-प्रासाद की ओर.. मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा हो रही है,
मन्त्रमुग्धा हो सुनती कव उसे ? मुदित-मुखी महिलाओं के संकटहार कण्टहार बनती ! द्वार पर आगत अभ्यागतों के सर पर हाथ रखती, तारणहार तोरणद्वार बनती, इस पर भी वह उन्मुक्ता मुक्ता ही रहती अहंभाव से जसंपृक्ता मक्ता"!
कुम्भकार के निवेदन, मुक्ता और माहौल के सराहन-समर्थन पर विचार करता हुआ राजा स्वीकारोक्ति का स्वागत करता है, सानन्द !
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और मुक्ता को दुर्लभ निधि ले राज-कोप को और समृद्ध करता है।
इसी भाँति । धरती की धलिम कीर्ति वह चन्द्रमा की चन्द्रिका को लजाती-सी दशों दिशाओं को चीरती हुई
और बढ़ती जा रही है सीमातीत शून्याकाश में।
सूरज-शूरों, वीरों की श्रीमानों की, धीमानों की धीरजनों की, तस्वीरों की शिशुओं की औ पशुओं की किशोर किस्मतवालों की युवा-युवति, यति-यूथों की सामन्तों की, सन्तों की शीलाभरण सतियों की परिश्रमी ऋषि-कृपकों की असि-मपि कर्मकारों की ऋद्धि-सिद्धि-समृद्धों की बुद्धों की, गुणवृद्धों की तरुवरों की, गुरुबरों की परिमल पल्लव-पत्तों की गुरुतर गुल्म-गुच्छों की फल-दल कोमल फूलों की किसलय-स्निग्ध किसलयों की पर्वत-पर्व-तिथियों की
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..
सदा सरकती सरिताओं की सरवर सरसिज सुषमा की आदि शादिः 'यूँ..::........ भाँति-भाँति आभाओं की धरती से सरलिम प्रीति बह और बढ़ती जा रही है और बढ़ती जा रही है
अरे यह कौन-सी परिणति उलटी-सी ! सागर की गलिम रीति है" और चिढ़ती जा रही है धरती की बढ़ती कीर्ति को देख कर ! हे सखे ! अदेसख भाव है यह "वेशक' !
कुम्भ को मिटा कर मिट्टी में मिला-घुला कर मिट्टी को बहाने हेतु प्रशिक्षिता हुई प्रेषिता थी, जो पर-पक्ष की पूजा कर मुक्ता की वर्षा करती धरती के यश को और बढ़ाती हुई लजीली-सी लौटती बदलियों को देख । सागर का क्षोभ पल-भर में चरम सीमा को छूने लगा। लोचन लोहित हुए उसके, भृकुटियाँ तन गईं गम्भीरता भोसता में बदलती है
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224 मूक पाटी
भविष्य का भाल भला नहीं दिखा उसे
और
कषाय- कलुषित मानसवाला
यूँ सोचता हुआ सागर
कुछ मनोभाव व्यक्त करता है कुछ पंक्तियाँ कहता है, कि :
"स्वस्त्री हो या परस्त्री,
स्त्री जाति का यही स्वभाव है,
कि
किसी पक्ष से चिपकी नहीं रहती वह ।
अन्यथा,
मातृभूमि मातृ पक्ष को
त्याग-पत्र देना खेल है क्या ?
और वह भी
बिना संक्लेश, विना आवास !
यह
पुरुष समाज के लिए
टेढ़ी खीर ही नहीं,
त्रिकाल असम्भव कार्य है !
इसीलिए भूल कर भी
कुल परम्परा संस्कृति के सूत्रधार
स्त्री को नहीं बनाना चाहिए।
और
गोपनीय कार्य के विषय में विचार-विमर्श भूमिका
नहीं बताना चाहिए ।
धरती के प्रति वैर-वैमनस्य - भाव गुरुओं के प्रति भी गर्वीली दृष्टि सबको अधीन रखने की
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अदम्य आकांक्षा सर्व-भक्षिणी वृत्ति.. सागर की इस स्थिति को देख कर
तेज प्रभाकर को .. संहा न गया यह संब:: .
अतः रवि ने सागर-तत के रहवासी तेज तत्त्व को सूचित किया गूढ संकेतों से सचेत किया जो प्रभाकर से ही शासित था, जातीयता का साम्य भी था जिसमें; परिणामस्वरूप तुरन्त बड़वानल भयंकर रूप ले खौल उठा,
और 'हे क्षार के पारावार सागर ! तुझे पी डालने में एक पल भी पर्याप्त है मुझे
यूँ बोल उठा। आवश्यक अवसर पर सज्जन-साधु पुरुषों को भी, आवेश-आवेगों का आश्रय लेकर ही कार्य करना पड़ता है। अन्यथा, सज्जनता दूपित होती है दुर्जनता पूजित होती है जो शिष्टों की दृष्टि में इप्ट कब रही"?
कथनी में और करनी में बहुत अन्तर है, जो कहता है वह करता नहीं
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और
जो करता है वह कहता नहीं,
226 मूक माटी
यूँ ठहाका लेता हुआ सागर व्यंग कसता है पुनः
"ऊपर से सूरज जल रहा है
नीचे से तुम उवल रहे हो ! और
बीच में रह कर भी यह सागर
कब जला, कब उवला :
इसका शीतल - शील "यह
कब बदला'?
हाय रे !
शीतल योग पा कर भी शीतल कहाँ बने तुम ? तुमने उष्णत्व को कब उगला
दूसरी बात यह भी है कि, तुम्हारी उष्ण प्रकृति होने से सदा पित्त कुपित रहता है तथा चित्त क्षुभित रहता है,
अन्यथा
उन्मत्तवत् तुम
यद्वा तद्वा बकते क्यों ? पित्त - प्रशमन हेतु
मुझसे याचना कर, सुधाकर सम सुधा सेवन किया करो
और
प्रभाकर का पक्ष न लिया करो !"
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कूट-ऋट कर सागर में कृट-नीति 'भरी है। पुनः प्रारम्भ होता है पुरुषार्ध । पृथिवी पर प्रलय करना प्रमुख लक्ष्य है ना !
इसीलिए इस बार पुरुष को प्रशिक्षित किया है प्रचुर - प्रभूत समय 2 कर।
और यह पुरुष हैं-- 'तीन घन-बादल बदलियाँ नहीं दल-बदलने वाली
झट-सदया से पिघलनमाली ..... : .:::: शुभ-कार्यों में विधन डालना ही इनका प्रमुख कार्य रहा है। इनका जघन परिणाम है, जधन ही काम :
और 'घन' नाम !
सागर में से उठते-उठते क्षारपूर्ण नीर-भरे क्रम-क्रम से वायुयान-सम अपने-अपने दलों सहित आकाश में उड़ते हैं। पहला बादल इतना काला है कि जिसे देख कर अपने सहचर-साथी से बिछुड़ा भ्रमित हो भटका भ्रमर-दल, सहचर की शंका से ही मानो बार-बार इससे आ मिलता
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और निराश हो लोटता है यानी भ्रमर से भी अधिक काला है
वह पहला बादल-दल। दूसरा'"दूर से ही विष उगलता विषधर-सम नीला नील-कण्ठ, लीला-वालाजिसकी आभा से ... पकी पीली धान की खेत भी हरिताभा से भर जाती हैं !
और,
अन्तिम-दल कबूतर रंग वाला है। यूँ ये तीनों, तन के अनुरूप ही मन से कलुषित हैं।
इनकी मनो-मीमांसा लिखी जा रही है : चाण्डाल-सम प्रचण्ड शील वाले हैं घमण्ड के अखण्ड पिण्ड बने हैं। जिनका हृदय अदय का निलय बना है, रह-रह कर कलह करते ही रहते हैं ये, विना कलह भोजन पचता ही नहीं इन्हें ! इन्हें देख कर दूर से ही भूत भाग जाते हैं भय से, भयभीत होती अमावस्या भी इनसे दूर कहीं छुपी रहतो वह; यही कारण है कि एक मास में एक ही बार
बाहर आती है आवास तज कर। 221 :: मूक मारी
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निशा इनकी बहन लगती है, सागर से शशि की मित्रता हुई अपयश - कलंक का पात्र बना शशि क्रिसी रूपक्ती सुन्दरी से सम्बन्ध नहीं होने से शशि का सम्बन्ध निशा के साथ हुआ, सो "सागर को श्रेय मिलता यह ! ............
मोह-भूत के वशीभूत हुए कभी किसी तरह भी किसी के वश में नहीं आते ये, दुराशयी हैं, दुष्ट रहे हैं दुराचार से पुष्ट रहे हैं, दूसरों को दुःख दे कर तुष्ट होते हैं, तृप्त होते हैं, दूसरों को देखते ही रुष्ट होते हैं, तप्त होते हैं, प्रतिशोध की वृत्ति इन की सहजा - जन्मजा है वैर-विरोध की ग्रन्थि इनकी खुलती नहीं झट से। निर्दोषों में दोष लगाते हैं सन्तोषों में रोष जगाते हैं बन्धों की भी निन्दा करते है
शुभ कर्मों को अन्धे करते हैं, सुकृत की सुषमा-सुरभि को सूंघना नहीं चाहते भूल कर भी, विषयों के रांसक बने हैं कषाय-कृषि के कृषक बने हैं जल-धर नाम इनका सार्थक है।
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जड़त्व को धारण करने स जो मत्ति-मन्द मदान्ध बने हैं।
यद्यपि इनका नाम पयाधर भी है, নয়ায়ি विष ही वर्षाते हैं वर्षा-ऋतु में थे। अन्यथा, भ्रमर-सम काले क्यों हैं ? यह बात निराली है कि वसुधा का समागम होते ही 'विष' सुधा बन जाता है
और यह भी एक शंका होती है, कि वर्या-क्रतु के अनन्तर शरद-ऋतु में हारक-सम शुक्र क्यों होते' :
उपाय की उपस्थिति ही पर्याप्त नहीं है. उपादेय की प्राप्ति के लिए अपाय की अनुपस्थिति भी अनिवार्य है। और वह अनायास नहीं, प्रयास-साध्य है।
इस कार्य-कारण की व्यवस्था को स्मरण में रखते हुए ही सर्व-प्रथम वह बादल-दल दखते-देखते पलभर में अपने पथ में वाधक बने प्रभाकर से जा भिड़ते हैं
और धन घमण्ड-चुल
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गुरु-गर्जन करते कहते हैं कि, "धरती का पक्ष क्यों लेता है ?
सागर से क्यों चिढ़ता है ? अरे खर ! प्रभाकर सुन ! भले ही गगनमणि कहलाता है तू, सौर-मण्डल 'देवता-ग्रह'ग्रह-गणों में अन तझमें व्यग्रता को सौमा दिखती है अरे उग्रशिरोमणि ! तेरा विग्रह यानीदेह-धारण करना वृथा है।
कारण,
कहाँ है तेरे पास विश्राम-गृह ? तभी "तो दिनभर दीन-हीन-सा दर-दर भटकता रहता है । फिर भी क्या समझ कर साहस करता है सागर के साथ विग्रह-संघर्ष हेतु ?
अरे, "अब"तो सागर का पक्ष ग्रहण कर ले, कर ले अनुग्रह अपने पर, और सुख-शान्ति-यश का संग्रह कर ! अवसर है, अवसर से काम ले अब, सर से काम ले ! अब"तो"छोड़ दे उलटी धुन अन्यथा,
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'ग्रहण' की व्यवस्था अविलम्ब होगी। 'अकीर्ति का कारण कदाग्रह है' कदाग्रही को मिलता आया है चिर से कारागृह वह !
कटोर कर्कश कर्ण-कटु शब्दों की मार सुन कर दशों-दिशाएँ बधिर हो गई, नभ-मण्डल ही निस्तेज हुआ फैले बादल-दलों में डूब-सा गया
अवगाह-प्रदाता अवगाहित-सा हो गया ! और, प्रभाकर का प्रभा-मण्डल भी कुछ-कुछ निष्प्रभ हुआ कहता है,
कि
'अरे ठगी, और को ठग कर ठहाका लेनेवालो ! अरे, खण्डित जीवन जीनेवालो, पाखण्डु-पक्ष ले उड़नेवालो ! यह रहस्य की बात समझने में अभी समय लगेगा तुम्हें !
गन्दा नहीं बन्दा ही भयभीत होता है विषम-विधन संसार से --
और,
अन्धा नहीं, आँख-बाला ही भयभीत होता है परम-सघन अन्धकार से।
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हिंसा की हिंसा करना ही अहिंसा की पूजा है"प्रशंसा,
और
हिंसक की हिंसा करना या पूजा नियम से अहिंसा की हत्या है 'नृशंसा । धी-रता ही वृत्ति यह धरती की धीरता है और काय-रता ही वृत्ति वह जलधि की कायरता है। "
:... .. . :
:
:: :...
मही की मूर्धन्यता को अर्चना के कोमल फूलों से
और जलधि की जघन्यता को तर्जना के कठोर शूलों से पदाचित पुरस्कृत करता प्रभाकर फिर स्वाभिमान से भर आया, जितनी थी उतनी पूरी-की-पूरी उसकी तेज उष्णता वह उभर आई ऊपर। रुधिर में सनी-सी, भय की जनी ऊपर उठी-तनी भृकुटियाँ लपलपाती रसना बनी, आग की बूंदें ही टपकाती हों,
घनी" कहीं... 'नहीं, नहीं, किसी को छोडूंगी नहीं।'
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यूँ गरजती दावानल-सम धधकती वनी-सी बनी"
सही-सही समझ में नहीं आता। पूरी खुली दोनों आँखों में लावा का बुलावा है क्या ? . ....:: . . . . . . :.
"भुलाया है यह ! बाहर घूर रहा है ज्वालामुखी तेज तत्त्व का मूल-स्रोत विश्व का विद्युत् केन्द्र।
संसार के कोने-कोने में तेज तत्त्व का निर्यात यहीं से होता है, जिसके अभाव में यातायात ठप्"
जड़-जंगमों का : चारों ओर अन्धकार, धुप्"।
निन्दा की दृष्टि से निरखने में निरत निकट नीचे आये नीच-निराली नीतिवाले बादल-दलों को जलाने हेतुप्रभाकर के प्रयास को निरख सागर ने राहु को याद किया, और कहा :
"प्रमाकर की उद्दण्डता कब तक चलेगी (पृथिवी से प्रभावित प्रभाकर) सौर-मण्डल की शालीनता को लीलता जा रहा वह ! धरती की सेवा में निरत हुआ पृथिवी से प्रभावित प्रभाकर
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क्या आपसे परिचित नहीं ? क्या मृगराज के सम्मुख जा
मनमानी करता है मृग भी ? क्या मानी बन मेंढक भी विषधर के मुख पर जा
खेल खेल सकता है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि धरती की सेवा के मिष आपका उपहास कर रहा हो !
कुछ भी हो, कुछ भी लो, मन-चाहा, मैंह-माँगा ! माँग पूरी होगी सम्मान के साथ,
यह अपार राशि राह देख रही है। शिष्टों का उत्पादन - पालन हो दुष्टों का उत्पातन - गालन हो, . ... ... . . . . . . . . . ... . सम्पदा की सफलता वह सदुपयोगिता में है ना!"
राह में राशि मिलती देख राहु गुमराह-सा हो गया हाय ! खेद की बात है राहु की राह ही बदल गई और चुपचाप यह सब पाप होता रहा दिनदहाड़ेसरासर सागर से निर्यात
सौर-मण्डल की ओर"! यान में भर-भर कर डिझल-मिल, झिल-मिल अनगिन निधियाँ
एक पाटी
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ऐसी हँसती धवलिम हँसियाँ मनहर हीरक मौलिक-मणियाँ मुक्ता मूंगा माणिक-छवियाँ पुखराजों की पीलिम पटियाँ राजाओं में गग उभरता नीलम के नग रजतिम छड़ियाँ।
र: गर ।श का मानना .. .. . :. राहु राजी हुआ, राशि स्वीकृत हुई सो"दुर्बलता मिटी सागर का पक्ष सबल हुआ।
राहु का घर भर गया अनुद्यम-प्राप्त अमाप निधि से तब राहु का सर भर गया विष-विषम पाप-निधि से। यानी अस्पर्श्व-निधि के स्पर्शन से राह इतना काला हो गया, कि वह दुर्दर्श्य हो गया पाप-शाला क्षीणतम सुकृतवाला दृश्य नहीं रहा दर्शकों के
स्पर्श नहीं रहा स्पर्शकों के : लो, विचारों में समानता घुली, दो शक्तियाँ परस्पर मिलीं। गुरवेत तो कड़वी होती ही है
और नीम पर चड़ी वह फिर कहना ही क्या !
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भली-बुरी भविष्य की गोद में है करवटें लेती पड़ी अभी ! इस पर भी दोनों के मन में चैन कहाँ : आकुलता कई गुनी बढ़ी है।
दिन में, रात में प्रकाश में, तम में
आँख बन्द कर के भी दोनों प्रलय ही देखते हैं, प्रलय ही इनका भोजन रहा है प्रलय ही प्रयोजन!
धरती के विलय में निलय किसे मिलेगा ?
और कहाँ वह जीवन-साधन? धरती की विजय में अभय किसे न मिलेगा ? और यहाँ जीवन-सा धन !
हमें, तुम्हें और उन्हें यहाँ कोई चाहे जिन्हें। हाय, परन्तु ! कहाँ प्राप्त है इस विचार का विस्तार इन्हें ? कुटिन' च्याल-चालवाला कराल-काल गालवाला साधु-बल से रहित हुआ बाहु-बल से सहित हुआ।
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वराह-राम का राही राह हिताहित-विवेक-वंचित स्वभाव से क्रूर, क्रुद्ध हुआ रौद्र-पूर, रुष्ट हुआ कोलाहल किये बिना एक-दो कवल किये बिना बस, साबुत ही निमलता है प्रताप-पुंज प्रभाकर को। सिन्धु में बिन्दु-सा मां की गहन-गोद में शिशु-सा राहु के गाल में समाहित हुआ भास्कर । दिनकर तिरोहित हुआ“सो" दिन का अवसान-सा लगता हैं दिखने लगा दीन-हीन दिन दुर्दिन से घिरा दरिद्र गृही-सा ।
यह सन्ध्याकाल है या अकाल में काल का आगमन ! तिलक से विरहितललना-ललाट-तल-सम गगनांगना का आँगन
अभिराम कहाँ रहा वह ? दिशाओं की दशा बदली जीर्ण-ज्वर-ग्रसित काया-सी।
कमल-बन्धु नहीं दिखा सो. कमल-दल मुकुलित हुआ कमनीयता में कमी आई अक्रम"! वन का, उपवन का जीवन बह मिटता-सा लगता है, और
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वनका पीवन संजीवन
लुटता-सा लगता है। अग्नि मित्र है ना पचन का ! तेज तत्त्व का स्रोत है ना सूर्य !
अरुक, अथक पथिक हो कर भी पवन के पद थमे हैं आज मित्र की आजीविका लुटती देख ।
से
कम्पित हैं अनुकम्पा सो तन में कम्पन है,
मासूम ममता की मूर्ति
स्वर - विहारी स्वतन्त्र - संज्ञी संगीत - जीवी संयम-तन्त्री सर्व-संगों से मुक्त निःसंग अंग ही संगाती संगी जिसका संघ-समाज-सेवी
.
वात्सल्य-पूर वक्षस्तल ! तमो- रजो अवगुण- हनी सती- गुणी, श्रमगुण-धनी
वैर-विरोधी वेद-बांधि सन्ध्या की शंका से शंकाकुल आकस्मिक भय से व्याकुल जिसके पंख भर आये हैं
श्लथ पक्षी दल वह विहंगम दृश्य दर्शन छोड़ अपनी-अपनी नीड़ों पर आ मौन बैठ जाता है जिसका तन, और
चिन्ता की सुदूर गहनता में पैठ जाता है जिसका मन !
अनुक्षण
मूकमाटी
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अन्दर के आदित कण आत के कारण बाहर आ-आ कर क्रन्दन कर रहे हैं!
ये तो कल के ही कणं हैं परन्तु, खेद है कल का रख कहाँ है वह कलरव ?
कलकण्ट का कण्ट भी कुण्ठित हुआ : : .. नः उन्नतः हा में ...
कवल भर-भर आया है
करुण क्रन्दन आक्रन्दन ! काक - कोकिल - कपोतों में चील - चिड़ियाँ - चातक - चित में बाघ - भेड़ - बाल - बकों में सारंग - कुरंग - सिंह - अंग में खग - खरगोशों - खरों - खलों में ललित - ललाम - लजील लताओं में पर्वत - परमोन्नत शिखरों में प्रौढ़ पादपों औ' पौधों में पल्लव-पातों, फत-फूलों में . विरह-वेदना का उन्मेष देखा नहीं जाता निमेष भी
सो...
संकल्प लिया पंछी-दल ने
सूर्य-ग्रहण का संकट यह जब तक दूर नहीं होगा तब तक भोजन-पान का चाग ! जन-रंजन, मनरंजन का त्याग : और तो और अंजन-व्यंजन का भी :
240 :: भूक माटो
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भूचरों नभश्चरों का हा-हाकार सुन कर राहु के मुख में छटपटाता दिनकर को देख कर बादल के दिल को बल मिला, कहीं
कई गुणा खून चढ़ गया हो उसका ! पर पक्ष के पराभव में ऐसा होता ही है, पर, होना नहीं चाहिए। और स्व-पक्ष के पगपत में .. . .... ..... . .. .. .. दिल पर दौरा पड़ता है वह सब जग की जड़ता है। अब मेघों के वर्षण को कौन रोक सकता है? अब मेवों के हर्षण को कौन रोक सकता है ? प्रलयकारिणी वर्षा की भूमिका पूरी बन पड़ी है यथास्थानयूँ कहते माहौल को देख,
जब हवा काम नहीं करती तब दवा काम करती है,
और जब दवा काम नहीं करती तब दुआ काम करती है परन्तु, जब दुआ भी काम नहीं करती तब क्या रहा शेष ?
मक मादा :: 241
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कौन सहारा ? सो सुनी ! दृढ़ा ध्रुवा संयमालिंगिता यह जो चेतना है
स्वयंभुवा काम करती हैं,
चूँची हुई धरती को विनय अनुनय से कहते हैं कण-कण ये :
"माँ के मान का सम्मान हो
राघव-वंश के अंश हैं ये, लाघव वंश के प्रशंसक भी परन्तु, अहं के संस्कार से संस्कारित गारव - वंश के ध्वंसक हैं, माँ !
242 मूकमाटी
हुए, हो रहे और होंगे
जिस वंश में हंस परमहंस
उस वंश की स्मृति विस्मृत न हो, मा ! वंश-परम्परा की परिचर्या
करने दो इसे,
मात्र परिचर्चा
रहने दो उसे,
श्रम का भाजन रही जो !
सरस भाषण की अपेक्षा नीरस भोजन ही आज स्वादपूर्ण, स्वास्थ्य वर्धक लग रहा है इसे ।"
जगद्द्ििहतैषिणी माँ के मंगलमय चरण-कमलों में मस्तक धरते करते नमन
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और माँ के मुख से मंगलमय
आशीर्वचन सुनते यूँ : “पाप-पाखण्ड पर प्रहार करो प्रशस्त पुण्य स्वीकार करो !"
दृढ़मना श्रमण-सम सक्षम कार्य करने कटिबद्ध हो अथाह उत्साह साथ ले अनगिन कण ये उड़ते हैं थाह-शून्य शून्य में! रणभरी सुन कर रणांगन में कूदने वाले स्वाभिमानी स्वराज्य-प्रेमी लोहित-लोचन उद्भट-सम
या
तप्त लौह-पिण्ड पर धन-प्रहार से, चट-चट छूटते स्फुलिंग अनुचटन-सम लाल-लाल ये धरती-कण क्षण-क्षण में एक-एक हो कर भी कई जत्लकणों को, बस सोखते जा रहे हैं, सोखते जा रहे हैं... पूरा बल लगा कर भी भू-कण की राशि को चीर-चीर कर इस पार भू तक नहीं आ पाये जल-कण ।
पूक माटी : 243
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:
ऊपर से नीचे की ओर गिरते अनगिन जल-कणों से, नीचे से ऊपर की ओर उड़ते अनगिन भू-कणों का नारदार टकराव ! परिणाम यह हुआ, कि एक-एक जल-कपा:::::. . . "..:::: :: कई कणों में विभाजित होतेलोरदार बिखराब ! बारों ओर जोर शोर"
और छोर-शून्य सौरमण्डल में धूमदार घिराय"!
घनों के ऊपर विधन छा गया भू-कण सम्पन हो कर भी अब से परे अनघ रहे, घनों के कण अनघ कहा ? अधों के भार, सौ-सौं प्रकार सो भयभीत हो भाग रहे, और भू-कण ये भूखे-से काल बन कर, भयंकर रूप ले जल-कणों के पीछे भाग रहे हैं।
इस अवसर पर इन्द्र भी अवतरित हुआ, अमरों का ईश ।
परन्तु
उसका अवतरण गुप्त वह दृष्टिगोचर नहीं हुआ
241:: मूक माटी
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केवल धनुष दिख रहा कार्यरत इन्द्रधनुष !
महापुरुष प्रकाश में नहीं आते आना भी नहीं चाहते,
प्रकाश-प्रदान में ही
उन्हें रस आता हैं
यह बात निराली है, कि प्रकाश सबको प्रकाशित करेगा ही स्व हो या पर, प्रकाश्य' भर को ! फिर सत्ता-शून्य वस्तु भी कहां है ? फिर, यह भी सम्भव कहाँ
7
कि सत्ता हो और प्रकाशित न हो ?
इन्द्र-सम वही चाहता हे 'यह' भी ।
मैं यथाकार बनना चाहता हूँ व्यथाकार नहीं ।
और
मैं तथाकार बनना चाहता हूँ
कथाकार नहीं ।
इस लेखनी की भी यही भावना है
कृति रहे, संस्कृति रहे
आगामी असीम काल तक
जागृत जीवित अजित !
सहज प्रकृति का वह शृंगार - श्रीकार
मनहर आकार ले
जिसमें आकृत होता है । कर्ता न रहे, वह
विश्व के सम्मुख कभी भी
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विपम - विकृति का वह क्षार-दार संगार अहंकार का हुँकार ले जिसमें जागृत होता है।
और हित स्व-पर का यह निश्चित निराकृत होता है !
:: ... ... .
आज इन्द्र का पुरुषार्थ सीमा को छू रहा है, दोन हाथ से भुष की डोर दाहिने कान तक पूर्ण खींच कर निरन्तर छोड़े जा रहे । तीखे सूचीमुखी बाणों से लिदे जा रहे, भिदे जा रहे, विद्रूप-नितीर्ण हो रहे हैं
बादल-दलों के बदन सब। वयंर ममर-सा हो आई स्थिति उनकी दयनीय-सी गति, रुलाई आती है ।।
जहाँ देखें वहाँ भू-कण ही भू-कण थोड़े से ही शेष हैं जल-कण। यही कारण है कि सागर ने फिर से प्रेषित किये जन-भरे लबालब वादल-दल, और साथ ही साथ आगे क्या करना, यह भी सूचित किया है।
-
246 :: मूक भाटों
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C
सूचित भावानुसार तुरन्त, बादलों ने बिजली का उत्पादन किया, क्रोध से भरी बिजली कौंधने लगी सब की आँखें ऐसी बन्द हो गईं चिपक गई हों गोंद से कहीं ! सूझबू बुझती बई
औरों की क्या कथा, निसर्ग से अनिमेष रहा इन्द्र भी निमेष-भर में निमेषवाला बन गया,
यानी
इन्द्र की आँखें भी
बार-बार पलक मारने लगीं। तभी इन्द्र ने आवेश में आ कर अमोघ अस्त्र वज्र निकाल कर बादलों के ऊपर फेंक दिया।
वज्राघात से आहत हो
मेघों के मुख से 'आह' ध्वनि निकली, जिसे सुनते ही
सौर मण्डल बहरा हो गया।
रावण की भाँति चीखना मेघों का रोना वह
अपशकुन सिद्ध हुआ सागर के लिए,
और
आग उगलती बिजली की आँखों में भूरि-भूरि धूलिकण
घुस - घुस कर
दुःसह दुःख देने लगे । ऐसी विषम स्थिति को देख बिजली भी कँपने लगी, यही कारण हो सकता है कि
मूक माटी 267
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चला-चपता पलायवाला .......... बनी हो बिजली": इस दुर्घटना को देख,
"तुरन्त, सागर से पुनः सूचना मिलती है भयभीत बादलों को, कि । इन्द्र ने अमोघ अस्त्र चलाया तो तुम
रामबाण से काम लो ! पीछे हटने का मत नाम लो ईंट का जवाब पत्थर से दो! विलम्ब नहीं, अविलम्ब ओला-वृष्टि करो"उपलवर्षा! लो, फिर से बादलों में स्फूर्ति आई स्वाभिमान सचेत हुआ ओलों का उत्पादन प्रारम्भ ! सो"ऐसा लग रहा है उत्पादन नहीं, उद्घाटन - अनावरण हुआ है अपार भण्डार का कहीं !
लघु-गुरु अणु-महा त्रिकोण-चतुष्कोण वाले तथा पंच पहलू वाले भिन्न-भिन्न आकार वाले भिन्न-भिन्न भार वाले गोल-गोल सुडौल ओले क्या कहे, क्या बोले, जहाँ देखें वहाँ ओले सौर-मण्डल भर गया :
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सो"यह लेखनी तुलना करने बैठी और और लकी :
ऊपर अणु की शक्ति काम कर रही है तो इधर नीचे
मनु को शक्ति विद्यमान !
ऊपर यन्त्र है, घुमड़ रहा है नीचे मन्त्र है, गुनगुना रहा है
एक मारक है.
एक तारक; एक विज्ञान है
जिसकी आजीविका तर्कणा हैं,
एक आस्था हैं
जिसे आजीविका की चिन्ता नहीं,
एक अधर में लटका है
उसे आधार नहीं पैर टिकाने,
एक को धरती की शरण मिली है। यही कारण है, ऊपर वाले के पास केवल दिमाग़ है, चरण नहीं हो सकता है दीमक खा गये हों उसके चरणों को"!
नीचे वाला चलता भी है
प्रसंग पर ऊपर भी चढ़ सकता है; हाँ !
ऊपरवाले का दिमाग़ चढ़ सकता है। जिस समय वह
विनाश का,
पतन का पाठ ही पढ़ सकता है।
यह भी सर्व विदित है कि प्रश्न-चिह्न ऊपर ही
मूक भाटी : 249
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लटका मिलता है सदा, जबकि
पूर्ण विराम नीचे ।
प्रश्न का उत्तर नीचे ही मिलता है ऊपर कदापि नहीं
उत्तर में विराम है, शान्ति अनन्त ।
प्रश्न सदा आकुल रहता है
उत्तर के अनन्तर प्रश्न ही नहीं उठता, प्रश्न का जीवन - अन्त
सिन्धु में बिन्दु विलीन ज्यों"" !
-
250 मुक माटी
लेखनी से हुई इस तुलना में
अपना अवमूल्यन जान कर ही मानो, निर्दय हो कर दूह प भू-कणों के ऊपर जनगिन ओले ।
प्रतिकार के रूप में
अपने बल का परिचय देते
मस्तक के बल भू-कणों ने भी जलों को टक्कर देकर
इस टकराव से कुछ ओले तो पल भर में फूट-फूट कर बहु भागों में बँट गये, और वह दृश्य
call re
उछाल दिये शून्य में
बहुत दूर "धरती के कक्ष के बाहर, 'आर्यभट्ट', 'रोहिणी' आदिक उपग्रहों को उठात देता है
यथा प्रक्षेपास्त्र !
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ऐसा प्रतीत हो रहा है, कि परिमल - पारिजात पुष्प- पांखुरियाँ ही मुस्कान विखेरती
मंगल
नीचे उतर रही हों, धीरे-धीरे !
जो स्वर्गों से वरसाई गईं
देवों से धरती का स्वागत अभिनन्दन है ।
कुछ ओलों को पीड़ा न हो, यूँ विचार कर ही मानो उन्हें मस्तक पर ले कर
है क
सो ऐसा लग रहा हैं कि हनूमान अपने सर पर हिमालय ले उड़ रहा हो !
घटना का यह क्रम
घण्टों तक चलता रहा" "लगातार,
इसके सामने 'स्टार वार'
जो इन दिनों चर्चा का विषय बना है विशेष महत्त्व नहीं रखता।
ऊपर घटती हुई घटना का अवलोकन खुली आँखों से कुम्भ-समूह भी कर रहा ।
पर,
कुम्भ 前
मुख पर
भीति की लहर वैषम्य नहीं है
सहज - साक्षी भाव से, बस सब कुछ संवेदित है
सरत गरल सकल शकल सब !
इस पर भी
विस्मय की बात तो यह है
कि.
मूकमाटी
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।एक भी नीला नीचे आ कर कम्भ को भग्न नहीं कर सका ! जहाँ तक हार-जीत की बात हैभू-कणों की जीत हो चुकी हैं
और बादलों-ओलों के गले में हार का हार लटक रहा है सुरभि-सुगन्धि से रहित
मृतक मुरझाया हुआ। तथापि, नये-नये बादलों का आगमन नूतन जोलों का उत्पादन बीच-बीच में बिजली की कौंध संघर्ष का उत्कर्षण-प्रकर्षण कलह, कशमकश धूर्तता सागर के विषम-संकेत क्रूरता आदि-आदि यह सब पगमव के बाद बढ़ता हुआ दाह-परिणाम है, क्रोध का पराभव होना सहज नहीं।
इस प्रतिकूलता में भी भूखे भू-कणों का साहस अद्भुत हैं, त्याग-तपस्या अनूठी : जन्म-भूमि की लाज माँ-पृथिवी की प्रतिष्ठा दृढ़ निष्ठा के बिना टिक नहीं सकती, रुक नहीं सकती यहाँ,
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लूट जाती "तभी की इस विषय को स्मृति में लाता हुआ उपाम्य की पालना में डूबता हुआ शिल्पीकिसी बात की माँग नहीं की।
इसका अर्थ यह नहीं कि
अभाव का अनुभव नहीं हो रहा हो;
अर्थ का अभाव कोई अभाव नहीं है. और प्रभ से अर्थ की मांग करना भी
"व्यर्थ है ना ! जो आपकं पास है ही नहीं रखना चाहते ही नहीं उसकी क्या मांग ? परन्तु, परमार्थ का अभाव असह्य हो उठा है इसमें, विभो ! इस अभाव का अभाव कब हो ?
किसी विशेष कारणवश शोकाकुल हो श्रान्त थक कर . शवासन से सोया हुआ किशोर के सूक्ष्मातिसूक्ष्म सिसकन में ही घनीभूत दुःख की गन्ध आती है यह भी माँ की नासा को। उसकी श्वसन-प्रणाली का सरकन आरोहण-अवरोहण का श्रवण माँ की श्रवणा ही कर सकती हैं।
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पहन कपड़ों को नहीं फाइ रहा है हाथ-पैर नहीं पछाड़ रहा है. धरा पर,
और मुख-मुद्रा को विकृत करता हुआ आक्रोश के साश क्रन्दन नहीं कर रहा है, इसी कारणवश उसमें दुःख के अभाव का निर्णय लेना
सही निर्णय नहीं माना जा सकता। “मात्र दुःख का अभिव्यक्तीकरण . ., ..:.:.: नहीं है यहाँ किन्तु दुःख की घटाओं से आच्छन्न है अन्दर का आकाश ! इसका दर्शन यदि अन्तर्यामी को भी नहीं होगा "तो
फिर.. किस की आँखें हैं ये इसे देख सकें
और तुरन्त ही सजल हो सान्त्वना दे सकें ? मां-धरती का मान बच जाय, प्रभो ! जल का मान पच जाय, विभो ! परीक्षा की भी सीमा होती है अति-परीक्षा भी प्रायः पात्र को प्रचलित करता है पध से, पाथेय के प्रति प्रीति भी घटती है। वार-बार दीर्घ श्वास लेने से धैर्य-साहस की बाँध हिलती है दरार की पूरी सम्भावना है।
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हाय ! अकाल में ही जीवन से
हाथ धोना पड़ेगा क्या । दिन-पर-दिन कटते गये
कई दिन ! जब कारण ज्ञात हुआ शिल्पी के अदर्शन का प्रेमभरी मन्द-मुस्कान लाड़-प्यार की वात। गात पर हाथ सहलाता कोमल कर-पल्लवों का वह सहलाव संगीत के साथ आत्मसात् कराता शीतल सलिल का स्नेहिल सिंचन.. यह सब अतिशय अतीत का, स्मृति का विषय बन झलक आया गलाव-पौध के समक्ष । . . . . . . . : . ....: .:: .... ............ .
और पौध ने दृष्टिपात किया तुरन्त ! सुदर"प्रांगण में आसीन शिल्पी की ओर,
.
भोग-भुक्ति से ऊब गया है चोग-भक्ति में डूब गया है, उसकी मति वह प्रभु-चरणों की दासी बनी है, पर मुखाकृति पर पतली हल्की-सी
उदासी बसी है !''सी' धर्म-संकट में पड़े स्वामी को देख गुलाब-पौध बोल उठा : "इस संकट का अन्त निकट हो,
मूक, पाटी :: 255
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विकट से विकटतम संकट भो कट जाते हैं पल भर में;
आपको स्मरण में लाते ही फिर''तो प्रभो ! निकट-निकटतम निरखता
आपको हृदय में पाते भी विलम्ब क्या हो रहा है, आर्य के इस कार्य में?"
इसी अवसर पर, यानी आगत संकट पर ही गुताब के काँटे भी दाँत कटकटाते हैं, कर्ण-कद कुछ कहते यूं : "अरे संकट ! हृदय-शून्य छली कहाँ का ! कण्टक बन मत विष्ठ जा ! निरीह-निर्दोष-निश्छल
नीराग पथिकों के पथ पर ! अपना हट छोड़, अब तो हट जा पथ से "दूर'"कहीं जा,
वरना,
कॉटे से ही काँटा निकाला जाता हैंक्या यह पता नहीं तुझे :: ध्यान रख ! कुछ ही पलों में पता ही न चलेगा तेरा !''
इसी बीच इसी विषय में डाल पर लटकता फूल-.
Pati :. मूक माटी
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विशेष सक्रिय हो जाता है न ही कोटे की बात कारता है न ही काँटे को डाँटता है,
समयोचित बात करता है काँटे के उद्वेग - ऊष्मा के
उपशमन हेतु। जब सुई से काम चल सकता है तब तलवार का प्रहार क्यों करें ? जव फूल से काम चल सकता है. तब शूल का व्यवहार क्यों करें । जब मूल में भूतल पर रह कर ही
फल हाथ लग रहा है तब चूल पर चढ़ना वह मात्र शक्ति-समय का अपव्यय ही नहीं,. सही मूल्यांकन का अभाव सिद्ध करता है। यू, गन्ध-निधान गुलाब नीति-नियोग की विधि बताता प्रोति-प्रवीग की निधि दिखाता अपने अभिन्न अनन्य मित्र अणु-अणु से, कण-कण से सुरभि का परिचय कराता दिवि-दिगन्तों तक फैला कर गन्ध-वाहकः पबन का स्मरण करता है।
कुछेक क्षण निकलते, कि विनय - विश्वास विचारशील प्रकृति के अनुरूप प्रकृति वाला बन-उपवन विचरण-धमा
मूक माटो :: "
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वसन्त-वर्पा-तुषार-घर्मा सब ऋतुओं में समान कर्मा मैत्रिक भाव का आस्वादन करता जीवन के क्षण-क्षण में पैत्रिक-भाव का अभिवादन करता
पवन का आगमन हुआ। ऐसे व्यक्तित्व के सम्बन्ध में ही मन्तों की ये पंक्तियाँ मिलती हैं, कि 'जिसकी कर्तव्य-निष्टा यह काष्ठा को छूती मिलती है उसकी सर्वमान्य प्रतिष्ठा तो" काष्ठा को भी पार कर जाती है।'
ली, स्मरपामात्र से ही मित्र का मिलन हुआ सो फूल गुलाब फूला न समाया मुदित-मुखी आमोद झूला झूलने लगा, परिणाम यह हुआआगत मित्र का स्वागत स्वयमेव हुआ।
फूल ने पवन को प्रेम में नहला दिया,
और बदले में पवन ने फूल को प्रेम से हिला दिया !
2.36 :: मूक माटी
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: :: :: ... ...
कुछ मौन ! फिर पवन ने कहा बिनय के साथ
कि ....
या सो कारण ज्ञात करना चाहता हूँ
जिससे कि प्रासंगिक कर्तव्य पूर्ण कर सकूँ अपने को पुण्य से पूर स.,
और पावन-पूत कर सकूँ, बस और कोई प्रयोजना नहीं।'
पर के लिए भी कुछ करूँ सहयोगी • उपयोगी बनें यह भावना एक बहाना है,
दूसरों को माध्यम बना कर मध्यम-बानी समता की ओर बढ़ने बस, सुगमतम पथ हैं, और औरों के प्रति अपने अन्दर भरी ग्लानि - घृणा के लिए विरेचन !" पवन के इस आशय पर उत्तर के रूप में, फल नं | मुख से कुछ भी नहीं कहा, मात्र गम्भीर मुद्रा से धरती की ओर देखता रहा।
दया-द्रवीभूत हो कर करुणा-छलकती दृष्टि फेरी सुदूर बैठे शिल्पी की और
पूक पाटी:: 250
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:
जा औरों से क्या,
अपने शरीर की ओर निहारते नहीं। कुछ पल खिसक गये, कि. फूल का मुख :पमतमाने लगा क्रोध के कारण; पाखी-रूप अधर-पल्लव फड़फड़ाने लगे, क्षोभ से; रक्त-चन्दन आँखों से वह ऊपर बादलों की और देखता हैओ कृतान कलह-कम-मग्न बने हैं; हैं विघ्न के सात बतार, :.::. .:. :::::: संवेगमय जीवन के प्रति उद्वेग-आवेग प्रदर्शित करते,
और जिनका भत्रिप्य भयंकर, शुभ-'भावों का भग्नावशेष मात्र !
भिन्न-भिन्न पात्रों को देख कर भिन्न-भिन्न भाव-भंगिमाओं के साथ यह जो फूल का वमन-नमन परिणमन हुआ, हुआ वनि' - परिवर्तन, उतना ही पर्याप्त हुआ पवन के लिए। हाँ : हां ! अनुक्त भी ज्ञात होता है. अवश्य उद्यमशील व्यक्ति के लिए फिर 'तो'.. संयमशील भक्ति के लिए किसी भी बात की अव्यक्तता
स!! :: मृक मारी
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आकुलित करेगी क्या ? सब कुछ खुलेगा-खिलंगी
उसके सम्मुख विलम्ब ! यूँ प्रासंगिक कार्य ज्ञात होते ही, उसे सानन्द सम्पादित करने पवन कटिवद्ध होता है तुरन्त । कृतज्ञता ज्ञापन कग़ता धरा के प्रति, प्रलय-रूप धारण करता हुआ रोष के साथ कहता है, कि "अरे पथभ्रष्ट बादलो ! बल का सदुपयोग किया करो, छत्ल का न उपभोग किया करो ! छल-दल से हल नहीं निकलने वाला कुछ भी। कुछ भी करो या न करो, मात्र दल का अवसान ही हल है,
और वह भी निकट - सन्निकट !"
मति की गति-सी तीव्र गति से पवन पहुँचता है नभ-मण्डल में, पापोन्मुखों में प्रमुख बादलों को अपनी चपेट में लेता है, घेर लेता है और उनके मुख को फंर देता है
जड़ तत्त्व के स्रोत, सागर की ओर" | फिर, पूरी शक्ति लगा कर उन्हें ढकेल देता हैं..
मूक पाटी :: 261
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दोनों हाथ कुछ ऊपर उठा एक पद धरती पर निश्चल जमाते । एक पद पी.की सारखी । . .. : .................. एड़ी के बल से गेंद को टोकर दे कर बालक ज्यों देखता रह जाता, पवन देखता रह गया।
अब क्या पूछो ! बादल दल के साथ असंख्य ओले सिर के बल जा कर सागर में गिरते हैं एक साथ, पाप-कर्म के वशीभूत हो कर भयंकर दुःखापन्न नरकों में गोलादे लेते शठ-नायक नारक गिरते ज्यों।
इधर कई दिनों के बाद, निराबाध निरभ्र नील-नभ का दर्शन । पवन का हर्षण हुआ उत्साह उल्लास से भरा सार-मण्डल कह उठा, कि। 'धरती की प्रतिष्ठा बनी रहे, और हम सबकी
धरती में निष्ठा धनी रहे, बस।" अणु-अणु कण-कण ये बन-उपवन और पवन भानु की आभा से धुल गये हैं।
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कलियां खुल खिल पड़ीं पवन की हँसियों में, छवियाँ घुल-मिल गई गगन की गलियों में, नयी उमंग, नये रंग
अंग-अंग में नयी तरंग .. नयी ऊो बीमा :
नये उत्सव तो नयी भषा नये लोचन - समालोचन नया सिंचन, नया चिन्तन नयी शरण तो नयी वरण नया भरण तो नयाभरण नये चरण - संचरण नये करण - संस्करण नया राग, नयी पराग नया जाग, नहीं भाग नये हाव तो नयी तृपा नये भाव तो नवी कृपा नवी खशी तो नयी हँसी नयी-नयी ये गरीयसी।
नया मंगल तो नया सूरज नया जंगल तो नबी 'भू-रज नयी मिति तो नयी मति नयी चिति तो नवी यति नयी दशा तो नयी दिशा नहीं मृषा तो नया चशा नयी क्षुधा तो नयी तृषा नयी सुधा तो निरामिण
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नया योग है, नया प्रयोग है नये-नये ये नयोपयोग हैं नयी कला ले हरी लसी ह नयी सम्पदा वरीयसी है नयी पतक में नया पुलक है "नया ललक में नयाँ झलक है नये भवन में नये छुचन हैं नये छुवन में नये स्फुरण हैं।
,
यू. यह नूतन परिवर्तन हुआ तथापि, इसका प्रभाव कहाँ पड़ामौन आसीन शिल्पी के ऊपर, मन्द-मन्द सुगन्ध पवन बह-बड़ कर भी वह अप्रभावक ही रहा। शिल्पी के रोम-रोम वे पुलकित कहाँ हुए ? अपरस को परस बह प्रभावित कब कर सकता? शिल्पी की नासा तक पहुँच कर भी गुलाब की ताजी महक वह उसकी नासा को जगा न सकी भागोपभोग की ये वस्तु
जव भोग-लीन भोक्ता को भी तृप्त नहीं कर पाती हैं फिर तो यहाँ
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योगी को आमन्त्रित करना है मन्त्रित करना है बाहर आने को !
निजी-निजी नीड़ों को छोड़ बाहर आ बन-बहार निहारता पंछी-दल का चहक भी चाह के अभाव में शिल्पी के कणों को सरंग-क्रम से जा टू नहीं सका और शून्य में लीन हो गया वह। यानी, श्रवणीय चहक के ग्राहक
नहीं बने शिल्पी के कर्ण बह। ऐसी विशेष स्थिति में दूरज हो कर भी स्वयं रजविहीन सूरज ही सहस्रों करों को फैला कर सुकोमल किरणांगुलियों से नीरज की बन्द पाँखुरियों-सी शिल्पी की पलकों को सहलाता है।
इस सहलाय में शिल्पी को अनुभूत हुआ माँ की ममता का मृदु-स्नेहिल परस।
आँखें विस्फारित हुई हुआ अपार क्षमता का सदन आलोकधाम दिनकर का दरश। दूर से दरश पा कर भी लोचन हरस से बरसने लगे, और इधर.. भक्ति के धवत्तिम कणों में स्नपित - शान्त होने
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धरती के कण ये तरसने लगे। यूँ, पूरा का पूरा माहोल डूब गया, परसन में, दरशन में, हरसन में और तरसन में :
स्वम्भ अवस्था की ओर लीयते :.::: .. . . .. .. कुम्भकार को देख कुम्भ ने कहा,
परीषह-उपसर्ग के बिना कभी स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि न हुई, न होगी त्रैकालिक सत्य है वह !
गुप्त-साधक की साधना-सी अपक्व-कुम्भ की परिपक्व आस्था पर आश्चर्य हुआ कुम्भकार को, और वह कहता है"आशा नहीं थी मुझे कि अत्यल्प काल में भी इतनी सफलता मिलेगी तुम्हें । कठिन साधना के सम्मुख बड़े-बड़े साधक भी हाँपते, घुटने टेकते हुए
मिले हैं यहाँ ! अब विश्वस्त हो चुका हूँ पूर्णतः मैं, कि पूरी सफलता आगे भी मिलेगी, फिर भी, अभी तुम्हारी यात्रा
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आदिम-याटी को ही पार कर रही है, घाटियों की परिपाटी प्रतीक्षित है अभी ! और "सुनो ! आग की नदी को भी पार करना है तुम्हें, वह भी बिना नौका ! हाँ ! हाँ !! अपने ही बाहुओं से तैर कर, तीर मिलना नहीं विना तेरें।
इस पर कुम्भ कहता है, कि "जल और ज्वलनशील अनल में अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में। निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर वेद से अवेद की ओर बढ़ती है, बढ़ना ही चाहिए अन्यथा, वह यात्रा नाम की है यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।" कुम्भ की ये पंक्तियाँ बहुत ही जानदार असरदार सिद्ध हुईं।
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रखण्ड : चार अग्नि की परीक्षा चाँदी-सी राख
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इधर धरती का दिन दहल उठा, हिल उठा है, अधर धरती के कॅप उटे हैं धृति नाम की वस्तु यह दिखती नहीं कहीं भी।
चाहे ति की हो या ति की, किमी की भी मति काम न करती। धरती की उपरिल उबरता फलवती शक्ति बह जाएगी पता नहीं कहाँ बह जाएगी। प्राय: यही सना रिहान नभचरों सं 'भूचरों को उपहार कम मिला करता है प्रहार मिला करता है प्रभृन । असंचमी संघमी को क्या दगा : विगगी रागी से क्या लेगा :
और सुना ही नहीं, कई बार देखा गया
नियम-संयम के सम्मुख असंयम ही नहीं, धम मा अपन घटन कता दिखा है, हार बीकाना होता है नभवों मुग़मों को :
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.
.
आज, अवलोकन हुआ अवा का सरसरी दृष्टि से, अब। अविलम्ब अवधारित अवधि में। अवा के अन्दर कुम्भ को पहुँचाना है, और अवा को साफ-सुथरा बनाया जा रहा है।
अवा के निचले भाग में बड़ी-बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी गाँठ वाली काली-काली छाल वाली बबूल की लकड़ियाँ एक के ऊपर एक सजाई मासी हैं, और उन्हें सहारा दिया जा रहा है लाल-पीली छाल वाली नीम की लकड़ियों का। शीघ्र आग पकड़ने वाली देवदारु-सी लकड़ियाँ भी बीच-बीच में बिछाई गईं, धीमी-धीमी जलने वाली सचिक्कन इमली की लकड़ियाँ जो अवा के किनारे चारों ओर खड़ी की हैं और अवा के बीचों-बीच
कुम्भ-समूह व्यवस्थित है। सब लकड़ियों की ओर से अवरुद्ध-कण्ठा हो बबूल की लकड़ी अपनी अन्तिम अन्तर्वेदना कुम्भकार को दिखाती है, और
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उसकी शोकाकुल मुद्रा कुछ कहने का साहस करती है, कि “जन्म से ही हमारी प्रकृति कड़ी है हम लकड़ी जो रहीं लगभग धरती को जा छू रही हैं हमारी पाप की पालड़ी, भारी हो पड़ी है।
हमसे बहुत दूर पीछे पुण्य की परिधि किछुड़ी है क्षेत्र की ही नहीं, काल की भी दूरी हो गई है पुण्य और इस पतित जीवन के बीच में.. कभी-कभी हमें बनाई जाती कड़ी से और कड़ी छड़ी अपराधियों की पिटाई के लिए । प्रायः अपराधी-जन बच जाते निरपराध ही पिट जाते,
और उन्हें पीटते-पीटते टूटती हम। इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ? यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है या
मनमाना 'तन्त्र' है ! इस अनर्थ का फल-रस हमें भी मिलता है चखने को,
और यह जो हमें निमित्त बना कर निरपराध कुम्भ को जलाने की साध चली है
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एक और हत्या की कड़ीजुड़ी जा रही, इस जीवन से। अब कड़वी घूट ली नहीं जाती कण्ठ तक भर आई है पीड़ा, अब भीतर अवकाश ही नहीं है, चाहे विष की घूट हो या पीयूष की कुछ समय तक पीयूष का प्रभाव पड़ना भी नहीं है इस जीवन पर ! जो विषाक्त माहौल में रहता हुआ विष-सा बन गया है।
'आशातीत विलम्ब के कारण अन्याय न्याय-सा नहीं न्याय अन्याय सा लगता ही है।'
और यही हुआ
इस युग में इसके साथ। लड़खड़ाती लकड़ी की रसना रुकती-रुकत्ती फिर कहती हैं"निर्बल-जनों को सताने से नहीं, बल-संबल दे बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है।"
इस पर झुब्ध हुए बिना मृदु ममता-मथ मख से मिश्री-मिश्रित मीठे वचन कहना है शिल्पी, कि "नीचे से निर्वल को ऊपर उटाते समय उसके हाथ में पीड़ा हो सकती है, उसमें उठाने वाले का दोष नहीं,
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उठने की शक्ति नहीं होना ही दोष है हाँ, हाँ ! उस पीड़ा में निमित्त पड़ता है. उठाने वाला बस, इस प्रसंग में भी यही बात है। कुम्भ के जीवन को ऊपर उठाना है, और इस कार्य में
और किसी को नहीं, तुम्हें ही निमित्त बनना है।" यू शिल्पी के वचन सुन कर संकोच-लज्जा के मिष अन्तःस्वीकारता प्रकट करती-सीपुरुष के सम्मुख स्त्री-सी
थोड़ी-सी ग्रीवा हिलाती हुई ..:... .. लाड़ी दती है. कि-....
“वात कुछ समझ में आई, कुछ नहीं, फिर भी आपकी उदारता को देख, बात टालने की हिम्मत
''इसमें कहाँ "."और लकड़ी की ओर से स्वीकारता मिली प्रासंगिक शुभ कार्य के लिए :
सो... अबा के मुख पर दवा-दवा कर रवादार राख और मारी ऐसी बिछाई गई, कि वाहरी हवा की आवाज तक अवा के अन्दर जा नहीं सकी अया की उत्तर दिशा में
अब !
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. .:: .
निचले भाग में एक छोटा-सा द्वार है जिस पर य : . . . . . नव वार नवकार-मन्त्र का उच्चारण करता है शाश्वत शुद्ध-तत्त्व को स्मरण में ला कर; और एक छोटी-सी जलती लकड़ी से अग्नि लगा दी गयी अवा में, किन्तु कुछ ही पलों में अग्नि बुझती है। फिर से, तुरन्त अग्नि जलाई जाती
पुनः झट-सी बुझाती वह ! यह जलन-वुझन की क्रिया कई बार चली, तब लकड़ी को पुनः कहता है कुम्भकार सौहार्द पूर्ण भाषा में :
"लगता है, अभी इस शुभ-कार्य में सहयोग की स्वीकृति पूरी नहीं मिली, अन्यथा वह बाधा खड़ी नहीं होती !" इस पर कहती है लकड़ी पुनः सौम्य स्वागत स्वरों में, कि "नहीं नहीं यह बाधा मेरी ओर से नहीं है ! स्वीकार तो"स्वीकार" समर्पण तो"समर्पण
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: . . .
बाहर सो भीतर, भीतर “सो बाहर पण: वचसा.- मनसा एक ही व्यवहार, एक ही बसबहती यहाँ उपयोग की धार !
और सुनो ! यहाँ बाधक-कारण और ही हैं, वह हैं स्वयं अग्नि। मैं तो स्वयं जलना चाहती हूँ
परन्तु,
अग्नि मुझे जलाना नहीं चाहती है इसका कारण वही जाने।"
किन शब्दों में अग्नि से निवेदन करूँ, क्या वह मुझे सन सकेगी ? क्या उस पर पड़ सकेगा इस हृदय का प्रकाश-प्रभाव ? क्या ज्वलन जल बन सकेगा ? इसकी प्यास बुझ सकेगी? कहीं वह मुझ पर कुपित हुई तो? यूँ सोचता हुआ शंकित शिल्पी
एक बार और जलाता है अग्नि । लो, जलती अग्नि कहने लगी : ''मैं इस बात को मानती हूँ कि
अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक किसी को भी मुक्ति मिली नहीं, न ही भविष्य में मिलेगी। जब यह नियम है इस विषय में फिर :
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अग्नि की परीक्षा नहीं होगी क्या ? मेरी परीक्षा कौन लेगा ? ..
अपनी कसौटी पर अपने को कसना बहुत सरल है पर सही-सही निर्णय लेना बहुत कठिन है, क्योंकि 'अपनी आँखों की लाली अपने को नहीं दिखती है।' एक बात और भी है, कि जिसका जीवन औरों के लिए कसौटी बना है वह स्वयं के लिए भी बने, यह कोई नियम नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रायः मिथ्या-निर्णय ले कर ही अपने आपको प्रमाण की कोटि में स्वीकारना होता है"सो
अग्नि के जीवन में सम्भव नहीं है। 'सदाशय और सदाचार के साँचे में ढले जीवन को ही अपनी सही कसौटी समझती हूँ।' फिर कुम्भ को जलाना तो दूर, जलाने का भाव भी मन में लाना अभिशाप -पाप समझती हूँ, शिल्पी जी !
"तव !" उपरिली वार्ता सुनता हुआ भीतर से ही कुम्भ कहता है अग्नि से विनय-अनुनय के साथ कि "शिष्टों पर अनुग्रह करना
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सहज प्राप्त शक्ति का सदुपयोग करना है, धर्म हैं। और,
दुष्टों का निग्रह नहीं करना
शक्ति का दुरुपयोग करना है, अधर्म ! मैं निर्दोष नहीं हूँ.
दोषों का कोष बना हुआ हूँ मुझमें वे दोष भरे हुए हैं ।
जब तक उनका जलना नहीं होगा मैं निर्दोष नहीं हो सकता । तुम्हे बनाने की शक्ति मेरी है कहाँ कह रहा हूँ कि मुझे जलाओ ? मेरे दोषों को जलाओ !
...::
Aa
मेरे दोषों को जलाना ही मुझे जिलाना है
स्व-पर दोषों को जलाना
परम धर्म माना है सुन्तों ने ।
दोष अजीव हैं,
नैमित्तिक हैं,
बाहर से आगत हैं कथंचित् गुप्प जीवगत हैं,
गुष्ण का स्वागत है ।
तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से,
इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुमसे मुझमें जल धारण करने की शक्ति है जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है,
उसकी पूरी अभिव्यक्ति में तुम्हारा सहयोग अनिवार्य हैं।"
पूक माटी : 277
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कुम्भ का आशय विदित हुआ अग्नि को लो, मुख मुदित हुआ कुम्भकार का ! शिल्पी के मुख पर, पूर्ण खुल कर निराशा की रेखा, आशा-विश्वास में पूरी तरह बदल कर आलसी नहीं, निरालसी लसी।
लो, देखते-ही-देखते सुर-सुराती सुलगती गई अग्नि समूचे अवा को अपने चपेट में लेती छोटी-बड़ी सारी लकड़ियों को अपने पेट में समेट लेती ! . . . .. अषाढ़ी घनी गरजती भीतिदा मेघ घटायें-सी कज्जल-काली धूम की गोलियाँ अविकल उगलने लगा अवा। अवा के चारों ओर लगभग तीस-चालीस गज क्षेत्र प्रकाश से शून्य हो गया"सो ऐसा प्रतीत होने लगा, कि तमप्रमा महामही ही कहीं विशुद्धतम तम को ऊपर प्रेषित कर रही हो ! धूमिल-क्षोभिल क्षेत्र से बाहर आ देखा शिल्पी ने, अवा दिखा ही नहीं उसे इतनी भयावह यहाँ की स्थिति है बाहरी
फिर, भीतरी क्या पूछो ! पूरा-का-पूरा अवा धूम से भर उठा तीव्र गति से धूम घूम रहा है अवा में
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प्रलयकालीन चक्रवात-सम,
और कुछ नहीं, मात्र धूम धूम म ........... :: ... ... ... . . :: ...:.:: फलस्वरूप इधर कुम्भकार का माथा घूम रहा कुम्भ की बात मत पूछो !
कुम्भ के मुख में, उदर में आँखों में, कानों में और नाक के छेदों में, धूम ही धूम घुट रहा है आँखों से अश्रु नहीं, असुयानी, प्राण निकलने को हैं; परन्तु बाहर से भीतर घुसने वाला धूम प्राणों को बाहर निकलने नहीं देता, नाक की नाड़ी नहीं-मी रही कुम्भ की धूम्र की तेज गन्ध से। फिर भी ! पूरी शक्ति लगा कर नाक सं परक आयाम के माध्यम ले उदर में धूम को पूर कर कुम्भ ने कुम्भक प्राणायाम किया जो ध्यान की सिद्धि में साधकलम है नासंग योग-तरू का मूल है।
अन्न को नहीं, अग्नि को पचाने की क्षमता । अपनी जठराग्नि में हैं या नहीं
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इस बात का ज्ञान कान हुन कम्भ न तुम का 'माण प्रारम्भ किया। धूम्र-भक्षण के काल में कुम्भ की रखना ने असाच का अनुभव नहीं किया सो. धूप का वमन नहीं हुआ। वमन का कारण और कुछ नहीं, आन्तरिक अचि मात्र। इससे यही ज्ञात होता है कि विषया आर कषाया का जमत नहा हाना..ह ............... ... ........ .. उनके प्रति मन में अधिरुचि का होना हैं।
शनैः शनैः अब ! धूम का उटना बन्द हुआ निधुम-अग्नि का आलोक अवा के लोक में अवलोकित होने लगा। तप्त-स्वर्ण की अरणिम-आभा भी अवा की आन्तरिक आभा-छवि से प्रभावित हुईआज के दिन इस समय शत-प्रतिशत
अग्नि की उष्णता उद्घाटित हुई है। अनल के परल पा कर कम्भ की काया-कान्ति जल उठी
और
वह कलान्ति में इयती जा रही हैं जब कि उसकी आत्मा उज्ज्वल होती हुई सहज-शान्ति में इवन को लगभग
280 :: मूक माटो
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कुम्भ की स्पर्शा ने परस है.
यह
कुम्भ ने कहा- विशुद्ध परस हैं
इसका अनुभव
बिना जले तपे सम्भव नहीं है ।
कुम्भ को
पूछा कि
इसी सन्दर्भ में कुम्भ की रसना ने भी इस बात की घोषणा कर दी, कि 'अग्नि में रस - गुण का अभाव है' यह जिन धीमानों की धारणा है। अनुभव और अनुमान से बाधित है जब धूम का रसास्वादन हो सकता है
I
तब
अग्नि का स्वाद रसना को क्यों न आएगा ? हाँ! हाँ !!
रसनेन्द्रिय के वशीभूत हुआ व्यक्ति कभी भी किसी भी वस्तु के सही स्वाद से परिचित नहीं हो सकता, भात में दूध मिलाने पर
-
निरा-निश दूध भात का नहीं, मिश्रित स्वाद ही आता है,
फिर मिश्री मिलाने पर "तो
तीनों का ही सही स्वाद लुट जाता है !
रस का स्वाद उसी रसना को आता है जो जीने की इच्छा से ही नहीं,
मृत्यु की भीति से भी ऊपर उठी है
I
धूम्र घुटन से मूर्च्छिता हुई
कुम्भ की पतली नासा वह, घुटन के अभाव में अब रसना की घोषणा का समर्थन करती-सी
मूक पाटी :: 281
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अग्नि की शुद्ध-सुरिभ को सूँघने हेतु उतावली करती है।
थे
कुम्भ के लोचन बन्द-से हुए धूम के कारण अन्ध-से हुए थे अब वह खुल गये हैं, शुद्ध अग्नि की आभा - चन्दन से जामता के हटने छँटने से ..... अरुण अरविन्द बन्धु के उदय से कमल से खिल गये हैं।
कुम्भ की पहली दृष्टि पड़ी निर्विकार - निर्धूम अग्नि पर । दूसरी दृष्टि के लिए
दूसरा दृश्य ही नहीं मिला
द्रष्टा ने दृष्टि को सब ओर दौड़ा दिया एक ही दृश्य मिला, चारों ओर फैला अग्नि अग्नि अग्नि!
282 : पूक पाटी
भाँति-भाँति की लकड़ियाँ सब पूर्व की भाँति कहाँ रहीं अब ! सबने अग्नि को आत्मसात् कर ली ...पी डाली उसे बस !
या, इसे यूँ कहूँ-
अग्नि को जन्म दे कर अग्नि में लीन हुई वह
प्रति वस्तु उन्हीं भावों से मिटती भी वह,
जिन भावों को जन्म देती है
वहीं समाहित होती है । यह भावों का मिलन-मिटन
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सहज स्वाश्रित है
और
अनादि अनिधन !
विकासोन्मुखी अपनी अनुभूति चित्त की प्रसन्नता प्रशस्तता बताने उद्यमशील कुम्भ को देख, अग्नि स्वयं अपनी अति के विषय में कुछ-कुछ सकुचाती-सी कहती है, कि "अभी मेरी गति में अति नहीं आई है।
और सुनो ! अति की इति को छूना बहुत दूर ""अभी वह बहुत दूर है !
है
मेरा जलाना शीतल जल की "याद दिलाता है,
मेरा जलाना कटु-काजल का "स्वाद दिलाता है
यह नियम है कि,
प्रथम चरण में ग़म - श्रम
"निर्मम होता है,
मेरा जलाना जन-जन को जल
बाद पिलाता है
एतदर्थ "क्षमा धरना" "क्षमा करनाधर्म है साधक का
धर्म में रमा करना"!"
इन पंक्तियों को सुन कर कुम्भ के वल को साहस मिला, उत्साह के पदों में आई चेतना, और वह कम उता कि
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मनवांछित फल मिलना ही उद्यम की सीमा मानी है:इस सूक्ति को स्मृति में रखता हूँ । यही कारण हैं कि,
पथ में विश्राम करना
यह पथिक नहीं जानता ।
प्रभु से निवेदन- फिर से अपूर्व शक्ति की मांग !
भुक्ति की ही नहीं, मुक्ति की भी
चाह नहीं हैं इस घट में
वाह वाह की परवाह नहीं है
प्रशंसा के क्षण में ।
दाह के प्रवाह में अवगाह करूँ
परन्तु, आह की तरंग भी
कभी नहीं उठे
इस घट में संकट में।
इसके अंग-अंग में
रग-रग में
विश्व का तामस आ भर जाय
कोई चिन्ता नहीं,
किन्तु, विलोम भाव से
यानी
तामस सम`ता'!
284 : मूकमाटी
हे स्वामिन्, और सुनी व्यक्तित्व की सत्ता से पूरी तरह कब गया है यह
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और कर्तव्य की सत्ता में पूरी तरह टूव गया है, अव मौन मुस्कान पर्याप्त नहीं, आपके मुदित मुख से
बस,
बचना चाहता है, प्रभो ! परिणाम-परिधि से अभिराम-अवधि से अब यह बचना चाहता है, प्रभो ! रूप - सरस से गन्ध परस से रहित परे अपनी रचना चाहता है, विभो ! संग-रहित हो जंग-रहित हो शुद्ध लोहा अब ध्यान-दाह में बस पचना चाहता है, प्रभा !"
प्रभु की प्रार्थना, कुम्भ की तन्मयता ध्यान-दाह की बात, ज्ञान-राह की बात सुन कर, अग्नि बोलती हैं बीच में : 'युगों-युगों की स्मृति है, बहुतों से परिचित हूँ, साधु-सन्तों की संगति की है !
मूक माटी :: 285
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ध्यान की बात करना आर ध्यान से बात करना इस दानों में बहत अनार है. ध्यान के केन्द्र खोलने मात्र से ध्यान में केन्द्रित होना सम्भव नहीं है। लो, ध्यान के सन्दर्भ में आधुनिक चित्रण ! कार पंक्तियां प्रस्तुत हैं :
इस युग के दो मानव अपने आपको खाना चाहते हैं.. पक भाग गग को माय-पान को
ओर एक योग-त्याग को आत्म ध्यान को धुनता है। कुछ ही क्षणों में दोनों होते विकल्पों से मुक्त। फिर क्या कहना ! पाक शव के समान निरा पड़ा है,
और IE शिव के सपान तुग उतग है।
:: :. गृह, माटी
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प्रखर चिन्तकों दार्शनिकों तत्त्व- विदों से भी ऐसी अनुभूतिपरक पंक्तियाँ प्रायः नहीं मिलतीं जो आज अग्नि से सुनने मिलीं।
यूँ सोचता हुआ कुम्भ दर्शन की अबाधता
और
अध्यात्म की अगाधता पाने अग्नि से निवेदन करता है पुनः क्या दर्शन और अध्यात्म
एक जीवन के दो पद हैं ? क्या इनमें पूज्य पूजक भाव है ? यदि "हो" "तो"
पूजता कौन और पुजता कौन ? क्या इनमें
कार्यकारण भाव है ?
यदि "हो"तो"
कार्य कौन और कारण कौन ? इनमें
बोलता कौन है और मौन कौन ? ध्यान की सुगन्धि किससे फूटती है ? उसे कौन सूँघता है
अपनी चातुरी नासा से ? मुक्ति किससे मिलती हैं ? तृप्ति किससे मिलती हैं ?
बस, इन दोनों की मीमांसा सुनने मिले इस युग की !
मूकमाटी 257
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इस पर अग्नि की देशना प्रारम्भ होती है : सो 'सुनो तुम : दर्शन का स्रोत मस्तक है, स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है।
दर्शन के बिना अध्यात्म-जीवन -::: .. :: ..., .
लताड़ी है पर, हाँ ! बिना अध्यात्म, दर्शन का दर्शन नहीं। लहरों के विना सरवर वह रह सकता है, रहता ही हैं पर हाँ ! बिना सरवर लहर नहीं। अध्यात्म स्वाधीन नयन है दर्शन पराधीन उपनयन दर्शन में दर्श नहीं शुद्धतत्त्व का दर्शन के आस-पास ही घूमती है तथता और वितथता वह यानी, कभी सत्य-रूप कभी असत्य-रूप दर्शन, होता है जबकि अध्यात्म सदा सन्य चिद्रूप ही
भास्वत होता है। स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है। अनेक संकल्प-विकल्पों में व्यस्त जीवन दर्शन का होता है। बहिर्मुखी या बहुमुखी प्रतिभा ही दर्शन का पान करती है, अन्तर्मुखी, बन्दमुखी चिदाभा निरंजन का गान करती है।
PK :: मूक माटो
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दर्शन का आयुध शब्द हैं-विचार, अध्यात्म निरायुध होता है सर्वथा स्तब्ध निर्विचार ! एक ज्ञान हैं, ज्ञेय भी एक ध्यान है, ध्येय भी ।
तैरने वाला तैरता है सरवर में भीतरी नहीं,
बाहरी दृश्य ही दिखते हैं उसे । वहीं पर दूसरा डुबकी लगाता है, सरवर का भीतरी भाग
भासित होता है उसे, बहिर्जगत् का सम्बन्ध टूट जाता है।
-
अहा हा ! हा !! वाह ! वाह !! कितनी गहरी डूब है यह दर्शन और अध्यात्म की मीमांसा ! और
कुम्भ से मिलता है साधुवाद, अग्नि को ।
फिर क्या हुआ, सो "सुनो ! साधुवाद स्वीकारली-सी
अग्नि और धधक उठी। बाहर भले ही चलता हो मीठी-मीठी शीतलता ले ऊषा कालीन वात वो,
पर,
उसका कोई प्रभाव नहीं अवा पर !
तापमान का अनुपात बढ़ता ही जा रहा है दिन में और रात में,
प्रताप में, प्रभात में
कुछ अन्तर ही नहीं रहा ।
मूकमाटी 289
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रुक-रुक कर रुख बदलता काल इन दिनों कहाँ मिलता है ? अवा में काल का विभाजन रुक ही गया है अक्षण्ण-अखण्ड काल का प्रवाह है, बस !
इसी प्रसंग को ले कर यकायक अवा में कोई स्वैरविहारिणी हाँ-में-हाँ मिलाती ध्वनि की धुन
अरे राही, सुन ! यह एक नदी का प्रवाह रहा हैकाल का प्रवाह, बस बह रहा है।
बहता-बहता कह रहा हैं, कि "जीच या अजीव का यह जीवन पल-पल इसी प्रवाह में बह रहा बहता जा रहा है, यहाँ पर कोई भी स्थिर-धुव-चिर न रहा, न रहेगा, न या बहाव बहना ही ध्रुव रह रहा है, सत्ता का यही, बस
290 :: मूक माटी
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रहस रहा, जो विहँस रहा है ।"
अरी, इधर यह क्या ?
आकस्मिक यातना की घरी!
याचना की ध्वनि
किधर से आ रही है
किसकी है:
किस कारण से,
किसकी गवेषणा को निकली है ?
नर की है, या नारी की, बालक की है या बालिका की ? किसी पुरुष की तो नहीं है निश्चित, कारण कि अनुपात से
पर्याप्त पतली लग रही है कानों को । आखिर इसका क्या आशय हैं ?
इसकी स्पष्टता प्रकटता
अब विदित हुई, तो "
-
ओ धरती माँ !
सन्तान के प्रति हृदय में दया धरती क्या शिशु की आर्त आवाज
कानों तक नहीं आ रही मंजिल का मिलना तो दूर,
मार्ग में जल का भी कोई ठिकाना नहीं !
फल-फूल की कथा क्या कहूँ, यहां तो "
छाया की भी दरिद्रता पलती है
मूकमाटी 201
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मृत्यु के मुख में पत ढकेलो मुझे ! आगामी आलोक की आशा दे कर आगत में अन्धकार मत फैलाओ ! अब वह उष्णता सही नहीं जाती, सहिष्णुता की कमी क्रमशः इसमें आती जा रही है। इस जीवन को मत जलाओ शीतल जल ला पिलाओ इसे !
चाहो इसे जिलाओ, माँ !" जब धरती माँ की ओर से आश्वासन-आशीर्वचन भी नहीं मिले तब कुम्भ ने कुम्भकार को स्मरण में ला, कहा"क्या त्राण के सब-के-सब धाम कहीं प्रयाण कर गये । कुम्भ के कारक और पालक हो कर आप भी भूल गये इसे ? अब ये प्राण जल-पान बिन सम्मान नहीं कर पाएंगे किसी का।
वानी,
इनका प्रयाण निश्चित है, ये अग्नि-परीक्षा नहीं दे सकते अब, कोई प्रतिज्ञा छोटी-सी भी मेरु-सी लग रही हैं इन्हें, आस्था अस्त-व्यस्त-सी हो गई, भावी जीवन के प्रति उत्सुकता नहीं-सी रही ।
अफसोस है, कि अब सोच रहा हूँ
292 :: मुक माटी
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:
अपनी प्यास बुझाये बिना औरों को जल पिलाने का संकल्प मात्र कल्पना है,
माय अल्पना है।' : . . . . . . . . . :: लगभग रुदन की ओर मुड़ी कुम्भ की याचना सुन कर उसकी गम्भीर स्थिति पर, उस उर की पीर की अति पर, सोच रहा है उदार-उन्नत उर व्यथित हुआ कुम्भकार का भी।
और,
कुम्भ में धैर्य के प्राण फूंकने उसकी क्षुधा-तृषा के वारण हेतु कुछ भोजन-पान ले कर अवा की ओर उद्यत हुआ, कि कुम्भकार की गहरी निद्रा टूट गई,
और वह स्वप्न की मुद्रा छूट गई !
वैसे, जब चाहे मनचाहे स्वप्न कहाँ दिखते हैं ! तभी तो "प्रथम, स्वप्निल दशा पर शिल्पी को हँसी आई, फिर, उसकी आँखें गम्भीर होती गईं।
मूक मादी । ५१
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जिन आँखों में
अतीत का ओझल जीवन ही नहीं, आगत जीवन भी स्वप्निल - सा धुंधला-धुंधला-सा तैरने लगा,
.. और 47, 1 उदयन
सर
भावी, सम्भावित शकिल-सा
कुल मिला कर सब कुछ धूमिल - धूमिल - सा बोझिल - सा झलकने लगा ।
सन्ध्या - वन्दन से निवृत्त हो कुम्भकार ने बाहर आ देखाप्रभात - कालीन सुनहली धूप दिखी धरती के गालों पर
जो ठहर न पा रही हैं;
ऊषा काल से पूर्व प्रत्यूष से ही उसका उर उतावला हो उठा है
आज अबा का अवलोकन
करना है उसे !
कुम्भ ने अग्नि परीक्षा दी
और
अग्नि की अग्नि परीक्षा ली, शत-प्रतिशत फल की आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है, फिर भी मन को धीरज कहाँ
29 मूकमाटी
और कब ? विपरीत स्वप्न जो दिखा..! अपनी ओर बढ़ते शिल्पी के चरण देख कुम्भ की ओर से स्वयं अवा ने कहा : हे शिल्पी महोदय !
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.
प्रायः स्वप्न प्रायः निष्फल ही होते हैं इन पर अधिक विश्वास हानिकारक है।
'स्व' यानी अपना नमानी प रा :.:.:: .. .. . .. :
और 'न' यानी नहीं, जो निजी-भाव का रक्षण नहीं कर सकता वह औरों को क्या सहयोग देगा ? अतीत से जुड़ा मीत से मुड़ा बह उलझनों में उलझा मन ही स्वप्न माना जाता है। जागृति के सूत्र छूटते हैं स्वप्न-दशा में आत्म-साक्षात्कार सम्भव नहीं तब,
सिद्ध-मन्त्र भी मृतक वनता है।" यँ, अवा की आवाज सुनता-सुनता अब वो शिल्पी अवा के और निकट आ गया
पर,
कहाँ सुनी जा रही है कुम्भ की चीख ?" कहाँ माँगी जा रही है कुम्भकार से भीख ?
न ही कुम्भ की यातना न ही कुम्भ की याचना मात्र"वह वहाँ तब ! कहाँ हैं प्यास से पीड़ित-प्राण ? वह शोक कहाँ वह रुदन कहाँ
भक मादी :: 21
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वह रोग कहाँ वह बदन कहाँ और वह आग का सदन कहाँ ?
इन कानों ने, आँखों ने
और हाथों ने सुने, देखे, हुए थे स्वप्न में ? अक्षरशः स्वप्न असत्य निकला, स्वप्न का घातक फल टला।।
'कुम्भ की कुशलता सो अपनी कुशलता' यूँ कहता हुआ कुम्भकार सोल्लास स्वागत करता है अवा का, और रेतिल राख की राशि को, जो अवा की छाती पर थी हाथों में फावड़ा ले, हटाता है। ज्यों-ज्यों राख हटती जाती, त्यों-त्यों कुम्भकार का कुतुहल बढ़ता जाता है, कि
कब दिखे वह कुशल कुम्भ लो, अब दिखा ! राख का रंग कुम्भ का अंग दोनों एक - दोनों संग । सही पहचान नहीं पाती आँखें ये अनल से जल-जल कर काली रात-सी कुम्भ की काया बनी है।
15 :: मुक माटी
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प्रकृष्ट कष्ट का अनुभव हुआ उत्कृष्ट अनिष्ट का आना हुआ काल के गाल में जा कर भी बाल-बाल बच कर आया कुम्भ । कुम्भ की काया को देखने से दु : ख-पीड़ा का, रव-रव का, परीक्षा-फल को देखने से सुख-क्रीड़ा का, गौरव का और धारावाहिक तत्व को देखने से ..... न विस्मय का, न स्मय का कुम्भकार ने अनुभव किया।
परन्तु,
काल की तुला पर वस्तु को तौलने से जो परिणाम निकलता है यह भी पूर्णतः झलक आया
उसके मानस-तल पर ! पावन व्यक्तित्व का भविष्य बह पावन ही रहेगा। परन्तु, पावन का अतीत-इतिहास वह इतिहास ही रहेगा अपावन अपावन''अपावन ।
आज अवा से बाहर आया है
सकुशल कुम्भ। कृष्ण की काया-सी नीलिमा फूट रही है उससे,
मृक माटी :: 297
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E
ऐसा प्रतीत हो रहा भीतरी दोष समूह सब
जल-जल कर
बाहर आ गये हों,
जीवन में पाप को प्रश्रय नहीं अब,
कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है मुक्तात्मा सी तैरता - तैरता पा लिया हो
298 मूकमाटी
पापी वह
प्यासे प्राणी को
पानी पिलाता भी कब ?
अपार भव-सागर का पार ।
जली हुई काया की ओर कुम्भ का उपयोग कहाँ ? संवेदन जो चल रहा है भीतर !
भ्रमर वह
अप्रसन्न कब मिलता है ? उसकी भी तो काया काली होती है, सुधा सेवन जो चल रहा है सदा !
वह किं
काया में रहने मात्र से काया की अनुभूति नहीं, माया में रहने मात्र से
सावधान हो शिल्पी अवा से एक-एक कर क्रमशः
माया की प्रसूति नहीं, उनके प्रति
तगाव-चाव भी अनिवार्य है।
O
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कर पर ले, फिर धरती पर रखता जा रहा कुम्भों को। धरती की थी, है, रहेगी माटी यह। किन्तु पहले धरती की गोद में थी आज धरती की छाती पर है कुम्भ के परिवेश में। बहिरंग हो या अन्तरंग कुम्भ के अंग-अंग से संगीत की तरंग निकल रही है, और भूमण्डल और नभमण्डल ये उस गीत में तैर रहे हैं।
लो, कुम्भ को अवा से बाहर निकले दो-तीन दिन भी व्यतीत ना हुए उसके मन में शुभ-भाव का उमड़न बता रहा है सबको कि, अब ना पतन, उत्पतन" उत्तरोत्तर उन्नयन-उन्नयन नूतन भविष्य-शस्य भाग्य का उघड़न !
बस,
अब दुर्लभ नहीं कुछ भी इसे
सब कुछ सम्मुख समक्ष ! भक्त का भाव अपनी ओर भगवान को भी खींच ले आता है, वह भाव है
मूक मादी :: 25
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पात्र-दान अतिथि-सत्कार। परन्तु, पात्र हो पूत-पवित्र पद-यात्री हो, पाणिपात्री हो पीयूप-पायी हंस-परमहंस हो, अपने प्रति बज्र-सम कठोर पर के प्रति नवनीत''
"मुदु और पर की पीड़ा को अपनी पीड़ा का प्रभु की ईडा में अपनी क्रीड़ा का संवेदन करता हो। पाप-प्रपंच से मुक्त, पूरी तरह पवन-सम निःसंग परतन्त्र-भीरु, दर्पण-सम दर्प से परीत हरा-भरा फूला-फला पादप-सम विनीत। नदी-प्रवाह-सम लक्ष्य की ओर अरुक, अथक गतिमान।
मानापमान समान जिन्हें, योग में निश्चल मेरु-सम, उपयोग में निश्छल धेनु-सम, लोकैषणा से परे हों मात्र शुद्ध-तत्त्व की गवेषणा में परे हों; छिद्रान्वेषी नहीं गुणग्राही हों, प्रतिकूल शत्रुओं पर
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कभी बरसते नहीं, अनुकूल मित्रों पर कभी हरसते नहीं,
ख्याति-कीर्ति-लाभ पर
कभी तरसते नहीं। कर नहीं, सिंह-सम निर्भीक किसी से कुछ भी माँग नहीं भीख, प्रभाकर-सम परोपकारी हो प्रतिफल की और कभी भूल कर भी ना निहारें, निद्राजयी, इन्द्रिय-विजयी जलाशय-सम सदाशयी मिताहारी, हित-मित-भाषी चिन्मय-मणि के हों अभिलाषी; निज-दोषों के प्रक्षालन हेतु आत्म-निन्दक हों पर निन्दा करना तो दूर पर-निन्दा सुनने को भी जिनके कान उत्सुक नहीं होते
''कहीं हों बहरे ! यशस्वी, मनस्वी और तपस्वी
हो कर भी, अपनी प्रशंसा के प्रसंग में जिनकी रसना गूंगी बनती है।
सागर - सरिता - सरवर - तर पर जिनकी शीत-कालीन रजनी कटती, फिर
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करते गिरि पर ग्रीष्म-दिन
दिनकर की अदीन छांव में। यूँ ! कम्भ ने भावना भाई सो, “भावना भव-नाशिनी' यह सन्तों की सूक्ति चरितार्थ होनी ही थी, सो हुई।
लो, इधर यह नगर के महासेठ ने सपना देखा, कि स्वयं ने अपने ही प्रांगण में भिक्षार्थी-महासन्त का स्वागत किया हाथों में माटी का मंगल कुम्भ ले। निद्रा से उठा, ऊषा में, अपने आप को धन्य माना और धन्यवाद दिया सपने को, स्वप्न की वात परिवार को बता दी। कुम्भकार के पास कुम्भ लाने प्रेषित किया गया एक सेवक, स्वामी की बात सुना दी सेवक ने,
सुन, हर्षित हो शिल्पी ने कहा : "दम साधक हुआ हमारा श्रम सार्थक हुआ हमारा
और हम सार्थक हुए।"
कुम्भकार की प्रसन्नता पर सेवक आर प्रसन्न हुआ,
2 :: पृक माटी
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एक हाथ में कुम्भ ले कर,... एक हाथ में लिय कंकर से कुम्भ को बजा-बजा कर जब देखने लगा बह'' कुम्भ ने कहा विस्मय के स्वर में"क्या अग्नि-परीक्षा के बाद भी कोई परीक्षा-परख शेष है, अभी ? करो, करो परीक्षा ! पर को परख रहे हो अपने को तो परखो जरा ! परीक्षा लो अपनी अब ! बजा-बजा कर देख लो स्वयं को, कौन-सा स्वर उभरता है वहाँ सुनो उसे अपने कानों से ! काक का प्रलाप हैं,
क्या गधे का पंचम आलाप ? परीक्षक बनने से पूर्व परीक्षा में पास होना अनिवार्य है, अन्यथा उपहास का पात्र बनेगा वह।" इस पर सेवक ने कहा शालीनता से - "यह सच है कि तुमने अग्नि-परीक्षा दी है,
परन्तु
अग्नि ने जो परीक्षा ली है तुम्हारी वह कहाँ तक सही है, यह निर्णय तुम्हारी परीक्षा के बिना सम्भव नहीं है। बानी,
मूक माटी :: 30५
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तुम्हें निमित्त बना कर अग्नि की अग्नि-परीक्षा ले रहा हूँ।
दूसरी बात यह है कि मैं एक स्वामी का सेवक ही नहीं हूँ वरन् जीवन-सहायक कुछ वस्तुओं का
स्वामी हूँ, सेवन-कर्ता भी। वस्तुओं के व्यवसाय, लेन-देन मात्र से उनकी सही-सही परख नहीं होती अर्थोन्मुखी दृष्टि होने से जब कि ग्राहक की दृष्टि में वस्तु का मूल्य वस्तु की उपयोगिता है। वह उपयोगिता ही भोक्ता पुरुष को कुछ क्षण सुख में रमण कराती है।" सो, यह ग्राहक बन कर आया है और कुम्भ को हाथ में ले कर सात बार बजाता है, सेवक। प्रथम बार कुम्भ से 'सा' स्वर उभर आया ऊपर फिर, क्रमशः लगातार रेगमपध'"नि निकल कर नीराग नियति का उद्घाटन किया अविनश्वर स्वर-सम। कुल मिला कर भाव बह निकला -.
304 :: मृक माटी
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सारे ग"म यानी सभी प्रकार- दुःख प'ध यानी पद-स्वभाव
और नि बानी नहीं, दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्माका विभाव-परिणमन मात्र हैं वह ।
नैमित्तिक परिणाम कचित पराये हैं। इन सप्त-स्वरों का भाव समझना ही सही संगीत में खोना है
सही संगी को पाना है। ऐसी अद्भुत शक्ति कुम्भ में कहाँ से आई, यूं सोचतं सेवक को उत्तर मिलता है कुम्भ की ओर से
कि "यह सब शिल्पी का शिल्प है, अनल्प श्रम, दृढ़ संकल्प सत-साधना-संस्कार का फल । और सुनी, यह जो मेरा शरीर घनश्याम-सा श्याम पड़ गया है सो"जला नहीं। जिस भांति वाय-कला-कुशल शिल्पी । मृदंग-मुख पर स्याही लगाता है उसी भांति शिल्पी ने मेरे अंग-अंग पर, स्याही लगा दी हैं, जो भांति-भाँति के बोल
पूक मारी :: 2015
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खोल देते हैं
प्रकृति और पुरुष के भेद,
हाथ की गदिया और मध्यमा का संघर्ष
स्पर्श पाकर
धा धिन् धिन्धा"
...
था "धिन् धिन् "धा" वेतन- भिन्ना चेतन-भिन्ना, ता" तिन तिन ता
ता तिन तिन ता'''
का तन "चिन्ता, का तन चिन्ता ? यूँ घूँ यूँ !
ग्राहक के रूप में आया सेवक
चमत्कृत हुआ वह
मन-मन्त्रित हुआ उसका
तन तन्त्रित स्तम्भित हुआ
कुम्भ की आकृति पर
और
शिल्पी के शिल्पन चमत्कार पर। यदि मिलन हो
चेतन चित् चमत्कार का
फिर कहना ही क्या !
चित् की चिन्ता, चीत्कार चन्द पलों में चौपट हो चली जाती कहीं बाहर नहीं,
300 मूत्र माटी
सरवर की लहर सरवर में ही समाती है।
I
कुम्भ का परीक्षण हुआ निरीक्षण हुआ, फिर
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तवक चुन लेता है कुम्भ एक-दो लघु, एक-दो गुरु
और
शिल्पी के हाथ में
मूल्य के रूप में
समुचित धन देने का प्रयास हुआ
कि
कुम्भकार बोल पड़ा
"आज दान का दिन है आदान-प्रदान लेन-देन का नहीं, समस्त दुर्दिनों का निवारक है यह प्रशस्त दिनों का प्रवेश द्वार !
सीप का नहीं, मोती का दीप का नहीं, ज्योति का सम्मान करना हैं अब ! चेतन भूल कर तन में फूले धर्म को दूर कर, धन में झूले सीमातीत काल व्यतीत हुआ इसी मायाजाल में,
अब केवल अविनश्वर तत्त्व को समीप करना है,
समाहित करना है अपने में, बस !
वैसे. स्वर्ण का मूल्य है रजत का मूल्य है
कण हो या मन हो
प्रति-पदार्थ का मूल्य होता ही है,
परन्तु,
धन का अपने आप में मूल्य
पृक माटी 07
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कुछ भी नहीं है। मूलभृत। पहायं ही मूल्यवान होता है। धन कोई मत भूत वरन् है ही नहीं धन का जीवन पराश्रित है पर कं लिए है, कानिक : हाँ : हो !! धन से अन्य चम्तुओं का मूल्य ऑका जा सकता हैं वह भी आवश्यकतानुसार, कभी अधिक कभी हीन और कभी औपचारिक और यह सब निकों पर आधारित है। धनिक और निर्धन - ये दोनों वस्तु के सही-सही मूल्य को स्वप्न में भी नहीं आँक सकते, कारण, धन हीन दीन-हीन होता है प्रायः और निक वह विषयान्ध, मदाधीन !!
उपहार के रूप में भी राशि स्वीकृत नहीं हुई तब, संयक ने शिल्पी को सादर धन के वदल में धन्यवाद दिया
और
चल दिवा घर, कुम्भ ली सानन्द !
30 :: म
मा
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आसन से उतर कर सोल्लास सेठ ने भी हँसमुख सेवक के हाथ से अपने हाथ में ले लिया कुम्भ. और
ताजे शीतल जल से धोता हैं कुम्भ को स्वयं !
फिर, बायें हाथ में कुम्भ ले कर, दायें हाथ की अनामिका से
चारों ओर कुम्भ पर
मलयाचल के चारु चन्दन से
स्वयं का प्रतीक, स्वस्तिक अंकित करता है
'स्व' की उपलब्धि हो सबको
इस एक भावना से ।
और
प्रति स्वस्तिक की चारों पांखुरियों में कश्मीर- केसर मिश्रित चन्दन से
चार-चार विन्दियाँ लगा दीं जो बला रहीं संसार को, कि
I
संसार की चारों गतियाँ सुख से शून्य हैं इसी भाँति,
प्रत्येक स्वस्तिक के मस्तक पर
चन्द्र-बिन्दु समेत, ओंकार लिखा गया योग एवं उपयोग की स्थिरता हेतु । योगियों का ध्यान
प्रायः इसी पर टिकता है।
हलदी की दो पतती रेखाओं से कुम्भ का कण्ठ शोभित हुआ, जिन रेखाओं के बीच
भूकमाटी र
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कंकम का पुट देखते ही बनता है ! हनदी कुंकम केसर चन्दन ने अपनी महक से माहौल को मुग्ध-मूदित किया।
मृदुल-मंजुल-समता-समूह हरित हँसी लेमोजदान-प: - चार-पाँच पान खाने के कुम्भ के मुख पर रखे गये। खुली कमल की पॉखुरी-सम जिनके मुखाग्न बाहर दिख रहे हैं
और उनके बीच में उन्हें सहलाने एक श्रीफल रखा गया जिस पर हलदी-कुंकम छिड़के गये। इस अवसर पर श्रीफल ने कहा पत्रों को, कि "हमारा तन कठोर है तुम्हारा मृदु, और
यह काठिन्य तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा। आज तक इस तन को मृदुता ही रुचती आई.
तब संसार-पथ था यह पथ उससे विपरीत है ना ! यहाँ पर आत्मा की जीत है ना ! इस पथ का सम्बन्ध नन से नहीं है, तन गौण, चेतन काम्य हैं
।। :: भृन्क माटी
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मृदु और कषि साम्य है, यहाँ ....... ... ... . . .
और यह हृदय हमारा कितना कोमल हैं, इतना कोमल है क्या तुम्हारा यह उपरिल तन ?
बस हमारे भीतर जरा झाँको, मृदुता और काटिन्य की सही पहचान तन को नहीं, हृदय को छू कर होती है।" श्रीफल की सारी जटाएँ हटा दी गई सर पर एक चोटी-भर तनी है जिस चोटी में महकता
खिला-खुला गुलाब फंसाया गया है। प्रायः सबकी चोटियाँ अधोमुखी हुआ करती हैं, परन्तु श्रीफल की ऊर्ध्वमुखी है। हो सकता है इसीलिए श्रीफल के दान को मुक्ति-फल-प्रद कहा हो।
'निर्विकार पुरुष का जाप करो' यूं कहती-सी आर-पार प्रदर्शन-शीला शुद्ध स्फटिकमणि की माला
कुम्भ के गले में डाली गई हैं। अतिथि की प्रतीक्षा में निरत-सा यू, सजाया हुआ
पृक पाटी :: :11
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मांगलिक कुम्भ. रखा गया। अप्ट पहलूदार चन्दन की चौकी पर ।
प्रतिदिन की भाति प्रभु की पूजा को सेठ जाता है, पुण्य के परिपाक से धर्म के प्रसाद से, जो मिला महाप्रासाद के पंचम-खण्ड पर जहाँ चैत्यालय स्थापित है, रजत-सिंहासन पर रजविरहित प्रभु की रजतप्रतिमा
अपराजिता विराजिता है। सर्व-प्रथम परम श्रद्धा से वन्दना हुई प्रभु की, फिर अभिषेक किया गया प्रभु का; स्वयं निर्मल निमलता का कारण गन्धोदक सर पर लगा लिया सेट ने सादर"सानन्द।
फिर, जल से हाथ धो कर प्रतिमा का प्रक्षालन किया विशुद्ध-शुभ्र वस्त्र से, पाप-पाखण्डों से परिग्रह-खण्डों से मुक्त असंपृक्त त्यागी वीतरागी की पूजा की अष्टमंगल द्रव्य ले भाव-भक्ति से चाव-शक्ति से सांसारिक किसी प्रलोभनवश नहीं,
2 :: पूक माटी
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प्रयोजन बस, बन्धन से मुक्ति ! भवसागर का कूल'"किनारा।
अब तक प्रांगण में चौक पूरा गया खेल खेलती बालिकाओं द्वारा। लगभग समय निकट आ चुका है अतिथि की चर्चा का
दाताओं के बीच !
नगर के प्रति मार्ग की बात है आमने-सामने अड़ोस-पड़ोस में अपने-अपने प्रांगण में सुदूर तक दाताओं की पंक्ति खड़ी है पात्र की प्रतीक्षा में डूबी हुई हैं। प्रति प्रांगण में प्रति दाता प्रायः अपनी धर्मपत्नी के साथ खड़ा है। सबको भावना एक ही है प्रभु से प्रार्थना एक ही है,
कि अतिथि का आहार निर्विघ्न हो और वह
हमारे यहाँ हो बस ! लो, पूजन-कार्य से निवृत्त हो नीचे आया सेठ प्रांगण में
और वह भी माटी का मंगल-कुम्भ ले खड़ा हो गया।
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कोई अपने करों में रजत-कलश ले खड़ है, कोई युगल करों को कलश बना कर खड़े हैं,
कोई ताम्र-कलश लें कोई आम्र-फल ले कोई पीतल-कलश ले कोई सीताफल ले कोई रामफल ले
कोई जामफल ले ::ोई कलाकार काले... "... ::::
कोई सर पर कलश ले कोई अकेला कर में ले केला कोई खाली हाथ ही कोई थाली साथ ले। विशेष बात यह है, कि सब विनत-माथ हैं और बार वारसुदूर तक दृष्टिपात करते
अतिथि की प्रतीक्षा कर रहे हैं। गो, इतने में ही आत हुए अतिथि का दर्शन हुआ और दाताओं के मुख से निकल पड़ी जयकार की नि !
जय हां ! जय हो ! जय हो ! अनियत विहारवालों की नियमित विचारवालों की
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सन्तों की, गुणवन्तों की सौम्य-शान्त-छविवन्तों की जय हो ! जय हो ! जय हो ! पक्षपात से दूरों की यथाजात यतिशूरों की दया-धर्म के मूलों की साम्य-भाव के पूरों की जय हो ! जय हो ! जय हो ! भव-सागर के फूलों की शिव-आगर के चूलों की : "सब-कुछ राहे धोरों -5..
विधि-मल धोते नीरों की जय हो ! जय हो ! जय हो !
.
अब तो"और आसन्न आना हुआ अतिथि का ! प्रारम्भ के कई प्रांगण पार कर गये, पथ पर पात्र के पावन पद पल-पल आगे बढ़ते जा रहे, पीछे रहे प्रांगण-प्राणों पर पाला-सा पड़ गया वह पुलक-फुल्लता नहीं उनमें ! भास्कर ढलान में ढलता है इधर, कमल-बन म्लान पड़ता है, फिर भी पात्र पुनः लौट आ सकता है यूँ, आशा भर जगी है उनमें।
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20.
भानु अग्रिम दिन तो आ सकता है "आता ही है !
316 : मूक माटी
परन्तु
पथ पर चलते-चलते
अध-बीच मुड़ कर नहीं आता मुड़ कर आना तो दूर,
मुड़ कर देखता तक नहीं वह, पूर्व से पश्चिम की और यात्रा करता पश्चिम से पूर्व की ओर जाता हुआ देखा नहीं गया आज तक, और सम्भव भी नहीं ।
दाताओं, विधिद्रव्यों की पहचान कब, कैसा कर लेता है पात्र, पता तक नहीं चल पाता बिजली की चमक की भाँति अविलम्ब सब कुछ हो जाता है ।
" पात्र का प्रांगण में आना, फिर
बिना पाये भोजन-पान
लौट जाना"
पनी पीड़ा होती है दाता को इससे " यूँ ये पंक्तियाँ
एक दाता के मुख से निकल पड़ीं। हाथोंहाथ
सन्तों की बात भी याद आई उसे, कि
परम-पुण्य के परमोदय से
पात्र दान का लाभ होता है हमारे पुण्य का उदय तो है परन्तु, अनुपात से
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पर्याप्त पतला पड़ गया वह, दुर्लभता इसी की तो कहते हैं। कुछ दाताओं के मुख से कुछ भी शब्द नहीं निकले
मन्त्र-मुग्ध कीलित-से रह गये। कुछ तो विधि-विस्मरण से विकल हो गये,
और
कपाल पर बार-बार हाथ लगाते हैं, वह ऐसा प्रतीत हो रहा है, कि कहीं प्रतिकूल भाग्य को डाँट-डाँट कर भगा रहे हों।
"हे महाराज ! विधि नहीं मिली, तो नहीं सही कम-से-कम इस ओर देख तो लेते, इतने में ही सन्तोष कर लेते हम" यूँ एक दाता ने मन की बात
सहज-भाव से सुना दी। दाता के कई गुण होते हैं उनमें एक गुण विवेक भी होता है
एक दाता ने विवेक ही खो दिया और भक्ति-भाव के अतिरेक में पात्र के अति निकट पथ पर आगे बढ़ दयनीय शब्दों में कहा कि "इस जीवन में इसे पात्रदान का सौभाग्य मिना नहीं,
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कई बार पात्र मिले पर, भावना जगी नहीं आज भावना बलवती बन पड़ी है, इस अवसर पर भी यदि
स्पर्शन हो, पर हर्षन नहीं, भावना भूखी रहेगी"! तो फिर कन" भूख की शान्ति वह ? आज का आहार हमारे यहाँ हो, बस ! इस प्रसंग में यदि दोष लगेगा तो" मुझे लगेगा, आपको नहीं स्वामिन् ! हे कृपा-सागर, कृपा करो देर नहीं, अब दया करो।"
दाता की इस भावुकता पर मन्द-मुस्कान-भरी मुद्रा को मौनी मुनि मोड़ देता है और चार हाथ निहारता-निहारता पथ पर आगे बढ़ जाता है। तब तक दाता के मुख से पुनः निराशा-घुली पंक्ति निकली : "दाँत मिले तो चने नहीं, चने मिले तो दाँत नहीं,
और दोनों मिले तो". पचाने को आँत नहीं"!"
118 :: मूक मार्टी
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"पात्र से प्रार्थना हो
पर अतिरेक नहीं,
भाँति-भाँति की भ्रान्तियाँ यूँ दाताओं से होती गईं, "हाँ! हा !
यही स्थिति हमारी भी हो सकती है"
यूँ कुम्भ ने कहा सेठ को
और
सेठ को सचेत किया
इस समय सब कुछ भूल सकते हैं
पर विवेक नहीं।
तन, मन और वचन से दासता की अभिव्यक्ति हो,
पर उदासता की नहीं । अधरों पर मन्द मुस्कान हो, पर मज़ाक नहीं ।
उत्साह हो, उमंग हो
पर उतावली नहीं ।
अंग-अंग से
विनय का मकरन्द झरे,
पर, दीनता की गन्ध नहीं ।
और
इसी सन्दर्भ में सुनी थी सन्तों से एक कविता,
सो सुनो, प्रस्तुत है, आदृत है बुध-स्तुत है :
धरती को प्यास लगी है
नीर की आस जगी है
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मुख-पात्र खोला है कृत संकल्पिता हैं धरती
दाता की प्रतीक्षा नहीं करना है दाता की विशेष समीक्षा नहीं करना है अपनी सीमा, अपना आँगन भूल कर भी नहीं लाँघना है..
.
. .
कारण
पात्र की दीनता निरभिमान दाता में मान का आविर्माण कराती है पाप की पालड़ी फिर भारी पड़ती है वह,
और स्वतन्त्र स्वाभिमान पात्र में परतन्त्रता आ ही जाती हैं, कर्तव्य की धरती धीमी-धीमी नीचे खिसकती है, तब क्या होगा ? दाता और पात्र
दोनों लटकते अधर में। तभी तो... काले-काले मेघ सघन ये अर्जित पाप को पुण्य में ढालने जो सत्-पात्र की गवेषणा में निरत हैं, पात्र के दर्शन पा कर भाव-विभोर गदगद हो
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गड़-गड़ाहट ध्वनि करते सजल, लोचन-युगल। साबण की चौंसठ धार पात्र के पाद-प्रान्त में प्रणिपात करते हैं."
फिर "तो. धरती ने अनायास, सहज रूप से बादल की कालिमा को धो डाला, अन्यथा वर्षा के बाद बादल-दल वह बिमल होता क्यों ?
कुम्भ के मुख से कविता सुनी कम शब्दों में, सार के रूप में, दाता की गौरव-गाथा आचार-संहिता ही सामने आई, आदर्श में अपना मुख दिखा विमुख हुआ जो आदर्श जीवन से, जिस मुख पर बेदाग होने का दम्भ-भर दमक रहा था। सेट की आँखें खुल गई, वह अपने को संयत बनाता, सब कुछ भ्रान्तियाँ धुल गईं।
मूक माटी :: 21
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कविता-श्रवण ने उसे बहुत प्रभावित किया। पुनः संकेत मिलता है सेठ कोअब शत-प्रतिशत निश्चित है पान का अपनी ओर आना। जैसे-जैसे प्रांगण मास आता गया वैसे-वैसे पात्र की गति में मन्दता आई
और पात्र को अनुभूत हुआ कि उसके पदों को आगे बढ़ने से रोक कर अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है
कोई विशेष पुण्य-परिपाक ! पात्र की गति को देख कर और सचेत हो, श्रद्धा-समवेत हो अति मन्द भी नहीं अति अमन्द भी नहीं, मध्यम मधुर स्वरों में अभ्यागत का स्वागत प्रारम्भ हुआ :
'भो स्वामिन् ! नमोस्तु ! नमोस्तु ! नमोस्तु ! अत्र : अत्र ! अत्र ! तिष्ठ ! तिष्ट ! तिष्ठ !' यूँ सम्बोधन-स्वागत के स्वर दो-तीन बार दोहराये गये साथ-ही-साथ, धीमे-धीमे हिलने वाले
322 :: पूक माटी
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० के कर्ण की सादर अतिथि को बुला रहे हैं।
अभय का आयतन अतिथि आ रुकता है प्रांगण में निराकुल, अविचल ...
फिर क्या कहना ! अहोभाग्य मानता हुआ
धन्य धन्य कहता हुआ अतिथि को दायीं ओर
अतिथि से
दो-तीन हाथ दूर से प्रदक्षिणा प्रारम्भ करता है सेठ
सपत्नीक, सपरिवार !
आज का यह दृश्य ऐसा प्रतीत हो रहा है,
कि
ग्रह-नक्षत्र - ताराओं समेत
रवि और शशि
मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा दे रहे हैं,
तीन प्रदक्षिणा दी गईं,
जीव दया- पालन के साथ ।
पुनः नमस्कार के साथ,
नवधा भक्ति का सूत्रपात होता है :
'मन शुद्ध है
वचन शुद्ध है तन शुद्ध है
और
अन्न-पान शुद्ध है आइए स्वामिन्!
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भोजनालय में प्रवेश कीजिए'
और
बिना पीठ दिखाये
आगे-आगे होता है पूरा परिवार । भीतर प्रवेश के बाद
1324 : मूकमाटी
आसन-शुद्धि बताते हुए उच्चासन पर बैठने की प्रार्थना हुई पात्र का आसन पर बैठना हुआ।
पादाभिषेक हेतु पात्र से किया जाता है विनम्र निवेदन, निवेदन को स्वीकृति मिलती है;
पलाश की छवि को हरते अविरति भीरु अवतरित हुए रजत की थाली पर
पात्र के युगल पाद-तल ! लो, उसी समय
गुरु-पद के प्रति
अनुराग व्यक्त करती थाली भी ! यानी,
गुरु-पद का अनुकरण करती कुंकुम - कुन्दन-सी बनती लाल । छान, तपाये समशीतोष्ण
प्रासुक जल से भरा माटी का कुम्भ हाथों में ले दाता, पात्र के पदों पर ज्यों ही झुका
त्यों ही बस, कन्दर्प- दर्प से दूर
गुरु- पद नख दर्पण में
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कुम्भ ने अपना दर्शन किया और
धन्य ! धन्य ! कह उठा। जय, जय, गुरुदेव की ! जय, जय, इस घड़ी की ! विचार साकार जो हुए पथ-गत-पीड़न-वेदन जो कुछ बचा-खुचा कालुष्य सरकः रा- ना को ..:: ... . . . . . . . . यहीं पर अर्पण किया : 'शरण, चरण हैं आपके, तारण-तरण जहाज, भव-दधि तट तक ले चलो करुणाकर गुरुराज !' यूँ गुरु-गुण-गान करते विघ्न-विनाशक, विभव-विधायक अभिषेक सम्पन्न हुआ, प्रक्षालन भी। आनन्द से भरे सब ने गन्धोदक मस्तक पर लगाया, परिवार सहित इन्द्र की भाँति सेठ लग रहा है।
इसी क्रम में अब, यथाविधि, यथानिधि यथाज्ञात-सन्निधि स्थापना-पूर्वक, अष्ट-मंगल द्रव्य ले जल-चन्दन-अक्षत-पुष्पों से चरु-दीप-धूप-फलों से पूजन-कार्य पूर्ण हुआ पंचांग प्रणामपूर्वक !
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पुनश्च,
बद्धांजलि हो पूरा परिवार प्रार्थना करता है पात्र से कि "भो स्वामिन् ! अंजुलि-मुद्रा छोड़ कर भोजन ग्रहण कीमि . . . . . . . .: :: :. .... .........:
दान-विधि में दाता को कुशल पा अंजुलि छोड़, दोनों हाथ धो लेता है पात्र और जो मोह से मुक्त हो जीते हैं राग-रोष से रीते हैं जनम-मरण-जरा-जीर्णता जिन्हें छू नहीं सकते अब क्षुधा सताती नहीं जिन्हें जिनके प्राण प्यास से पीड़ित नहीं होते, जिनमें स्मय-विस्मय के लिए पल-भर भी प्रश्रय नहीं, जिन्हें देख कर भय ही भयभीत हो भाग जाता है सप्त-भयों से मुक्त, अभय-निधान, निद्रा-तन्द्रा जिन्हें घेरती नहीं, सदा-सर्वथा जागृत-मुद्रा स्वेद से लथ-पथ हो वह मात्र नहीं, खेद-श्रम की
वह बात नहीं; जिनमें अनन्त बल प्रकट हुआ है, परिणामस्वरूप जिनके निकट कोई भी आतंक आ नहीं सकता जिन्हें अनन्त सौख्य मिला है “सो
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शोक से शून्य, सदा अशोक हैं जिनका जीवन ही विरति है तभी तो
उनसे दूर फिती रहती एनि वह
जिनके पास संग है न संघ, जो एकाकी हैं,
फिर चिन्ता किसकी उन्हें ? सदा-सर्वथा निश्चिन्त हैं,
अष्टादश दोषों से दूर " ऐसे आर्हतों की भक्ति में डूबता है, कुछ पलों के लिए
नासाग्र दृष्टि हो, महामना ।
"
श्रमण का कायोत्सर्ग पूर्ण हुआ कि आसन पर खड़ा हुआ वह अतिथि दोनों एड़ियों और पंजों के बीच, क्रमशः चार और ग्यारह अंगुल का अन्तर दे ।
स्थिति - भोजन-नियम का ही नहीं, एक भुक्ति का भी पालक है। पात्र ने अपने युगल करों को पात्र बना लिया, दाता के सम्मुख आगे बढ़ाया ।
'मन को मान-शिखर से नीचे उतारने वाली भिक्षावृत्ति यही तो है'
यूँ कहती हुई यह लेखनी क्षुधा की मीमांसा करती हैं :
मूकमाटी : 327
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भूख दो प्रकार की होती है. एक तन की, एक मन की। तन की तनिक है, प्राकृतिक भी, मन की मन जाने
कितना प्रमाण हैं उसका ?
वैकारिक जो रही,
वह भूख ही क्या भूत हैं भयंकर, जिसका सम्बन्ध भूतकाल से ही नहीं,
अभूत से भी हैं !
328 मूकमाटी
इसी कारण से
अभी तक प्राणी यह
अभिभूत जो नहीं हुआ स्व को
उपलब्ध कर |
जहाँ तक इन्द्रियों की बात है
उन्हें भूख लगती नहीं,
बाहर से लगता है कि
उन्हें भूख लगती है ।
रसना कब रस चाहती हैं,
नासा गन्ध को याद नहीं करती,
स्पर्श की प्रतीक्षा स्पर्शा कब करती ? स्वर के अभाव में
ज्वर कब चढ़ता है श्रवणा को ?
बहरी श्रवणा भी जीती मिलती है।
आँखें कब आरती उतारती हैं। रूप की स्वरूप की
ये सारी इन्द्रियाँ जड़ हैं,
जड़ का उपादान जड़ ही होता है,
जड़ में कोई चाह नहीं होती जड़ की कोई राह नहीं होती
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सदा सर्वत्र सब समान अन्धकार हो या ज्योति ।
हाँ हाँ !
!
विषयों का ग्रहण - बोध
इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है।
विषयी - विषय - रसिकों को ।
वस्तुस्थिति यह है कि इन्द्रियाँ ये खिड़कियाँ हैं
तन यह भवन रहा है,
भवन में बैठा-बैठा पुरुष भिन्न-भिन्न खिड़कियों से झाँकता है वासना की आँखों से
और
विषयों को ग्रहण करता रहता
दूसरी बात यह है, कि
मधुर, आम्ल, कषाय आदिक जो भी रस हों शुभ या अशुभकभी कहते नहीं, कि हमें चख लो तुम।
--
हैं I
लघु-गुरु स्निग्ध- रूक्ष शीत-उष्ण मृदु-कठोर
जो भी स्पर्श हों, शुभ या अशुभ -- कभी कहते नहीं कि
हमें छू लो तुम ।
सुरभि या दुरभि जो भी गन्ध हों, शुभ या अशुभकभी कहतीं नहीं, कि
हमें सूँघ लो, तुम ।
मूकमाटी
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सुनो सुनो
परस-रस- गन्ध रूप और शब्द ये जड़ के धर्म हैं जड़ के कर्म" ।
कृष्ण- नील-पीत आदिक जो भी वर्ण हों शुभ या अशुभकभी कहते नहीं, कि
हमें लख लो तुम !
और
330 मूकमाटी
सा. रे... प्र म प धनि जो भी स्वर हों शुभ या अशुभ कभी कहते नहीं, कि हमें सुन लो, तुम ।
इससे यही फलित हुआ, कि मोह और असाता के उदय में क्षुधा की वेदना होती है
यह क्षुधा तृषा का सिद्धान्त है । मात्र इसका ज्ञात होना ही
साधुता नहीं है,
चरन्
ज्ञान के साथ साम्य भी अनिवार्य है
श्रमण का श्रृंगार ही समता - साम्य है...!
इधर, प्रारम्भ हुआ दान का कार्य पात्र के कर- पात्र में प्रासुक पानी से;
परन्तु
यह क्या ! संकायक
पात्र ने अपने पात्र को बन्द कर लिया
कि
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तुरन्त, दूसरी ओर से स्वर्ण-कलश आगे बढ़ाया गया जिसमें स्वादिष्ट दुग्ध भरा है, फिर भी अंजुलि अनखुली देख तीसरे ने रजत-कलश दिखाया जिसमें मधुर इक्षुरस भरा है,
जब
वह भी उपेक्षित ही रहा, तब
स्फटिक झारी की बारी आई अनार के लाल रस से भरी तरुणाई की अरुणाई-सी ! आश्चर्य ! अतिथि की ओर से उस पर भी एक बार भी दृष्टि ना पड़ी ! विवश हो निराशा में बदली वह झारी। अब अधिक विलम्ब अनुचित है। अन्तराय मानकर बैठ सकता है, बिना भोजन अतिथि जा सकता हैयह आशंका परिवार के मुख पर उभरी,
और मन में प्रभु का स्मरण करते किसी तरह, धृति धारते पूरी तरह शक्ति समेट कर, कैंपते-कपते करों से माटी के कुम्भ को आगे बढ़ाया सेठ ने।
अतिथि की अंजुलि खुल पड़ती है स्वाति के धवलिम जल-कणों को देख सागर-उर पर तैरती शुक्तिका की भाँति !
पूक माटी :: 381
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चार-पाँच अंजुलि जल-पान हुआ कुछ इक्षु-रस का सेवन, फिर जो कुछ मिलता गया
बस, अविकल चलता गया ।
जब चाहे, मन चाहे नहीं
बिना याचना,
बिना कोई संकेत
बस, पेट हो भूखा
फिर कैसा भी हो भोजन रस-दार हो या रूखा-सूखा सब समान ।
एक बर्तन से दूसरे बर्तन में भोजन - पान का परिवर्तन होता है क्या उस समय कभी
बर्तन में कोई परिवर्तन आता है ? न ही कोई बर्तन नर्तन करता है। न ही कोई बर्तन रुदन मचाता है
धन्य धन्य है यह नर
और यह नर-तन सब तनों में 'वर' -तन
बीजारोपण से पूर्व जल के बहाव से कटी-पिटी छेद- छिद्र गर्त वाली धरती में
कूड़ा-कचरा कंकर पत्थर डाल उसे समतली बनाता है कृषक । बस, इसी भाँति,
दाता दान देता जाता
332 मूक माटी
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पात्र उसे लेता जाता, उदर-पूर्ति करना है ना ! इसी का नाम है गर्त-पूर्ण-वृत्ति समता-धर्मी श्रमण की !
भूखी गाय के सम्मुख जब घास-फूस चारा डाला जाता है ऊपर मुख उठा कर रक्षकों के आभरणों-आभूषणों को अंगों-उपांगों को नहीं देखती वह। बस इसी भाँति, भोजन के समय पर साधु की भी वृत्ति होती है
जो गोचरी-वृत्ति कही जाती है। ... ऐसा-वैसा कुछ भी विकल्प नहीं खारा हो, मीठा हो कैसा भी हो, जल हो झट बुझाते हैं घर में लगी आग को वस, इसी भाँति। सरस हो या नीरस कैसा भी हो, अशन हो उदराग्नि शमन करना है ना ! .
और यही अग्नि-शामक वृत्ति है श्रमण की सब वृत्तियों में महावृत्ति !
पराग-प्यासा भ्रमर-दल वह कोंपल-फूल-फलों-दलों का सौरभ सरस पीता है पर उन्हें, पीड़ा कभी न पहुँचाता;
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.::.
:....
प्रत्युत, अपनी स्फुरणशील कर-छुवन से उन्हें नचाता है गुन-गुन-गुंजन-गान सुनाता। बस, इसी भाँति पात्रों को दान दे कर . . दाता भी फूला न समाता, होता आनन्द-विभोर वह । अन्धकार घोर मिटता है, जीवन में आती नयी भोर वह और यही "तो
भ्रामरी-वृत्ति कही जाती सन्तों की ! यूँ तो श्रमण की कई वृत्तियाँ होती हैंजिनमें अध्यात्म की छवि उभरती है जो सुनी थीं सादर श्रुतों से आज निकट-सन्निकट हो खली आँखों से देखने को मिली।
परिणाम यह हुआ कि पूरा का पूरा परिवार सेठ का अपार आनन्द से भर आया और सेट के गौर-वर्ण के युगल-करों में माटी का कुम्भ शोभा पा रहा है
कनकाभरण में जड़ा हुआ नीलम-सा । उन करों और कुम्भ के बीच परस्पर प्रशंसा के रूप में कुछ बात चलती है, कि कुम्भ ने कहा सर्वप्रथम
334 :: मूक माटी
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"तुमने मुझे ऊपर उठा अपना लिया बड़ा उपकार किया मुझ पर और इस शुभ-कार्य में सहयोगी बंद का सौभाग्य मिला मुझः। .. इस पर तुरन्त ही करों ने भी कहा कि "नहीं नहीं, सुनो "सुनो ! उपकार तो तुमने किया हम पर तुम्हारे बिना यह कार्य सम्भव ही नहीं था, इस कार्य में भावना-भक्ति जो कुछ है, तुम्हारी है हम तोऊपर से निमित्त-भर ठहरे !"
उपरिल चर्चा को सुनता हुआ नीचे पात्र का कर-पात्र कहता है कि, “पात्र के बिना कभी पानी का जीवन टिक नहीं सकता,
और पात्र के बिना कभी प्राणी का जीवन टिक नहीं सकता, परन्तु पात्र से पानी पीने वाला उत्तम पात्र हो नहीं सकता पाणि-पात्र ही परमोत्तम माना है,
पात्र भी परिग्रह है ना ! दूसरी बात यह भी हैं, कि अतिथि के बिना कभी तिथियों में पूज्यता आ नहीं सकती अतिथि तिथियों का सम्पादक है ना !
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फिर भी तिथियों को अपने पास नहीं रखता बह, तिथियाँ काल के आश्रित हैं ना ! परिणतियाँ अपनी-अपनी निरी-निरी हुआ करती हैं, तिथियों के बन्धन में बँधना भी गतियों की गलियों में भटकना है। कचित् ! यतियों का बन्धन में बँधना वह नियति के रंजन में रमना है।" यूँ सतु-पात्र की होती रही मीमांसा।
इधर,
अबाधित आहार-दान चल रहा है
और ऐसा ही यह कार्य सानन्द-सम्पन्न हो, इसी भावना में संलग्न-मग्न हुआ है सेठ। उसके दोनों कन्धों से उतरती हुई दोनों बाहओं में लिपटती हुई, फिर दायें वाली बायीं ओर वायीं वाली दाहिनी ओर जा कटि-भाग को कसती हुई नीले उत्तरीय की दोनों छोर
नीचे लटक रही हैं। ऊपर देख नहीं पा रही है, कुम्भ की नीलिमा से वह पूरी तरह हारी है
36 :: मुक माटी
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लज्जा का अनुभव करती धरती में जा छुपना चाहती है अपने सिकुड़न-शील मुख को दिखाना चाहती नहीं किसी को।
सेट के दायें हाथ की मध्यमा में मुदित-मुखी स्वर्णिम मुद्रा है जो माणिक-मणि से मण्डित है जिमकी विस्तार का ... . . . . . .: अतिथि के अंरुणिम अधरों से बार-बार अपनी तुलना करती और अन्त में हार कर आकुलिता हो लज्जा के भार से अतिथि के पद-तलों को छू रही है, और ऐसा करना उचित ही है पूज्यपदों की पूजा से ही
मनवांछित फल मिलता है। इसी भाँति सेठ के बायें हाथ की तर्जनी में रजत-निर्मित मुद्रा है मुद्रा में मुक्ता जड़ी है। करपात्री की अदृष्टपूर्व कर-नख-कान्ति लख कर क्तान्ति का अनुभव करती है
और ज्वराक्रान्त होती। यही कारण है, उसकी रक्त-रहित शुभ्र-काया बनी हैं;
पान के दोनों कपोल वह गोलगोल है, सुडौल भी
भूक माटी ..
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मांसल हैं, प्रांजल भी जिनकी प्रांजलता में दाता के स्वर्णिम कुण्डल
अपनी प्रतिछवि के बहाने अपनी
तुलना
हम क्या कम हैं ?
बाल- भानु की भाँति हमसे आभा फूटती है गोल भी हैं, सुडौल भी सुवर्णवाले हैं, सुन्दर हैं स्वर्णवाले हैं, लोहित नहीं ।
398 मूक माटी
फिर भी,
कपोल-कान्ति में, इस कान्ति में अन्तर क्यों ?
कौन - सी न्यूनता है हममें ? कौन जानता इस भेद को
लो ! उलझन में उलझे कुण्डलों को कपोलों का उद्बोधन :
करते हैं कपोलों से -
किसे पूछें ? पूछें भी कैसे ?
"तुम्हें देखते ही दर्शकों में
राग जागृत होता है
और
हमें देखते ही सहज
वत्सल भाव उमड़ता है,
रागी भी खो जाता है विसगता में कुछ पल,
हमारे भीतर संगृहीत
वत्सल भाव वह, ऊपर आ
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कपोल-तल से फिसलता हुआ, विरोध के रूप में आ खड़े वैरियों के पाषाण-बसरमा गयो भी. . . . . . . ... ..... ... . मृदुल फूल बनाता है। हममें अनमोल बोल पले हैं,
और तुममें केवल पोल मिले हैं।
एक बात और है कि विकसित या विकास-शील जीवन भी क्यों न हो, कितने भी उज्ज्वल-गुण क्यों न हों, पर से स्व की तुलना करना पराभव का कारण है
दीनता का प्रतीक भी। और वह तुलना की क्रिया ही प्रकारान्तर से स्पर्धा है, स्पर्धा प्रकाश में लाती है कहीं"सुदूर"जा"भीतर बैठी अहंकार की सूक्ष्म सत्ता को। फिर, अहंकार को सन्तोष कहाँ ? बिना सन्तोष, जीवन सदोष है यही एक कारण है, कि प्रशंसा-यश की तृष्णा से झुलसा यह सदोष जीवन सहज जय-घोषों की, सुखद गुणों की सघन-शीतल छॉब से वंचित रहता है।
वैसे, स्वयं यह 'स्व' शब्द ही कह रहा है कि
मूक माटी :: 399
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... . .
. . .
स्व बानी सम्पदा है,
स्व ही विधि का विधान है . यही निधि विधान हैं रव की उपलब्धि ही सर्वोपलब्धि है फिर, अतुल की तुलना क्यों ? यूँ कपोलों से अपनी पोल खुली देख, कुन्दन के कुण्डल यह और कुन्दित कान्तिहीन हुए।
सेट ने पड़ी से ले चोटी तक कमल-कर्णिका की आभा-सम पीताम्बर का पहनाब पहना है जिस पहनाव में उसका मुख गुलाव-सम खिला है और मन्द-मन्द बहते पवन के प्रभाव से पीताम्बर लहरदार हो रहा है, जिन लहरों में कुम्भ की नीलम छवि तैरती-सी सो पीताम्बर की पीलिमा अच्छी लगती नीलिमा को पीने हेतु उतावली करती है।
हो, इधर घर के सब बालों-चालाओं को
3411 :: मृक माटी
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भीतर रहने की आज्ञा मिली है। और
बिना बोले बैठने को बाध्य किया है.. फिर भी, बीच-बीच में,
चौखट के भीतर से या खिड़कियों से एक-दूसरों को आगे-पीछे करते बाहर झाँकने का प्रयास चल रहा हैं I
सीमा में रहना असंयमी का काम नहीं, जितना मना किया जाता
उतना मनमाना होता है
पाल्य दिशा में ।
त्याज्य का तजना
भाज्य का भजना, सम्भव नहीं बाल्य दशा में ।
तथापि जो कुछ पलता है
बस, बलात् ही भीति के कारण ! यही स्थिति है इधर भी !
सर को कस कर बाँध रखा है सेठ ने बालों के बबाल से बचने हेतु । तथापि,
विशाल ललाट तल पर
कुटिल - कृष्ण बालों का लट बार-बार आ निहार रहा है
अन्न-दान के सुखद दृश्य को अन्य ध्यान के विमुख दृश्य को,
और
निर्भीक हो कर कहता है सब पात्रों में प्रमुख पात्र को,
कि
"आप सन्त हैं समता के धनी ये दाता सज्जन हैं ममता की खनी
मूकमाटी 941
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विराग के प्रति अनुराग रखते; दोनों का ध्येय बन्धन से मुक्ति है फिर भला बताओ जरा ! मझें क्या चवन में :.:. :::: ::
::
अब
मझे भी बन्धन रुचता नहीं मानती हूँ इस बात को कि विगत मेरा गलत है,
और किसका नहीं ? पतित है पलित-पकिल भी गलित है चलित-चंचल भी, परन्तु आज की स्थिति बदली हैं
गलत लत से बचना चाहता हूँ। पाप पुण्य से मिलने आया है विष पीयूष में घुतने आया है हे प्रकाश-पंज प्रभाकर । अन्धकार की प्रार्थना सुनो ! बार-बार भगाने की अपेक्षा एक बार इसे जगा दो, स्वामिन् ! अपने में जगह दो इसे मिटाओं या मिलाओ अपने में; प्रकाश का सही लक्षण वही है जो सबको प्रकाशित करे ! एक और धृष्टता की बात कहूँ कि 'भाग्यशाली भाग्यहीन को कभी भगाते नहीं, प्रभो ! भाग्यवान भगवान बनाते हैं।'
142 :: मृग माटी
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यूँ कहता हुआ ललाट-गत लट झट से पलट कर मूक होता है।
और इधर 'सानन्द-सम्पन्न हुआ आहार दान पात्र का आसन पर बैठना हुआ प्रासुक-उष्ण जल से मुख-शुद्धि हुई अंजलि से उछले अन्न-पान कणों से प्रभावित उदर-उर-उरु आदि अंगों को अपने हाथों से शुद्ध बना कर कुछ पलों के लिए पलकों को अर्धोन्मीलित कर पात्र परम-तत्त्व में लीन हुआ।
कायोत्सर्ग का विसर्जन हुआ, सेठ ने अपने विनीत करों से अतिथि के अभय-चिह चिहित उभय कर-कमलों में संयमोपकरण दिया मयूर-पंखों का
मूदुल कोमल लघु मंजुल है।
तृषा बुझाने हेतु नहीं, परन्तु शास्त्र-स्वाध्याय के पूर्व और शौचादि क्रियाओं के बाद हस्त-पादादि-शुद्धि हेतु, शौचोपकरण कमण्डलु में प्रासुक जल भर दिया गया,
पूक माटी :: 349
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अतिथि के चरण-स्पर्श पावन दर्शन हेतु अड़ोस-पड़ोस की जनता
आँगन में आ खड़ी है ।
ज्यों ही
अतिथि का आँगन में आना हुआ त्यों ही
जय घोष से गूँज उठा नभमण्डल भी । और, भावुक जनता समेत
सेठ ने प्रार्थना की पात्र से, कि
तो अष्ट प्रहर तक ही उपयोग में लाया जा सकता हैं,
अनन्तर वह सदोष हो जाता है।
" पुरुषार्थ के साथ-साथ
हम आशावादी भी हैं
आशु आशीर्वाद मिले
शीघ्र टले विषयों की आशा, बस ! बस चलें हम आपके पथ पर |
जाते-जाते हे स्वामिन् ! एक ऐसा सूत्र दो हमें
जिस सूत्र में बँधे हम अपने अस्तित्व को पहचान सकें, कहीं भी गिरी हो
ससूत्र सुई "सो..
कभी खोती नहीं ।"
344 :: मूक माटी
इस पर अतिथि सोचता है कि
उपदेश के योग्य यह न ही स्थान है, न समय
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तथापि भीतरी करुणा उमड़ पड़ी सीप से मोती की भाँति पात्र के मुख से कुछ शब्द निकलते हैं कि
"बाहर यह जो कुछ भी दिख रहा है सो'मैं "नहीं"हूँ
और . . ... ... . . . . . . . ... .... मेरा भी नहीं है। ये आँखें मुझे देख नहीं सकती मुझमें देखने की शक्ति है उसी का मैं स्रष्टा था"हूँ"रहूँगा, सभी का द्रष्टा था"हूँ"रहूँगा। बाहर यह जो कुछ भी दिख रहा है सो मैं"नहीं हूँ !"
यूं कहते-कहते पात्र के पद चल पड़े उपवन की ओर पीठ हो गई दर्शकों की ओर।
पात्र के पीछे-पीछे छाया की भांति कर में कमण्डलु ले
मूक मादी :: 345
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सेट चल रहा नगर के निकट उपवन है
हैं
I
उपवन में नसियाजी है जिसका शिखर गगन चूमता है, शिखर का कलश चमक रहा है, अपनी स्वर्णिम कान्ति से कलश बता रहा है कि
संसार की जितनी भी चमक-दमक है यह सब भ्रमित है, भ्रामक भी सत्पथ की गमक नहीं है
346 मूकमाटी
रुक्क न सका रूदन, फूट-फूट कर रोने लगा पुण्य-प्रद पूज्य-पदों में लोटपोट होने लगा |
नसियाजी में जिनबिम्ब है नयन मनोहर, नेमिनाथ का
बिम्ब का दर्शन हुआ निज का भान हुआ
तन रोमांचित हुआ
हर्ष का गान हुआ ।
लोचन सजल हो गये पथ ओझल - सा हो गया पद बोझिल से हो गये
रोका,
पर
एक बार और गुरु चरणों में सेठ ने प्रणिपात किया लौटने का उपक्रम हुआ, पर तन टूटने लगा ।
"गुरु चरणों की शरण तज कर
यह आत्मा
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लौटना नहीं चाहती स्वामिन ! मानस छोड़ कर हंस की भाँति। तथापि खेद है, कि तन को भी मन के साथ होना पड़ता है मन का वेग अधिक हैं प्रभो ! बातों-बातों में बार-बार उद्वेग-आवेग से घिर आता है फिर, संवैग के वह पद्ध
आचरण की धरती पर टिक न पाते
फिर, निराधार वह क्या करेगा ?"" पहाड़ी नदी हो आषाढ़ी बाढ़ आई हो छोटे-छोटे वनचरों की क्या बात, हाथी तक का पता न चलता "बह जाता सब कुछ ! अपना ही किया हुआ कर्म आज बाधक बन उदय में आया है, चाहते हुए भी धर्म का पालन पहाड़-सा लग रहा है,
और मैं ? बौना ही नहीं, पंगु भी बना हूँ। बहुत लम्बा पथ है कैसे चलूँ मैं? गगन चूमता चूल है, कैसे चढूँ मैं कुशल-सहचर भी तो नहीं.. कैसे बहूँ मैं अब आगे !
क्या पूरा का पूरा आशावादी बनें ? क्या सब कुछ नियति पर छोड़ दूँ ?
मूक पाटी :: 347
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छोड़ दें पुरुषार्थ को: हे परम-पुरुप ! बताओ क्या करूँ , काल की कसौटी पर अपने को कसै क्या ? गति-प्रगति-आगति नति-उन्नति-परिणति इन सबका नियन्ता
काल को मायूँ क्या ? प्रति पदार्थ स्वतन्त्र हैं। कर्ता स्वतन्त्र होता हैयह सिद्धान्त सदोष है क्या ? 'होने' रूप क्रिया के साथ-साथ 'करने' रूप क्रिया भी तो. कोष में है ना !"
सेट की प्रश्नावली सन कर वात्सल्यपूर्ण भाषा में । माँ पुत्र को समझाती-सी, मौन तज कर कहा गरु ने, कि "इन सब शंकाओं का समाधान यहाँ है मेरी ओर इधर"ऊपर देखो !"
और
ऊपर की ओर देखना हुआ गीली आँखों सेमौन-मुद्रा मिली मात्र, मुद्रा में मुस्कान की मात्रा थोड़ी-सी भी मिली नहीं, गम्भीरता से पूरी भरी हैं वह, आँखों में निश्चलता है ललाट पर निश्छलता है वही रहस्योद्घाटन करती-सी."
34R :: मृक माटी
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'नि' यानी निज में ही 'यति' यानी बतन : स्थिरता है ... .. .. ... ... .... अपने में लीन होना ही निर्यात है निश्चय से वही यति है,
और
'पुरुष' यानी आत्मा-परमात्मा है 'अर्थ' यानी प्राप्तव्य प्रयोजन है आत्मा को छोड़ कर सब पदार्थों को विस्मृत करना ही सही पुरुषार्थ है।
नियति का और पुरुषार्थ का स्वरूप ज्ञात हुआ सही-सही
काल की भाव-धर्मिता जो मात्र उपस्थिति-रूपा प्रेरणा प्रदा नहीं, उदासीना एक-क्षेत्रासीना है
छपी नहीं रही, खुल गई। सेट की शंकाएँ उत्तर पातीं फिर भी
.
जल के अभाव में लाघव गर्जन-गौरव-शून्य वर्षा के बाद मौन कान्तिहीन-बादलों की भाँति छोटा-सा उदासीन मुख ले घर की ओर जा रहा सेठ तेल से बाती का सम्बन्ध लगभग टूट जाने से किंवा
मूक माटी ::
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अत्यल्प तेल रह जाने से टिमटिमाते दीपक सम अपने घट में प्राणों को सँजोये मन्थर गति से चल रहा है सेठ
मन में मन्धन भी चल रहा ! मूल-धन से हाथ धो कर खाली हाथ घर लौटते भविष्य के विषय ति किंकर्तव्यविमूढ़ वणिक-सम
घर की ओर जा रहा सेठ..
पूरा का पूरा घृतांश निकल जाने से
स्वयं की नीरसता का अनुभव करता, केवल दूध के समान संवेदनशून्य हुआ
घर की ओर जा रहा सेठ
माँ के विरह से पीड़ित
रह-रह कर
3500 : पूक भाटी
सहपाठियों के समक्ष
पराभव - जनित पीड़ा से भी
कई गुणी अधिक
पीड़ा का अनुभव हो रहा है
इस समय सेठ को ।
डाल के गाल का रस चूसन पूर्णरूप से छूटने से धूल में गिरे फूल सम आत्मीयता का अलगाव साथ ले शेष रहे अत्यल्प साहस समेत घर की ओर जा रहा सेठ
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सिसकते शिशु की तरह दीर्घ-श्वास लेता हुआ घर की ओर जा रहा सेठ वसन्त का अन्त होने से विकलित वन-जीवन-बदन-सम सन्त-संगति से वंचित हुआ घर की ओर जा रहा सेठ हरियाली को हरने वाली मृग-मरीचिका से भरी सुदूर तक फैली मरुभूमि में सागर-मिलन की आस-भर ले ... . बलहीन सपाट-तट वाली ' सरकती पतली सरिता-सा घर की ओर जा रहा सेट
प्राची की गोद से उछला फिर अस्ताचल की ओर ढला प्रकाश-पुंज प्रभाकर-सम आगामी अन्धकार से भयभीत
घर की ओर जा रहा सेठ कृण्ण-पक्ष के चन्द्रमा की-सी दशा है सेठ की शान्त-रस से विरहित कविता-सम पंछी की चहक से वंचित प्रभात-सम शीतल चन्द्रिका से रहित रात-सम
और बिन्दी से विकल
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अबला के 'भान-सम सब कुछ नीरव-निरीह लग रहा है।
ढलान में दुलकते-ढुलकते पाषाण-खण्ड की भाँति घर आ पहुँचता है सेट!
पूरा परिवार अपार हर्ष में डूबा है पात्र-दान का परिणाम है यह पुण्य-शाली कुम्भ भी फूल रहा है। सब एक साथ भोजनार्थ बैठते हैं परन्तु, गौरवर्ण से 'मरा, पर उदासी से घिरा ... सेठ के मुख गौरवशाली कुम्भ ने
गौर से देख कर यूँ कहा, कि "सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करने वाला भले ही तुरन्त सन्त-संयत वने या न बने इसमें कोई नियम नहीं है, किन्तु वह सन्तोपी अवश्य बनता हैं। सही दिशा का प्रसाद ही सही यशा का प्रासाद है
चतुर-चिकित्सकों से रोग का सही निदान होने पर
352 :: मूक माटी
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और क्या कहा कुम्भ ने
सां""सुनो ! "जैसे
औषध सेवन करने वाला रोगी जिसकी उपास्य देवता नीरोगता हैं, भोगी हो नहीं सकता वह, भोग ही तो रोग है ।
और सुनो ! यह औषध का नहीं, सही निदान का चमत्कार है,
औषध सेवन का फल तो रोग का शोधन है-नीरोगता अनमोल सोधन हैं । "
आमरण आभूषणों की बात दूर रहे, वृद्धावस्था में ढाका - मलमल भी भार लगती है जब कि
बाल हो या युवा
प्रोढ़ हो या वृद्ध
वनवासी हो या भवनवासी
वैराग्य की दशा में
स्वागत आभार भी
"भार लगता है। "
मदन का प्यार कभी जरा से हो नहीं सकता;
सन्तों की ये पंक्तियाँ भी अप्रासंगिक नहीं है :
गगन का प्यार कभी धरा में हो नहीं सकता
मूत्र माटी 35
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.......:::..
यह भी एक नियोग कि सुजन का प्यार कभी सुरा से हो नहीं सकता। विधवा को अंग-राग सुहाता नहीं कभी सधवा को संग-त्याग सुहाता नहीं कभी, संसार से विपरीत रीत विरलों की ही होती है भगवाँ को रंग-दाग सुहाता नहीं कभी !
कुम्भ की भाव-भाषा सुन कर. ऐसा प्रतीत हुआ सेठ को, उस क्षण कि साधुता का साक्षात्
आस्वादन हो रहा है। खार की धार से अब क्या अर्थ रहा ? सार के आसार से अव क्या प्रयोजन ? सोये हुए सब-के-सब सार के स्रोत जो समक्ष फूट पड़े" अहो भाग्य ! धन्य !!
कुम्भ के विमल-दर्पण में सन्त का अवतार हुआ है और
354 :- मूक पाटी
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यह लेखनी भी देती है सामयिक कुछ पंक्तियाँ : गम से यदि भीति हो
तो सुनो !
श्रम से प्रीति करो
और
अहं से यदि प्रीति हो तो सुनो ! चरम से भीति धरो
कुम्भ के निखिल अर्पण में सन्त का आभार हुआ है ।
शम धरो सम वरो !
सिद्ध मन्त्र की महिमा से
तन में व्याप्त विष-सम
सेठ की आकुल व्याकुलता मिटी चली गई कहीं । और, सेठ ने कहा कि "प्रभु-पूजन को छोड़ कर
इस पक्ष में अतिथि के समान
माटी के पात्रों का उपयोग होगा"
और
रजत- आसन से उतर कर
काष्ठ के आसन पर आसीन हुआ । यह सुन कर परिवार ने भी कहा"हमारी भी यही भावना है ।"
परिवार की परिवर्तित परिणति देख स्वर्ण की थालियों और गोल-गोल कलशियाँ
मूकमाटी 355
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कुन्दपुष्प-सम शुभ्र लोो माने - कोरे ... ... ., :.. राकेन्दु-सम रजतिप थालियाँ, कलशियों वढ़ियाँ-बदियाँ स्फटिक की माणिक की झारियों तरह-तरह की तश्तरियाँ चम-चम चम-चम चमकने वाली चमचियाँ यह सब क्या हो रहा है ?"
यूँ सोचते चमत्कृत हो गये सब ! फिर""इधर"यह क्या घटा ! शीतल जल से भरा पीतल कलश भीतर-ही-भीतर पीड़ित हुआ पराभव का चूंट पीता-पीता जलता हुआ उबलता
और पीलित हुआ। सुवर्ण के द्वार पर श्याम-वरण का स्वागत देख, स्वर्ण-कलश का वर्ण वह
और तमतमाने लगा, जिसका वर्णन वर्गों से सम्भव नहीं;
आपे से बाहर हुआ। स्वर्ण-कलश की मुख-गुफा से आक्रोश-भरी शब्दावली फूटती हैं साक्षात् ज्वालामुखी का रूप धरती-सी :
"आज का दिन भी पूर्ण नहीं हुआ अभी और आगत का इतना स्वागत-समादर !
31 :: पृक माटी
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माटी को माथे पर लगाना
और
मुकुट को पैरों में पटकना
यह सब
सभ्य व्यवहार-सा लगता नहीं अपने प्रति अपनत्व का भाव तो दूर, उपरिल उपचार से भी
अपनाने का भाव तक यहाँ दिखता नहीं,
यह अपने आप फलित हो रहा है।
इस बात को मैं मानता हूँ, कि
अपनाना
अपना प्रदान करना
और
अपने से भी प्रथम समझना पर को
यह सभ्यता है, प्राणी मात्र का धर्म; परन्तु यह कार्य
यथाक्रम यथाविधि हो
इस आशय को और खोलूँउच्च उच्च्च ही रहता
नीच नीच ही रहता
ऐसी मेरी धारणा नहीं है,
नीच को ऊपर उठाया जा सकता है,
उचितानुचित सम्पर्क से
सबमें परिवर्तन सम्भव है I
परन्तु ! यह ध्यान रहे
शारीरिक, आर्थिक, शैक्षणिक आदि
सहयोग - मात्र से
नीच उच्च बन नहीं सकता
इस कार्य का सम्पन्न होना
सात्त्विक संस्कार के ऊपर आधारित है।
मूक पाटी
:: 357
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मठे को यदि छौंक दिया जाता है मठा स्वादिष्ट ही नहीं अपितु पाचक भी बनता है, और दूध में मिश्री का मिश्रण हो तो दूध स्वादिष्ट भी बनता, बलवर्धक भी। इससे विपरीत, विधि-प्रयोग से यानी मठे में मिश्री का मिश्रण . . ..... ... कथंचित् गुणकारी तो है परन्तु दूध को छौंक देना तो बुद्धि की विकृति सिद्ध करता है।" यूँ, धीरे-धीरे कलश का उबाल-उफान शान्त हुआ।
शान्ति के साथ, सेठ ने कलश के उबलन को दोनों कानों से सुना, फिर बदले में कलश की कुशलता की कामना करता
शान्ति के कुछ बिन्दु प्रदान करता है। "जहाँ तक माटी-रज की बात है, मात्र रज को कोई सर पर नहीं चढ़ाता मूढ़-मूर्ख को छोड़ कर। रज में पूज्यता आती है चरण-सम्पर्क से। और
358 :: मूक माटी
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वह चरण पूज्य होते हैं जिन चरणों की पूजा ऑंखें करती हैं गन्तव्य तक पहुँचाने वाले
चरणों का मूल्य आँकती हैं ये ही मानी जाती सही आँखें चरण की उपेक्षा करने वाली स्वैरिणी आँखें दुःख पाती हैं स्वयं चरण - शब्द ही उपदेश और आदेश दे रहा हैं हितैषिणी आँखों को, कि
चरण को छोड़ कर
कहीं अन्यत्र कभी भी
चर न चर न !! चर न !!! इतना ही नहीं,
विलोम रूप से भी
ऐसा ही भाव निकलता है,
यानी
चरण नर
चरण को छोड़ कर
कहीं अन्यत्र कभी भी
न रच! न रच ! न रच !"
हे भगवन् !
मैं समझना चाहता हूँ कि
आँखों की रचना वह
ऐसे कौन से परमाणुओं से हुई है
जब आँखें आती हैं तो
दुःख देती हैं,
जब आँखें जाती हैं तो
दुःख देती हैं !
कहाँ तक और कब तक कहूँ,
एक मादी : 554
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जर आँस्ने लगती हैं तो दुःख दती हैं ! आँखों में सुख है कहाँ ? य आँखें दुःख की खनी हैं सुरन की हनी हैं यही कारण है कि इन आँखों पर विश्वास नहीं रखते सन्त संयत साधु-जन और सदा-सर्वथा चरणों लखते बिनीन-दृष्टि हो चलते हैं
''धन्य ।
फिर भी, खेट की बात यह है कि आँखें ऊपर होती हैं और चरण नीचे ! ऊपर वालों की शरण लेना ही समुचित हैं, श्रेयस्करऐसी धारणा अज्ञानवश बना कर पूज्य बनने की भावना ले कर आँखों की शरण में कुछ रजकण चले जाते हैं। पृज्य बनना तो दूर रहा, उनका स्वतन्त्र विचरण करना भी लुट जाता है."खेद ! आँखों के बन्धन से मुक्ति पाना अब असम्भव होता है, उन्हें
ना :: एक माटी
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भीतर ही भीतर
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आँखों से संघर्ष करते
अपने अस्तित्व को ही खां देते हैं
और
घृणास्पद, दुर्गन्ध, बीभत्स गीड़ का रूप धारण कर विद्रूप वन बाहर आते हैं
यह रजकण
यह सब प्रभाव
जो हम पर पड़ा है
समता के धनी श्रमण का है"
अन्त में यूँ कह, सेठ
भोजन प्रारम्भ करता किं
पुनः कलश की ओर से व्यंगात्मक भाषा का प्रयोग हुआ-"अरे सुनो !
कोप के श्रमण बहुत बार मिले हैं
होश के श्रमण होते विरले ही, और
उस समता से क्या प्रयोजन जिनमें इतनी भी क्षमता नहीं है जो समय पर, भयभीत को अभय दे सके,
श्रय-रीत को आश्रय दे सके ? यह कैसी विडम्वना हे भव-भीत हुए बिना
श्रमण का प धारण कर
अभय का हाथ उठा कर, शरणागत की आशीष देने की अपेक्षा,
मूकमाटी
:: 261
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अन्याय मार्ग का अनुसरण करने वाले रावण जैसे शत्रुओं पर
रणांगण में कूद कर राम जैसे
श्रमशीनों का हाथ उठाना ही
कलियुग में सत्ग ला सकता है,
धरती पर यहीं पर
स्वर्ग को उतार सकता है।
करे सर्विद्यागर की खा
श्रम
ऐसे कर्म-मीन कंगाल के
लाल-लाल गाल को
पागल से पागल श्रृंगाल भी खाने की बात तो दूर उना भी नहीं चाहेगा ।"
रही,
362: भूक गारी
इस पर भी अभी
कलश का उबाल शान्त नहीं हुआ,
खदबद खबट
खिचड़ी का पकना वह
अक्किन्न चलता ही रहा
और
सन्त के नाम पर और आक्रोश !
"कौन कहता है वह
कि
आगत सन्त में समता थी श्री पक्षपात की मुर्ति वह,
समता का प्रदर्शन भी दश प्रतिशत नहीं रहा समता-दर्शन तो दूर | जिसकी दृष्टि में अभी
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उच्च-नीच भेद-भाव है स्वर्ण और माटी का पात्र एक नहीं है अभी
समता का धनी हो नहीं सकता वह !
एक के प्रति राग करना ही दूसरों के प्रति द्वेप सिद्ध करता हैं,
जो रागी है और द्वेषी भी,
सन्त हो नहीं सकता वह और
नामधारी सन्त की उपासना से संसार का अन्त हो नहीं सकता, सही सन्त का उपहास और होगा: S ये वचन कटु हैं, पर सत्य हैं, सत्य का स्वागत हा !"
फिर,
सेठ की उपहास की दृष्टि से देखता हुआ कलश कहता है कि "गृहस्थ अवस्था में
नामधारी सन्त बह अकाल में पला हुआ हो
अभाव-भूत से घिरा हुआ हो
फिर भला कैसे हो सकता है बहुमूल्य वस्तुओं का भोक्ता : तभी तो....
दरिद्र नारायण सम
स्वर्णादि पात्रों की उपेक्षा कर
माटी का ही स्वागत किया है।
425 :: 369
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म्वण-कलश की कटता से कपित हा बिना, मादी के कुम्भ में भरे पावस ने पान-दान से पा यश उपशम-भाव में कहा, कि "तुममें पायस ना है तुम्हारा पाय सना है पाप-पंक से पूरा अपावन, पुण्य के परिचय से वंचित हो तुम, तभी तो पावन की पूजा रुचती नहीं तुम्हें पावन को पाखण्ट कहते हो तुम। जिसकी आँखों में काला पानी भी न हो.......: दख सकता वह इस दृश्य को। तुम्हारी पापिन आँखों ने पीलिया रोग को पी लिया है अन्यथा क्यों बनी है तुम्हारी काया पीली-पीली?
पर-प्रशंसा तुम्हें शूल-सी चुभती है कुम्भ के स्वागत-समादर से आग-बबूल हुए हो, जो भीतर होगा वही तो बाहर आएगा स्वयं मठा-महेरी पी कर औरों को क्षीर-भोजन कराते समय
दुकार आएगी तो "खट्टी ही ! तुम स्वर्ण हो उबलत हो झट से. माटी म्वर्ण नहीं है
kj4 :: मृग, माटो
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म्वणं को उगलती अवश्य, . तुम माटी के उगाल हो ।
आज तक. न सुना, न देखा
और न ही पढ़ा, कि स्वर्ण में वोया गया वीज अंकरित हा कर फूला-फना, लहलहाया हो पौधा बन कर।
हे म्वर्ण-मालश ! 2 .. ४
ओर देख कर जा वीभूत होता है वही द्रव्य अनमोन माना है। दया से दरिद्र द्रव्य किस काम का ? मार्टी स्वयं भीगती है दया से
और
औरों को भी भिगोती है। माटी में बोया गया वीज समुचित अनिल-सलिल पा पीपक तत्त्वों से पुष्ट-परित
सहस्त्र गुणित हो फलता हैं। माटो कं स्वभान-धर्म में अल्पकाल के लिए अत्यल्प अन्ना आना भी विश्व के श्वासों का विश्वास हा समाप्न। यानी प्रतवमान का आना ह।
एक बान और है कि * स्वर्ण-कलश।
पृक माटी :: 365
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बधार्ध में तुम सत्रणं हाते ता झिाव ... दिनकर का दुर्लभ दशन प्रतिदिन क्यों न होता तुम्हें ? हो सकता है दिवान्ध-तम प्रकाश स भय लगता हो तुम्हें, इसीलिए तो बहुत दूर भू-गर्भ में गाड़े जात हो तुम। सम्भव हैं रसातल में ग्स आता हो तुम्हें, तुम्हारी संगति करने वाला प्रायः दुर्गति का पथ पकड़ता है. या कहना असंगत नहीं है। तुम्हें देखने मात्र से बन्धन से साक्षात्कार होता है. वन्धन-वद्ध बन्धक भी हा तुम
भ्य और पर के लिए। परतन्ध जीवन की आधार शिना हो तुम, पूंजीवाद के अभेद्य दुर्गम किला हो तुम और अशान्ति कं अन्नहीन मिसिला !
टे, स्वयं कलश : ITE चार लो मेरा कहना मानो, का बना इन जीवन में, मा भाटी को अमाप मान झा भा। मां, मां, नाम लो अब !"
tili ::
मारी
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पायल का साहस इसके आगे नहीं होता देख यह लेखनी कुष्ठ और कहने की उद्यम-शीला होती है, कि "हे स्वर्ण-कलश ! गणियों का गुणगान करना तो दूर निटीपों को सदोष क्ता कर अपने दोषों को छुपाना चाहते हो तुम ! सन्त पर आक्रोश व्यका करना समता का उपहास करना मेट का अपमान करना। आदि-आदि ये अक्षम्य अपराध हैं तुम्हारे, तथापि उन्हें गौण कर मात्र तुम्हार सम्मुखमाटी की महिमा ही नहीं रखना दो उदाहरण प्रस्तुत कर तुम्हारा 'भो कितना मूल्य-गहत्त्व है, बताना चाहती हूँ"ली,
दीपक और मशान सामान्य रूप से दोनों प्रकाश के साधन .. पर. सोना के. गुण-धर्म मिन्न भिन्न । हद दो हाथ की यांनी उसका एक एंडर पर एम -पर-एक का कस-कस कर ािन्दयाँ बाँधी · मानी ,
..
. -
पारा
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:::: :...'
नीचे गहन हैग्थान गता है,
वस. ध मशाल है। मशाल कं मुख पर माटी मली जाती है । असंयत होता है, इसलिए। मशाल से प्रकाश मिलता है पर अत्यल्प ! .......... ......:.: :: उससे अग्नि की लपटें उठती हैं, राक्षस की लाल रमना-सी सुन लपटों को ज्योति नहीं कई मकन। मशाल अपव्ययी भी है, बार-बार तेल डालना पड़ता है उसकं मुख पर, वह भी मीठा तेल मन्यवान्।
हाँ ! हाँ ! कभी-कभी मनोरंजन के समय पर मशाल ल चलने वाला पुरुष अपने मन में मिट्टी का तेल भर कर आकाश में सुदर''हाथ उटा कर मशाल के मुख पर 'कता है, "तव एकाव पल में ही तेन सारा जल कर काल-काले बादल-से धूम के रूप में शुन्य में हीन-विलीन होता है। और मशान लगता है प्रनय कालीन अग्निकाण्ड-सम भयंकर ! घोड़ी-सी असावधानी "नो हा-हाकार, हानि-सा हानि:
आ . J7 पार
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फेंक मारने से मशाल बुझ नहीं सकता आने वाले का जीवन ही चुझ सकता है,
कोई साधक साधना के समय मशाल को देखते-देखते ध्यान धारणा साध नहीं सकता
"क इसमें पान की परत की "ध्येच यदि चंचल होगा, तो
कुशल व्याता का शान्त मन भी चंबल ही उगाही'
और भी ऐसे
कई दुर्गुण हैं मशाल के मिसाल कितने दूँ यूँ कह दूसरी उदाहरण की ओर मुड़ती है
यह लेखनी |
दीपक संयमशील होता है
बढ़ाने से चढ़ता है,
और
घटाने से घटता भी ।
अन्य मूल्य वाले गिट्टी के तेल से
पूरा भरा हुआ टीपक ही - अपनी गति से चलता है, तिल-तिल हो कर जलता है, एक साथ तेल को नहीं खाता, आदर्श गृहस्थ-सम
मितव्ययी है दीपक !
कितना नियमित, कितना निरीह !
छोटा-सा वालक भो - अपने कोमल करों में
मशाल की नहीं,
क्षेत्र पार्टी
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दीपक से चल सकता है प्रेम से। मशाल की अपेक्षा
अधिक प्रकाशप्रद है यह । उष्ण उच्छृंखल प्रलय-स्वभावी मिट्टी का तेल भी यह
दीपक का स्नेह पा कर
ऊर्ध्वगामी बनता है। पथ-भ्रष्ट एकाकी
अन्धकार से घिरा भयातुर कारी श्री
प दीपक को देखते हो अभीत होता है।
सुना श्मशान में,
भूतों के हाथ में मशाल होता है जिसे देखते ही
निर्भीक की आँखें भी बन्द होती है।
37 पाटी
लो, दीपक की लाल लौ
अग्नि-सी लगती, पर अग्नि नहीं स्व-पर- प्रकाशिनी ज्योति है वह जो स्पन्दनहीना होती है
जिसे अनिमेष देखने से साधक का उपयोग वह नियोग रूप से,
स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ता बढ़ता, शनैः शनैः
व्यग्रता से रहित हो
एकाग्र होता है कुछ ही पलों में ।
फिर, फिर क्या ?
समग्रता से साक्षात्कार !
दीपक की कई विशेषताएँ हैं कहाँ तक कहूँ !
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काई और छोर भी तो हो :
अस्तु,
हे स्वार्थ-कलश : तुम हो मशाल के समान, कलुषित आशयशाली
और माटी का कुम्भ है पथ-प्रदर्शक दीप-समान तामस-नाशी साहप्त सहस-स्वभावी !
:
स्वर्ण-कलश को मशाल की मम में .... .. ........ अपमान का अनुभव हुआ, एकाक्षिणी इस लेखनी ने मरी प्रशंसा के मिष इस निन्द्य-कार्य का सम्पादन किया, इसमें मेरा भी अपराध सिद्ध होता है, पर-निन्दा में मुझे निमित्त बनाया गया यूँ स्वयं को धिक्कारते हुए माटी के कुम्भ में दीर्घ श्वास लिया फिर, प्रभु से प्रार्थना प्रारम्भ :
'इन वैभव-हीन भन्यों की भवों-भवों में पराभव का अनुभव हुआ।
अव
पृ.
टी :: 71
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प्रभुपन पान से पूर्व एक की प्रशंसा
एक का प्रताड़न
एक का उत्धान
एक का पतन एक धनी, एक निर्धन
एक गुणी, एक निर्गुण
एक सुन्दर, एक बन्दर यह सच क्यों ?
'परा' भव का अनुभव वह कब होगा :--.
सम्भव है या नहीं
निकट भविष्य में
अविलम्ब बताओ, प्रभो !
इस गण-वैषभ्थ सं
इसे पीड़ा होती है, प्रभो !
देखा नहीं जाता
ओर
इसी कारण वाध्य हो कर आंखें बन्द करनी पड़ती हैं।
बड़ी कृपा होगी,
बड़ा उपकार होगा,
सथमं साम्य हो, स्वामिन्!"
पार्ट
कुम्भ की प्रार्थना से चिढ़ती हुई स्फटिक की झारी ने कहा कि,
"अरे पाणी !
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पाप-भरी प्रार्थना सं प्रभु प्रसन्न नहीं होते, पावन की प्रसन्नता वह
पाप के त्याग पर आधारित है। मैंने अग्नि की परीक्षा दी है ऐसा बार-बार कह कर,
जो
अपने को निष्पाप सिद्ध करना चाहता है यह पाप ही नहीं अपितु महापाप है।
तुममें इतना पाप का संग्रह है कि जो युगों-युगों तक जलाने से जल नहीं सकता, धुलाने से धुल नहीं सकता। प्रलय के दिनों में जल की ही नहीं, अग्नि की वर्षा भी तेरे ऊपर हुई कई वार ! फिर भी, तरी कालिमा में कुछ तो अन्तर आता ? अरे और सुन ! बाहर से भले ही दिखती हैं काली मेघ-घटाओं से घिरी सावण की अमा की निशा-सी बबूल की लकड़ी भी बह अग्नि-परीक्षा देती हैं। और बार-बार नहीं, एक ही वार में
भूक मारी :: 373
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अपने जीवन की रावणों में रीता रानी है ।
इसलिए
नम शुक्ष छविवाली राख बनी है।"
इस पर बीच में ही कुम्भ ने कहा,
ja
अग्नि परीक्षा के बाद भी सच कोयलों में बबूल के कोचले
काले भी तो होते हैं
यह वो बता दा!"
सुन
ली, उत्तर देती ने आगे : अं मतिमन्द, गन्ध, अनुपात से अग्नि का ताप काम मिलने से ही लकड़ियाँ पूरी न जल कर को का रूप ले लेती है, अन्यथा
वह राख में टलती ही है।
इस कार्य में
या तो आने का प
किंवा
1
लकड़ों में शेष रहा जन्गंश का किन्तु,
लकड़ी का दीप किचित् गी नहीं, इतनी साधारण-सी बात भी तुझे क्या ज्ञात नहीं
"]],], कहीं भी :
तेरे साथ अधिक वालना भी
शुक पार्ट
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दोषों का स्वागत करना है !"
और
मुख मोड़ लेती है झट से कुम्भ की ओर से झारी ।
"मेरे साथ वोलना भी यदि पाप है तो मत बोलो, मुझे देखने से यदि
ताप हो तो मत देखो,
परन्तु
अपनी बुद्धि से पाप के विषय में जो कुछ निर्णय लिया है तुमने वह विपरीत है
बस यही बताना चाहता हूँ । कम-से-कम इसे सुन तो लो !
कर्मदर्शक :- अश्री फितलो !"
और
कुम्भ का सुनाना प्रारम्भ हुआ 'स्व' को स्व के रूप में
'पर' को पर के रूप में
जानना ही सही ज्ञान हैं,
और
'स्व' में रमण करना
सही ज्ञान का 'फल' ।
विषयों का रसिक भोगों उपभोगों का दास,
इन्द्रियों का चाकर
और और क्या? तन और मन का गुलाम ही
पर-पदार्थों का स्वामी बनना चाहता है,
मूकमाटी 370
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ची. पा . भव पापा का माय !
...
जरी डारी । जरा अपनों और भी दख तेरी वृति प्रति कैसी है ? तुझमें दूध भरने से धवला हो कटती है,
तरी पारदर्शिता तय ... ...
माँ अनी जाती । घुत भरने से तू पीनी हा लेती
और इनु-रस कं यांग से हरी-भरी हो लसती है मरकन मणि की छवि लें । निर-निर चोग में हाव-भाव रंग-राग पल में पल लेती है तु, वासना से भरो अप्सरा-सी, बिक्रिया के बल पर
क्रिया प्रतिक्रिया कर लेती है। इतना ही नहीं तर निफः पट हा पदार्थ
का हो या पान
हो शा मुलान नक गण-धर्म की जागलान कर लाना है नगे मामिलामा सोमा प..
17 : AFपा
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________________
ľ
जात-पात को भी, हा लात लगा दी तूने ! लाज-लिहाज वाली
कोई वस्तु ही नहीं तेरे लिए ! इसे तू समता नहीं कह सकती न ही असीम क्षमता !
अब बकवाद मत कर
बक ने सबक ली है तेरी इस प्रकृति से ही !
. दूसरों से प्रभावित होना.. और
दूसरों को प्रभावित करना, इन दोनों के ऊपर
समता की छाया तक नहीं पड़ती।
तेरे रग-रग में
राग भरा है निरा।
भले ही बाहर से दिखती है
स्फटिक मणि की रची
उर्मिल उजली - तरली-सी
अरी, मायाविनी झारी !
कब तक छुपा सकती हैं राज़ को ?
Piew
अब मेरी प्रकृति का परिचय क्या हूँ ? जो कुछ है खुला है"
यूँ कुम्भ ने कहा,
"यह घट घूँघट से परिचित हुआ भी कब ? आच्छादन के नाम से
इस पर आकाश भर तना है
चाव-बचाव, सब कुछ इसी की छाँव में है ।
मूकमाटी
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पास यदि पाप हो तो छुपाऊँ, छपाने का साधन जुटाऊँ, औरों की स्वतन्त्रता वह यहाँ आ लुटती नहीं कभी, न ही किसी से अपनी मिटती है। किसी रंग-रोगन का मुझ पर प्रभाव नहीं, सदा-सर्वथा एक-सी दशा है मेरी इसी का नाम तो समता है इसी समता की सिद्धि के लिए ऋषि-महर्षि सन्त-साधु-जन माटी की शरण लेते हैं,
यानी
भू-शयन की साधना करते हैं और
समता की सखी, मुक्ति वह सुरों-असुरों-जलचरों और नभश्चरों को नहीं, समता-सेवी भूचरों को बरती है। अरी झारी, समझी बात ! माटी को वायली समझ बैठी तू पाप की पुतली कहीं की !"
और कुम्भ डूबता है मौन में
पाप की पुतली के रूप में झारी को मिला सम्बोधन इसको सुन कर
:: पूक मार्टी
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झारी में भरा अनार का रस वह और लाल हो उठा। अपने सम्मुख स्वामी के अपमान को देख क्या सही सेवक तिलमिलाता नहीं ? आधार का हिलना ही आधेय का हिलना है। और उत्तेजित स्वर में रस कहता है कि, "सेठ की शालीनता की मात्रा, श्रमण की श्रमणता समता-सलीनता की छवि कितनी है, किस कारण हैयह सब ज्ञात है हमें। पानी कितना गहरा है
तट-स्पर्श से भी जाना जा सकता है।" और . . . . . . . . . . .. . सीसम के श्यामल आसन पर चाँदी की चमकती तश्तरी में पड़ा-पड़ा केसरिया हलवाजिस हलवे में एक चम्मच शीर्षासन के मिष अपनी निरुपयोगिता पर लज्जित मुख को छुपा रहा है, अनार का समर्थन करता हुआ कहता है
कि
श्रमण की सही भीमांसा की तुमने
और सन्त से उपेक्षित होने के कारण घृत की अधिकता के मिष डबडबाती आँखों से रोता-सा ।
मूक माटी :: :379
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सन्त की शरण लेने की आशा से घृत की सुवास आती है सन्त की नासा तक। और ज्य. ही, . ... ... .. ... ... ....: . नासिका में प्रवेश का प्रयास हुआ कि विरेचक-विधि की लात खा कर भागती-भागती आ घृत से कहती है, कि "सन्त की शरण, बिना आसिका है भीतर-विभीषिका पलती है वहाँ, वह नासिका बिनाशिका है सख की बिना शिकायत यहीं रहना चाहती हूँ अब मुझे वहाँ मत भेजो !"
लो, इधर"फिर से केसर ने भी अपना सर हिलाते हुए आश्चर्य प्रकट किया, कि अशरण को शरण देना तो दूर, उसे मुस्कान-पली दृष्टि तक नहीं मिली।
जिनके सर के केश रहे कहाँ काले, श्रमण भेष धारे वर्षों - युगों व्यतीत हुए पर, श्रामण्य का अभाव-सा लगता है सर होते हुए भी बिसर चुके हैं अपने भाव-धर्म। वह सर-दार का जीवन असर-दार कहाँ रहा ? अब सरलता का आसार भी नहीं, तन में, मन में, चेतन में।
380 :: मूक माटी
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अवसर सरक चुका है अतीत के असीम बन में। मानता हूँ, कि सदा-सदा मे. ज्ञान ज्ञान में ही रहता, ज्ञेय ज्ञेय में ही, तथापि ज्ञान का जानना ही नहीं झंयाकार होना भी स्वभाव है, तो"इस ओर देखने में
हानि क्या थी? लगता है ज्ञेयों से भय लगता हो नामधारी सन्त के ज्ञान को, ऐसी स्थिति में निश्चित ही स्वभाव समता से विमुख हुआ जीवन अमरत्व की ओर नहीं समरत्व की ओर, मरण की ओर, लुढ़क रहा है।
और सुनी ! उच्च स्वर में केसर ने कहा : जीवन का, न यापन ही नयापन है और नैयापन !
इस भाँति, कुम्भ और अन्य पात्रों के बीच वाद-विवाद होता गया,
मूक माटी :: 31
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अब तक इधर
परिवार का भोजन 'आज का अनुभव न ही अभाव का
साधु वन कर
स्वाद से हट कर
संवाद की बात गौण हुई क्रम-क्रम से
प्रायः सव पात्रों ने
माटी के पात्र को उपहास का पात्र ही बनाया,
उसे मूल्यहीन समझा ।
प्रायः बहुमत का परिणाम यही तो होता है,
पात्र भी अपात्र की कोटि में आता है
1382 :: मुक्त भारी
फिर, अपात्र की पूजा में पाप नहीं लगता । दुर्जन- व्यसनी की भाँति
भाँति-भाँति के व्यंजनों ने
श्रमण की समता
अभिनय के रूप में ही देखी और
खुल कर
सेठ और श्रमण की अविनय की ।
न भव का
यथार्थ में,
बस
भोजन का प्रयोजन विदित हुआ,
पूर्ण हो चुका है, तो अनुभव
है'
साध्य की पूजा में डूबने से योजनों दूर वाली मुक्ति भी वह
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. ..:.:
साधक की ओर दौड़ती-सी लगती है सरोज की ओर रवि किरणावली-सी। कुछेक दिन तक . . : ... . . ... . .. ... .. बीच-बीच में रुक-रुक कर विजली की कौंध-सी चलित-विचलित हो शान्त होती गई बाहर से वाद-विवाद की स्थिति, इन पात्रों की। भीतरी बात दूसरी है अवा की ऊष्मा-सी वह तो बनी ही रहती प्रायः तन-धारकों में, सब में।
एक पक्ष का संकल्प जो था सो सम्पन्न हुआ सानन्द, और कृष्ण-पक्ष का आगमन हुआ। दैनिक कार्यक्रमों से निवृत्त हो निद्रा की गोद में सो रहा पूरा परिवार, परन्तु बार-बार करवटें ले रहा सेठ, निद्रा की कृपा उस पर नहीं हुई,
और निशा कट नहीं रही है,
बहुत लम्बी-सी लग रही वह । सेठ का तन आमूल-चूल तवा-सम तप रहा है लगभग जलांश जल चुका है तभी तो रुक-रुक कर रुदन होने पर भी
मूक पाटी ::
:
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उसकी आयत आँखों में आँसुओं का आना रुक गया है और अन्दर का आर्त अन्दर ही अवरुद्ध हो घुट रहा है। बार-बार पलकों की टिमकार से आँखों में जलन का अनुपात बढ़ रहा है मन्द-मन्द एनर-नालन से .. .. . : ... ... .... .... ... .... प्रथम तो अग्नि सुलगती है, फिर, प्रबल प्रदीप्त होती ही है।
यद्यपि इस बात का प्रबन्ध है कि सेठ जी के शयन-कक्ष में खिड़कियों से हो-हो कर मन्द-शीतल-शीलगला पवन प्रवेश पाता है प्रतिपल
परन्तु,
सेठ के मुख से निकलती हुई उष्णिल श्वासों की लपटों से पूरा माहौल धगधगाहट में
बदल ही जाता है। कृपा-पालित कपाल से पलायित-सी हुई कृपा
और लाल-लोहित कपाल बना सेठ का, जिस पर बैठने को मचलता हुआ भी, एक मच्छर जो रुधिर-जीवी है, घबरा रहा है, बैत नहीं रहा ।
SHA :: मूक माटी
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...
कारण, कपाल तक पहुंचते ही मच्छर की प्यास दुगुणी हो उठी, । अंग पूरा तप गया, कण्ठ पूरी सूख गया, पंख दोनों शिथिल हुए,
और उत्कण्ठा कहीं उड़ गई ।
और मच्छर वह गुनगुनाहट के मिष यूँ कहता हुआ उड़ गया, कि
"अरे, धनिकों का धर्म दमदार होता है, उनकी कृपा कृपणता पर होती है, उनके मिलन से कुछ मिलता नहीं, काकी काय से : :: :... :..: कुछ मिल भी आय वह मिलन लवण-मिश्रित होती है
पल में प्यास दुगुणी हो उठती है। सर्वप्रथम प्रणिपात के रूप में उनकी पाद-पूजन की, फिर स्वर लहरी के साथ गुणानुवाद-कीर्तन किया उनके कर्ण-द्वार पर। फिर भी मेरी दुर्दशा यह हुई !"
अपने मित्र मच्छर से सेट की निन्दा सुन कर दक्षिणा के रूप में रक्त-ब्रूट का प्यासा
मूक माटो :: 385
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सेठ की प्रदक्षिणा लगाता मक्कण कहता है, कि .. "क्या कहें है सखे ! सही समय पर सही दिशा दी तुमने दम्भी लोभी-कृपण की परिभाषा दी तुमने, कब से चली आती कब तक चली जाती
यह
भ्रान्ति-निशा मिटा दी तुमने, मानव के सिवा इतर प्रांगण. .... अपने जीवन-काल में
परिग्रह का संग्रह करते भी कब ? इस बात को मैं भी मानता हूँ कि जीवनोपयोगी कुछ पदार्थ होते हैं, गृह-गृहणी घृत-घटादिक उनका ग्रहण होता ही है इसीलिए सन्तों ने पाणिग्रहण संस्कार को धार्मिक संस्कृति का संरक्षक एवं उन्नायक माना है। परन्तु खेद है कि लोभी पापी मानव पाणिग्रहण को भी प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।
प्रायः अनुचित रूप से सेवकों से सेवा लेते
AHG :: मुक माटी
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.........
और वेतन का वितरण भी अनुचित ही। वे अपने को बताते मनु की सन्तान ! महामना मानव !. .. दने का नाम सनते हो इनके उदार हाथों में पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं, फिर भी, एकाध बूँद के रूप में जो कुछ दिया जाता या देना पड़ता
वह दुर्भावना के साथ हीं। जिसे पाने वाले पचा न पाते सही अन्यथा हमारा रुधिर लाल होकर भी इतना दुर्गन्ध क्यों ?"
और रुष्ट हुए बिना मत्कुण बह दक्षिणा की आशा से विरत हो प्रदक्षिणा-कार्य तज कर सेट को कहता है, कि "सूखा प्रलोभन मत दिया करो स्वाश्रित जीवन जिया करो, कपटता की पटुता को जलांजलि दी ! गुरुत्ता की जनिका लघुता को श्रद्धांजलि दो ! शालीनता की विशालता में आकाश समा जाय और
मूक माटी :: 317
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जीवन उदारता का उदाहरण बने ! अकारण हीपर के दुःख का सदा हरण हो !" अन्त में अपना मन्तव्य और रखता है मत्कुण :
मैं कण हूँ, मन नहीं, में धन नहीं है, अत: ... ... ... ... किसी के मरण का कारण रण नहीं हूँ। मैं ऋणी नहीं हूँ किसी का बली भी नहीं हूँ, न ही किसी के बल पर जी रहा हूँ, जीना चाहता हूँ ! मैं बस हूँ" ऐसा ही रहना चाहता हूँ। मेरे पास न कोई मन्त्र है, न यन्त्र न ही कोई षड्यन्त्र। मेरा समग्र जीवन नियन्त्रित हैं। मैं छली नहीं हूँ, किसी के छिद्र देखता नहीं छिद्र में रहता अवश्य !"
और छोटे से छिद्र में जा
प्रविष्ट होता है मत्कुण। मत्कुण के माध्यस्थ मुख से मौलिक वचन सुन कर सेट का मन मुदित हो उठा, और प्रशिक्षित भी !
8 :: मूक पाटी
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निशा का बिखरना
और ऊषा का निखरना अति मन्द गति से हुआ। प्रतीक्षा की घड़ियाँ, बहुत लम्बी हुआ करती हैं ना ! और वह भी दुःख भरी वेला मेंकहना ही क्या !
वैसे,
सुख का काल अकूल सागरोपम भी सरपट भागता है अनन्य गति से, पता नहीं चलता कब किस विध और कहाँ
चला जाता वह ? प्रभातकाल की बात है: एक-से-एक अनुभवी चिकित्सा-विद्या-विशारद विश्वविख्यात वैद्य सेठ की चिकित्सा हेतु आगत हैं, जिनमें ऐसे भी मेधावी हैं जो रोगी के मुख-दर्शन मात्र से रोग का सही निदान कर लेते हैं; कुछ तो रोगी की रसना का रंग-रूप लख कर ही, कुछ नाड़ी की फड़कन से
पूक माटी ::389
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और नख-दृग-लालिमा की तर-तमता से रोग को पहचान पाते हैं। एक वैद्य वह भी आया है जिसने अपने जीवन में परम-पुण्य का पाक पा कर सुदीर्घ साधना-साधित अनन्य-दुर्लभ वर-बोध में सफलता पाई है। मन्त्र-तन्त्रवेत्ता, अरिष्ट-शास्त्र का वरिष्ट ज्ञाता भी हैं।
सबने अपनी-अपनी विधाओं से सेड का निरीक्षण किया, रुक-रुक कर अर्द्ध-मूछित-सी दशा हो आती है, निद्रा से घिरी-सी काया की चेष्टा है
पर, वचन की चेष्टा नहीं के बराबर : क्रमश: सबने अपने-अपने निर्णय लिये सबका अभिमत एक रहा
दाह का रोग हुआ है आहू का योग हुआ है, एक ही दिशा में एक ही गति से चाह का भोग हुआ है। और
330 :: मृक माटी
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चिकित्सकों का कहना हुआइन्हें इतनी चिन्ता नहीं करनी चाहिए थोड़ी-सी
तन की भी चिन्ता होनी चाहिए,
तन के अनुरूप वेतन भी अनिवार्य है, मन के अनुरूप विश्राम भी ।
मात्र दमन की प्रक्रिया से
कोई भी क्रिया वह फलवती नहीं होती है, केवल वेतन चैतमा ले चिन्तन-मनन से
कुछ नहीं मिलता !
I
प्रकृति से विपरीत चलना साधना की रीत नहीं है बिना प्रीति, विरति का पलना साधना की जीत नहीं है, 'भीति बिना प्रीति नहीं इस सूक्ति में
एक कड़ी और जुड़ जाय ।
तो बहुत अच्छा होगा, कि
'प्रीति बिना रीति नहीं
और
रीति बिना गीत नहीं'
अपनी जीत का - साधित शाश्वत सत्य का ।
यह बात सही है कि
पुरुष होता है भोक्ता
और
भोग्या होती प्रकृति ।
मूकमाटी 391
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--:':
जब भोक्ता रस का स्वाद लेता है. ताड़-प्यार से लार का सिंचन कर रस को और सरस बनाती है रसना के मिष प्रकृति भी। लीला-प्रेमी द्रष्टा पुरुष अपनी आँखों को जब पूरी तरह विम्फारित कर दृश्य का चाव सदशन करता ह............ तब, क्या ?" प्रमत्त-विरता प्रकृति सो पलकों के बहाने
आँखों की बाधाओं को दूर करती पल-पल सहलाती-सी"! पुरुष योगी होने पर भी प्रकृति होती सहयोगिनी उसकी, साधना की शिखा तक साथ देती रहती वह, श्रमी आश्रयार्थी को आश्रय देती ही रहती सदोदिता स्वाश्रिता हो कर !
यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं है कि पुरुष में जो कुछ भी क्रिया-प्रतिक्रियाएँ होती हैं, चलन - स्फुरण - स्पन्दन, उनका सवका अभिव्यक्तीकरण, पुरुष के जीवन का ज्ञापन प्रकृति के ऊपर ही आधारित है। प्रकृति यानी नारी
392 :: मूक माटी
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________________
अन्त में
यह भी ज्ञातव्य है कि
प्रकृति में वासना का वास ना है सुरभि यानी
नाड़ी के विलय में
पुरुष का जीवन ही समाप्त !
सुवास का वास अवश्य है । विविध विकार की दशा में
पुरुष वासना का दास हो वासना की तृप्ति हेतु परिक्लान्त पधिक की भाँति
प्रकृति की छाँव में
आँखें बन्द कर लेता हैं,
और
यह अनिवार्य होता हैं पुरुष के लिए तब !
इमली का सेवन तो दूर रहे
इमली का स्मरण भी
मुख में पानी लाता है स्वस्थ के नहीं,
प्यास से पीड़ित पुरुष के । यह तो स्वाभाविक है,
किन्तु
आश्चर्य की बात तो यह है, कि
भोक्ता के मुख में जा कर भी कभी भी...
इमली के मुख में पानी नहीं आता । हाँ! हाँ !
रक्ता - आसक्ता-सी लगती है। पुरुष में प्रकृति तब !
पूक माटी 998
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________________
k: !
यही तो पुरुष का पागलपन है
पामर-पन
जो युगों-युगों से विवश हो,
हवस के वश होता आया है,
और
यही तो प्रकृति का
पावन - पन है पारद - पन
जो युगों-युगों से
परवश हुए बिना, स्व-वश हो
पावस बन बरसती है, और पुरुष को
विकृत-वेष आवेश से छुड़ा कर स्ववश होने को विवश करती, पथ प्रशस्त करती है।
394 मूक माटी
........
पुरुष और प्रकृति
इन दोनों के खेल का नाम ही संसार है, यह कहना
मूढ़ता है, मोह की महिमा मात्र ! खेल खेलने वाला तो पुरुष हैं और
पा लिया
प्रकृति और पुरुष का परिचय,
प्रकृति खिलौना मात्र !
स्वयं को खिलौना बनाना
कोई खेल नहीं है,
विशेष खिलाड़ी की बात है यह !
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वेद मिला, भेद खुला'प्रकृति का प्रेम पाये बिना पुरुष का पुरुषार्थ फलता नहीं' चिकित्सकों के मुख से निष्कर्ष के रूप में परिवार ने सुन स्वीकार लिया यह, और सविनय निवेदन किया कि “सेठ जी ने आरोग्य भी प्राप्त हो. . . . . . . . . . . रोग का प्रतिकार हो ऐसा उपचार हो बताया गया पथ्य का पालन शत-प्रतिशत किया जाएगा, जो कहो, जैसा कहो सो वैसा स्वीकार है।
राशि की चिन्ता न करें मान-सम्मान के साथ वह तो मिलेगी ही, पुरुष की सेवा के लिए सदा तत्परा मिलती जो दासी-सी
छाया की ललित छवि-सी'! वैसे चिकित्सकों की दष्टि वह राशि की ओर कभी मुड़ती ही नहीं, मुड़नी भी नहीं चाहिए, मर्यादा में जीती-सुशीला कुलीन-कन्या की मति-सी, फिर भी कलियुग का अपना प्रभाव भी तो है
मूक माटो :: :45
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जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ नहीं पाता यदि चढ़ भी जाय
दृढ़ रह नहीं पाता। सुन भी रहे
. देख भी तो रहे कि
.......
396 :: मूकमाटी
सकल-कलाओं का प्रयोजन बना है
केवल
अर्थ का आकलन संकलन ।
आजीविका से छी छी जीभिका-सी गन्ध आ रही है,
नासा अभ्यस्त हो चुकी है और
इस विषय में खेद हैंआँखें कुछ कहती नहीं ।
किस शब्द का क्या अर्थ है,
यह कोई अर्थ नहीं रखता अव !
है
कला शब्द स्वयं कह रहा कि 'क' यानी आत्मा सुख 'ला' यानी लाना देता है कोई भी कला हो
कला मात्र से जीवन में सुख-शान्ति सम्पन्नता आती है
न अर्थ में सुख है न अर्थ से सुख !" वैषयिक लोभ-लिप्सा से दूर परिवार के मुख से
कला-विषयक कथन सुन चिकित्सक दल सचेत हुआ जिसे देख कर परिवार भी
-
-
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प्रासंगिक परिचर्चा में पर्याप्त परिवर्तन लाता है
और कुछ निवेदन करता है कि, चीच में ही माटी का कुम्भ बोल पड़ा : “जहाँ तक पथ्य की बात है सो" सब चिकित्सा-शास्त्रों का
एक ही मत है, बसपथ्य का सही पालन हो तो औषध की आवश्यकता ही नहीं, और यदि पथ्य का पालन नहीं हो"तो भी औषध की आवश्यकता नहीं।
इस पर भी यदि औषध की बात पूछते हो,
सुन लो ! तात्कालिक तन-विषयक-रोग ही क्या, चिरन्तन चेतन-गत रोग भी
जनन-जरन-मरण रूप है नव-दो-ग्यारह हो जाता है पल में, श, स, प ये तीन बीजाक्षर हैं इनसे ही फूलता-फलता है वह आरोग्य का विशाल-काय वृक्ष ! इनके उच्चारण के समय पूरी शक्ति लगा कर
मूक माटी :: 397
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श्वास को भीतर ग्रहण करना है
और नासिका से निकालना है
ओंकार-ध्वनि के रूप में। यह शकार-त्रय ही स्वयं अपना परिचय दे रहा है कि 'श' यानी कषाय का शमन करने वाला, शंकर का द्योतक, शंकातीत, शाश्वत शान्ति की शाला! 'स' यानी समग्र का साथी जिसमें समष्टि समाती, संसार का विलोम-स्वरूप सहज सुख का साधन समतों का अजसोत! . . . . . ... .
और 'ष' की लीला निराली है। प के पेट को फाड़ने पर 'ष' का दर्शन होता है'प' यानी पाप और पुण्य जिनका परिणाम संसार है, जिसमें भ्रमित हो पुरुष भटकता है इसीलिए जो पुण्यापुण्य के पेट को फाड़ता है 'ष' होता है कर्मातीत । यह हुआ भीतरी आयाम, अब बाहरी' भी सुनो !
3SIN :: मूक माटी
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::
और सुनो, भू का पना पाटी है तभी तो
भूत की माँ भू हैं, भविष्य की माँ भी भू । है.
भाव की
प्रभाव की माँ भी भू ।
भावना की माँ भू है, सम्भावना की माँ भी भू । भवानी की माँ भू है,
भूधर की माँ भू है,
भूचर की माँ भी भू । भूख की माँ भू हैं, भूमिका की माँ भी भू ।
भव की माँ भू है, वैभव की माँ भी भू
और
स्वयम्भू की माँ भी भू तीन काल में
तीन भुवन में
सबकी भूमिका भू ।
भू के सिवा कुछ दिखता नहीं
भू'"भू"भू ं'भू
यत्र तत्र सर्वत्र भू । 'भू सत्तायां' कहा हैं ना कोषकारों ने युग के अथ में !
यह सूक्ति गुनगुना रहीं हैं : 'माटी, पानी और हवा
सौं रोगों की एक दवा
मूक पाटी : 394
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यह उपचार तो स्वतन्त्र है अपव्ययी नहीं, मितव्ययी है। इसके प्रयोग से
किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं होती तन और मन के किसी कोने में ।
जल से भरे पात्र में
गिरा तप्त लौह-पिण्ड वह
चारों ओर से जिस भाँति
छूने को मन मचले ऐसी छनी हुई कुंकुम-मृदु- काली माटी में नपा- तुला शीतल जल मिला,
उसे ध-रौंध कर
जल को सोख लेता है,
उसी भाँति टोप भी
मस्तक में व्याप्त उष्णता को
एकमेक लोंदा बना,
एक टोप बना कर मूर्च्छा के प्रतिकार हेतु सर्व प्रथम,
सेठ जी के सर पर चढ़ाया गया।
प्रति-पल पीने लगा ।
ज्यों-ज्यों उष्णता का अनुपात
41000 सुक माटी
Re:
घटता गया
त्यों-त्यों जागृति का प्रभात
प्रकटता गया |
A:
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यह लो,
अधरों के सूक्ष्म स्पन्दन से अनुमान झलकने लगा कि ओंकार पद के उच्चारण का उद्यम उत्साहित हो रहा है।
वैसे
त्रिभुवन-जेता त्रिभुवन-पाल ओंकार का उपासन
भीतर-ही-भीतर चल ही रहा है
जो
सुदीर्घ साधना का फल है ।
परा वाक् की परम्परा पुरा अश्रुता रही, अपरिचिता लौकिक शास्त्रानुसार वह 'योग - गम्या' मानी है, मूलोद्गमा हो, ऊर्ध्यानिना नाभि तक यात्रा होती है उसकी पवन - संचालिता जो रही ! फिर वही
नाभि की परिक्रमा करती पश्यन्ती के रूप में उभरती है,
नाभि के कूप में गाती रहती तरला तरंग - छवि वाली ।
पर,
निरी निरक्षरा होती हैं, साक्षरों की पकड़ में नहीं आती विपश्यना की चर्चा में डूबे संयम से सुदूर हैं जो ।
मुक पाटी : 401
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फिर वहीं पश्यन्ती उदार-उर की ओर उठती है हिलाती है आ हृदय-कमल को, खुली प्रति पाखुरी से मुस्कान-मिले बोल बोलती उन्हें सहलाती है माँ की भाँति ! हृदय-मध्य में मध्यमा कहलाती है अब।
और, जाने हम, कि पालक नहीं, वालक हीजो विकारों से अछूता है माँ का स्वभाव जान सकता है। फिर वही मध्यमा अब, अन्तर्जगत से बहिर्जगत् की ओर यात्रा प्रारम्भ करती हैं। पुरुष के आभप्रायानुरूप : प्रायः पुरुष का अभिप्राय दो प्रकार का मिलता हैपाप और पुण्य के भेद से।
सत्पुरुषों से मिलने वाला वचन-व्यापार का प्रयोजन परहित-सम्पादन है
और पापी-पातकों से मिलने वाला बचन-व्यापार का प्रयोजन परहित-पलायन, पीड़ा है। तालु-कण्ठ-रसना आदि के योग से जब बाहर आती है वही मध्यमा, जो सर्व-साधारण श्रुति का विषय हो वैखरी कहलाती हैं।
402 :: मूक मार्टी
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स्था और सामु निक्षती . . . . .. . वाणी का नामकरण एक ही क्यों ? ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। एक-सी लगती है, पर एक है नहीं वह । यहाँ पात्र के अनुसार अर्थ-भेद ही नहीं शब्द-भेद भी है।
सज्जन-मुख से निकली वाणी 'वै' यानी निश्चय से 'खरी' यानी सच्ची है, सुख-सम्पदा की सम्पादिका। मेय से छूटी जल की धारा इक्षु के आश्रय पा कर क्या मिश्री नहीं बनती ? और दुर्जन-मुख से निकली वाणी 'वे' यानी निश्चय से 'खली' यानी धूर्ता-पापिनी है, सारहीना विपदा-प्रदायिनी वही मेघ से छूटी जल-धारा नीम की जड़ में जा कर
क्या कटुता धरती नहीं ? यहाँ पर 'ली' के स्थान पर 'री' का प्रचलन हुआ है प्रमाद या अज्ञान से,
मूक पाटी :: 403
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:::: ...::..
मूल में तो, 'ली' का ही प्रयोग है यानी 'धैरखली' ही है। इस पर भी ऋमिः .. ... ..... : वैखरी यही पाठ स्वीकृत होतो हम इसका अर्थ भिन्न पद्धति से लेते हैं, कि 'ख' का अर्थ होता है शून्य, अभाव ! इसलिए 'ख' को छोड़ कर शेष बचे दो अक्षरों को मिलाने पर शब्द बनता है 'वैरी दुर्जनों की वाणी बह, स्व और पर के लिए वैरी का ही काम करती है अतः उसे बैं-खली या वैरी मानना ही समुचित है
"समस्तु !
सहज भाव से शुद्ध उच्चारण के साथ शुद्ध तत्त्व की स्तुति की, सेठ ने। परिवार के साथ वार्ता हुई, वैद्यों का भी परिचय मिला वेदना का अनुभव बता दिया, परन्तु अविकल-चलन के कारण
114 :: मूक पाटी
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:
आँखें खुल नहीं पा रहीं अभी. प्रकाश को देखने की क्षमता अभी उनमें आई नहीं है। रत्नों की कोमल किरणें तक
एकी बिगड़ी सी लगती हैं, अनखुली आँखों को लख कर कुम्भ ने पुनः कहा कि "कोई चिन्ता की बात नहीं
मात्र हृदय स्थल को छोड़ कर शरीर के किन्हीं भी अवयवों पर माटी का प्रयोग किया जा सकता है।
पक्वापक्व रुधिर से भरा घाव हो, भीतरी चोट हो या बाहरी, असहनीय कर्ण - पीड़ा हो, ज्वर से कपाल फट रहा हो, नासा की नासूर हो, शीत से बहती हो
या उष्णता से फूटती हो वह और
शिरःशूल आधा हो या पूरा
इन सब अवस्थाओं में
माटी का प्रयोग लाभप्रद होगा । यहाँ तक कि
हस्त पाद की अस्थि टूटी हो माटी के योग से जुड़ सकती हैं
अविलम्ब !
कुछ ही दिनों में पूर्ववत्
कार्यारम्भ !
मूक घाटी 405
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कहाँ तक कही जाय माटी की महिमा, तुला कहाँ है वह, तोलें कैसे? किससे तुलना करें माटी की
यहाँ पर ? तोल-मोल का अर्थ द्रव्य से नहीं, वरन् भाव, गुण-धर्म से है।"
कुम्भ का इतना कहना ही पर्याप्त था कि माटी की दो-दो तोले की दो-दो गोलियाँ बना पूड़ियाँ-सी उन्हें आकार दे कर दोनों आँखों के ऊपर रखी गई, और कुछ ही पलों में वैद्यों ने देखे
सफलता के लक्षण : सो घड़ी-घड़ी के बाद नाभि के निचले भाग पर भी रुक-रुक, पलट-पलट कर दिन में और रात्रि में छह-सात वार, छह-सात बार यही प्रयोग चलता रहा, यथाविधि ।
माटी के सफल उपचार से चिकित्सक-दन प्रभावित हो, भोजन-पान के विषय में भी अपना अभिमत बनाता है कुम्भ के अनुरूप, कि भाटी के पात्र में तपा कर
11 :: मूक माटी
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दूध को पूरा शीतल बना पेय के रूप में देना है रोगी को,
किंवा
उसी पात्र में अनुपात से जामन डाल दूध को जमा कर
"
मथानी से मथ मथ कर
पूरा नवनीत निकाल
निर्विकार तक का सेवन कराना है।
मुक्ता-सी उजली-उजली
मधुर- पाचक- सात्त्विक
कर्नाटकी ज्वार की
रवादार दलिया जो
अधिक पतली न हो तक के साथ देना है
पूर्वाह्न के काल में,
सन्ध्याकाल टाल कर
क्योंकि
सन्धि-काल में सूर्य-तत्त्व का
अवसान देखा जाता हैं
और
सुषुम्ना यानी
उभय-तत्त्व का उदय होता है
जो
ध्यान-साधना का
I
उपयुक्त समय माना गया है योग के काल में भोग का होना
रोग का कारण है,
और
भोग के काल में रोग का होना शोक का कारण है ।
मूक पाटी : 407
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फिर कब"इसशोक-सिलसिला का अन्त''वह : जव काल-प्रवाह का सुदूरखिसकना हो तब कहीं। अशोक-वृक्ष की श्यामल छाँव मिले !
कुछ ही दिनों में कुछ-कुछ नहीं सब कुछ अच्छा, अतुच्छा हुआ, दाह की स्वच्छन्दता छिन्न-भिन्न हुई इस सफल प्रयोग से।
कवि की स्वच्छ-भावों की स्वच्छन्दता-ज्यों .... तशाह के छन्दों को देख कर . :
अपने में ही सिमट-सिमट कर
मिट जाती है, आप ! शास्त्र कहते हैं, हम पढ़ें औषधियों का सही मूल्य रोग का शमन है। कोई भी औषधि हो हीनाधिक मूल्य वाली होली नहीं, तथापि श्रीमानों, धीमानों की आस्था इससे विपरीत रीत बाती हुआ करती है,
और जो बहुमूल्य औषधियों पर ही टिकी मिलती है। सेठ जी इस बात के अपवाद हैं।
408 :: मूक माटी
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चिकित्सक दल का सत्कार किया गया, सेवानुरूप पुरस्कृत हुआ बह और
यह सब यमत्कार
माटी के कुम्भ का ही है उसी का सहकार भी,
अहिंसापरक चिकित्सा पद्धति जीवित रहे चिर
बस इसी सदुद्देश से
हर्ष से भीगी आँख ले
विनय अनुनय से नम्रीभूत हो
स्वयं सेठ ने अपने करों से
नव अंक वाली लम्बी राशि दल के करों में दे दी
और
दल की प्रसन्नता पर
अपने को उपकृत मानी ।
जाते-जाते सेठ जी की ओर मुड़ कर दल ने कहा कि
धन्यवाद देते,
आभार मानते प्रस्थान !
हम तो निमित्त मात्र उपचारक और
"एक बार और लौट आई है घड़ी अपने सम्मुख
आत्मग्लानि की
मानहानि की '
पृक पाटी :: AIMP
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और यूँ कहता हुआ डूब जाता है उदासी में स्वर्ण-कलश विवश हो, आत्मा की आस्था से च्युत
निष्कर्मा वनवासी-सम ! एक बार और अवसर प्राप्त हुआ है इन कुलीन कर्णों को कुलहीनों की कीर्ति-गाथा सुनना है अभी ! और वह भी धन के लोभ से घिरे सुधी-जनों के मुख से। ओह ! कितनी पीड़ा है यह, सही नहीं जा रही है कानों में कीलें तो ठोक लूँ !
धुंधली-धुंधली-सी दिख रही है सत्य की छवि वह सन्ध्या की लाली भी डूबने को है,
और एक बार दृश्य आया है इस पावन आँखों के सम्मुख । पतितों को पाचन समझ, सम्मान के साथ उच्च सिंहासन पर विटाया जा रहा है।
और पाप को खण्डित करने वालों को
पाखण्डी-छली कहा जा रहा है। ऐसी आशा नहीं थी इस नासा को न ही विश्वास था कि एक बार और इस ओर
411 :: मूक माटी
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दाइती आएगी रूखी लहर, मानवता के पतन की दुर्गन्ध
और नाजुक नथुनों को, नापाक कर मुच्छित कर देगी ! इस पर भी, रोष को तोष नहीं मिला कुछ और कहता है स्वर्ण-कलश चिन्ता से घिरी गम्भीर मुद्रा में
“इसे कलिकाल का प्रभाव ही कहना होगा किंवा अन्धकार-मय भविष्य की आभा,
मौलिक वस्तुओं के उपभोग से विमुख हो रहा है संसार ! और लौकिक वस्तुओं के उपभोग में
प्रमुख हो रहा है, धिक्कार ! झिलमिल-झिलमिल करती मणिमय मालाएँ मंजुल-मुक्ता की लड़ियाँ, झारझुर झुरझुर करते अनगिन पहलूदार उदार हीरक-हार, तोते की चोंच को लजाते गूंगे-से मूंगे, नयनाभिराम नीलम कं नगजिन्हें देख कर मयूर-कण्ट की नीलिमा नाच उठती है,
मूक माटी :: 4]]
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केशर बिखेरते पुखराज, पारदर्शक स्फटिक,
अनल-सम लाल हो कर भी शान्त किरणों के पुंज माणिक इन सबसे केवल
शीतलता ही नहीं मिलती हमें
मधुमेय खास श्वास य आदि-आदि राज-रोगों का उपशमन भी होता है इनसे, और, प्रायः जीवन पर
ग्रहों का प्रतिकूल प्रभाव भी नहीं पड़ता, किन्तु आज ।
काँच - कचरे को ही सम्मान मिल रहा है ।
112: मूकमाटी
-
-
NDT 2533
स्वर्ण के कुम्भ कलश घालियाँ रजत के लोटे प्याले प्यालियाँ, जलीय दोषों के वारक ताम्र के घट-घढ़ हँडियाँ बड़ी-बड़ी परात भगोनियाँ आदि-आदि मौलिक बर्तनों को बेच-बेच कर
जघन्य सदोष बर्तनों को
मोल ले रहे हैं धनी, धीमान तक । आज बाजार में आदर के साथ
-
बात-बात पर इस्पात पर ही सव का दृष्टिपात है । जेल में भी
अपराधी के हाथों और पदों में इस्पात की ही
हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ होती हैं।
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कहाँ तक कहें
और इधर युवा-युवतियों के हाथों में भी इस्पात के ही कड़े मिलते हैं। क्या यही विज्ञान है ? क्या यही विकास है? बस सोना सो गया अब लोहा ते लोहा लो'"हा !
सुनो ! सुनो ! कलि की महिमा और सुनो ! चांदनी की रात्रि में चन्द्रकान्त मणि से झरा उज्ज्वल शीतल जल ले मलयाचल के चन्दन घिस-घिस कर ललाट तल नाभि पर लेप किया जाना वरदान माना है दाह-रोग के उपशमन में। यह भी सुना, अनुभव भी है. कि तत्कालीन ताजे शुद्ध-सुगन्धित घृत में अनुपात से कपूर मिला-घुला कर हलकी-हलकी अंगुलियों से मस्तक के मध्य, ब्रह्म रन्ध्र पर
और मर्दन-कला कुशलों से रोगन-आदिक गुणकारी तैन
मूक पाटी :: .I13
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रीढ़ में मलना भी दाह कं शमन में रामवाण माना है। बुध-सम्मत इन उचित-उपचारों को उपेक्षित कर माटी-कर्दम का लेप करना बुद्धि की अत्पता है ही।
भोजन-पान के विषय में भी ऐसा ही कुछ घट रहा हैस्वादिष्ट-बलवर्धक दुग्ध का सेवन,
ओज़-तेन-विधायक घृत का भोजन अकाल-मरण-वारक सास्थिक शान्त-भाव-सजक दधि निर्मित पक्वान्न आदि बहुविध व्यंजन उपेक्षित हुए हैं, उसी का परिणाम है कि दाह-रोग का प्रचलन हुआ है जिससे संठ जी भी घिर गये हैं
और सत्व-शन्य ज्वार की दलिया के साथ सार-मुक्त छाट का सेवन
दरिद्रता को निमन्त्रण देना है। एक बात और कहना है कि धन का मितव्यय करो, अतिव्यय नहीं अपव्यय तो कभी नहीं, भून कर स्वप्न में भी नहीं। और अव्यय हो तो 'सयोत्तम ! या जो धारणा है वस्तु-तत्व को छूती नहीं,
411 :: एक माटी
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कारण किं यथार्थ दृष्टि से प्रति पदार्थ में
उतना ही व्यय होता हैं
जितनी आय,
और
उतनी ही आय होती है
जितना व्यय ।
आय और व्यय
इन दोनों के बीच में
एक समय का भी अन्तर नहीं पड़ता
जिससे कि
संचय के लिए श्रय मिल सके।
यहाँ पर
आय-व्यय की यही व्यवस्था अव्यया मानी गई है, ऐसी स्थिति में फिर भला अतिव्यय और अपव्यय का प्रश्न ही कहाँ रहा ?
क्या हमारे पुरुषार्थ से
वस्तु तत्त्व में परिवर्तन आ सकता है ?
नहीं नहीं, कभी नहीं ।
हाँ! हाँ !
परिवर्तन का भाव आ सकता है
श्री अनिर
हमारे कलुषित मन में ।
और
अहंभाव ।
यही है संसार की जड़, इससे यही फलित हुआ कि सिद्धान्त अपना नहीं हो सकता सिद्धान्त को अपना सकते हम ।"
मूकमाटी 415
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अन्त-अन्न में बिन ऊना नल के कारण भभकत दीपक की मौत आवर में झा का स्वर्ण-कलश ने, परिवार महिन संट का, पीट-पीउ बैद्य-दल को
और ईप्या-ट्रंप-मात्सव-मद आवेग आदि कं आश्रय-भूत माटी के कम्भ का भी बहुत कुछ कह मनाया, परन्तु उसका इस ओर कुछ भी असर नहीं पड़ा, मव-कार बधावत् पूर्ववत् ही।
वसे,
क्रोध की क्षमता है कितना...
हाजी क्षमा कं सामने कब तक टिकंगा वन ? जिस सर्प कारता है वह मर भी सकता है
ओर नहीं भी, उसे जहर चढ़ भी सकता है और नहीं भी,
किन्तु
काटने के बाद सपं वह मुनि अवश्य होता है। वस, वही दशा स्वर्ण-कानश की हुई. उसको दाया निकट में पड़ी छोटा-छोटो स्व"-जत की कशियों पर भी पन्द्र रहा है।
-II :: गुज मा
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anter :- माdिemy YE
कट समय तक शान्न मान का शासन चलता रहा, फिर सौम्य-भावां से भग कम्प ने स्वयं स्वर्ण-कलशी से कम
कि, "ओरी कलशी ! कहाँ दिख रही है तू
कल''सी ? केवल आज कर रही है कल की नकल-सी ! तृ रहीं न कलशी
''कल-सी । कल-कमनीयता कहाँ है वह तर गालों पर ! लगता है अवरों की वह मधारम सुधा कहीं गई हैं निकल-सी ! अकल के अभाव में पड़ी है काया अकेली कला-विहीन चिकल-सी छोटी-सी ने शकल-सी आग कलशी ! कहाँ दिख रही है तू
कलसी ?"
व्यंग्यात्मक भाषा कम्भ के मुख से मुन अपने को उपहास का पात्र,
भूक मारी :: 117
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मूल्य-हीन, उपेचित देख चदले के भाव से भरा भीतर से अलता घुटता स्वर्ण कलश !
लो. परिवार सहित सेठ को
समाप्त करने का पड्यन्त्र ! दिन और समय निश्चित होता है, आतंकवाद को आमन्त्रित करने का
यह बात निश्चित है कि मान को टीस पहुँचने से ही, आतंकवाद का अवतार होता है । अति-पोषण या अतिशोषण का भी यही परिणाम होता है,
मुक माटी
तक
जीवन का लक्ष्य बनता है, शोध नहीं, बदले का भाव प्रतिशोध !
जो कि
महा- अज्ञानता है, दूरदर्शिता का अभाव पर के लिए ही नहीं,
अपने लिए भी घातक !
इस विषय में गुप-चुप मन्त्रणा होती है स्वर्ण-कतश की अपने सहचरों-अनुचरों से । इस असभ्यता की गन्ध नहीं आती परिवार के किसी सदस्य को, सभ्यों की नासिका वह भूखी रह सकती है, पर
भूल कर स्वप्न में भी दुर्गन्ध की ओर जाती नहीं ।
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गन्धसेवी होने मात्र से भ्रमर और मक्षिका एक नहीं हो सकते। सुभि से भरे फूलों को छोड़ मल-मूत्र-श्लेष्म-मांस आदि आदि पदार्थों पर भ्रमर कभी बैटता नहीं, जहाँ पर मक्षिका फँस कर मर जाती है मतिमन्दा।
आज आएगा आतंकवाद का दल, आपत्ति की आंधी ले आधी रात में।
और इधर, स्वर्ण-कलश के सम्मुख बड़ी समस्या आ खड़ी हुई कि अपने में ही एक और असन्तुष्ट-दल का निर्माण हुआ है। लिये निर्णय को नकारा है उसन अन्याय-असभ्चता कहा है इसे, अपने सहयोग-समर्थन को
स्वीकृति नहीं दी हैं। न्याय की वेदी पर अन्याय का ताण्डव-नृत्य मत करो, कहा है उस दल की संचालिका हैस्फटिक की उजली झारी
वह
प्रभाविता हैं माटी के कुम्भ से ।
पृक माटी : 114
Page #442
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________________
धीरे धीरे
शारी की समझदारी बहुतों को समझ में आने लगी है,
और
झारीren जी
सबत होता जा रहा है, अनायास ।
421: मूक पाटी
चन्द चमक से उछलती हुई चांदी की कलश- कलशियाँ, चालाक चालकों से छली बड़ी-छोटी चमचियाँ,
तामसता से तने हुए तमतमाते ताम्र-बर्तन,
राजसता में राजी रपे
पर - प्यार से पले
और भी भ्रम में पड़े प्यासे प्याले प्यालियाँ"
जिन्हें,
पक्षपात का सर्प सैंधा था
ऐसे
लगभग सभी भाजन
स्वर्ण-पक्ष को ठुकरा कर शारी के चरणों में झुकते हैं। ली, अब
झारी कहती हैं : " हे स्वर्ण कलश !
जो माँ सत्ता की ओर बढ़ रहा है
समता की सीढ़ियाँ चढ़ रहा हैं उसकी दृष्टि में
सोने की गिट्टी और मिट्टी एक है
और है ऐसा ही तत्व !
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अतः अवसर का नाम ना आग्रह की दृष्टि से मत दखी, मान-यान से अब नीचे उतर आओ तुम ! जो वर्धमान हो कर मानातीत हैं. उनके पदों में प्रणिपात करो अपार पाप-सागर से तर जाओ तुम !"
D
लो, झारी का प्रभाव कब पड़ना धा रौद्र-कर्मा, वर्ण-कलश पर ! सीता की बन्धन-मुक्ति को ले अमन्द-मति मन्दोदरी का सम्बोधन i .... प्रभावक कहीं रहा. रावण का गारव लाधव कहाँ हुआ ? प्रत्युत, उबलते तेत के कद्दाव में शीतल जल की चार-पाँच बूँदें गिरी-सी स्वर्ण-कलश की स्थिति हो आई। अनियन्त्रित क्षोभ का भीषण दर्शन ! फिर, वड़ी उत्तेजना के साथ स्वर्ण-कलश का गर्जन ! "एक को भी नहीं छोड़े, तुम्हारे ऊपर दया की वर्षा सम्भव नहीं अब, प्रन्नय-काल का दर्शन तुम्हें करना है अभी।" अब क्या पूछना है !
मृक पाटी :: 21
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निर्धारित समय से पूर्व ही अनर्थ घटने की पूरी सम्भावना !
लो
1229
इधर्
झारी ने भी माटी के
कुम्भको संकेत दिया
और
कुम्भ ने परिवार को सचेत किया,
सब कुछ मौन, पर
गुप-चुप सक्रिय !
अड़ोस-पड़ोस की निरपराध जनता इस चक्रवात के चक्कर में आ कर,
कहीं फँस न जाय,
इसी सदाशय के साथ कुम्भ ने कहा सेठ से, कि
" तुरन्त परिवार सहित
यहाँ से निकलना है,
विलम्ब घातक हो सकता है।" और,
प्रासाद के पिछले पथ से
पलायित हुआ पूरा परिवार
!
किसी को भी पता नहीं पड़ा, झारी को भी नहीं,
बताने जैसी परिस्थिति भी तो नहीं ! 'विश्वस्त भले ही हुआ हो
सद्यः परिचित के कानों तक
गहरी बात पूरी बात
अभी नहीं पहुँचनी चाहिए
और
सेठ के हाथ में है पथ-प्रदर्शक कुम्भ,
-
-
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पीछे चल रहा है पाप-भीरु परिवार ! बीच-बीच में पीछे मुड़ते सब पर-गोपुर पार कर गये,
फिर तीन हो गये, पनी बनी में जा ! उत्तुंग-तम गगन चूमते तरह-तरह के तरुवर छत्ता ताने खड़े हैं. श्रम-हारिणी धरती है हरी-भरी लसती है धरती पर छाया ने दरी बिछाई है। फूलों-फलों पत्रों से लदे लघु-गुरु गुल्म-गुच्छ श्रान्त-श्लथ पथिकों को मुस्कान-दान करते-से। आपाद-कण्ट पादपों से लिपटी ललित-ललिकाएँ वह लगती हैं आगतों को बुलाती-लुभाती-सी,
और
अविरल चलते पथिकों को विश्राम लेने को कह रही हैं। सो"पूरा परिवार अभय का श्वास लेता जन्तु-शून्य प्रासुक धरती पर बैठ जाता कुछ समय के लिए।
स्वेद से लथ-पथ हुआ परिवार का तन, खेद से हताहत हुआ, परिवार का मन, एक साथ शान्ति का बेदन करते शीतल पवन का परस पा कर।
मूक माटी :: 423
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areafte
युगों से वंश-परम्परा से वंशीधर के अधरों का प्यार - पीयूष मिला जिसे वह बाँस पंक्ति
मांसल वाह-वाली
अमंगल वारक
मंगल-कारक, तोरण द्वार का अनुकरण करती
कुम्भ के पदों में प्रणिपात करती है
स्वयं को धन्य-तमा मानती हैं। और
दृग - विन्दुओं के मिष
हंस- परमहंसों-सी भूरि-शुभ्रा वंश - मुक्ता की वर्षा करती है।
एक माटी
आप श्री सुविसिागर जी फाटल
इसी बीच, इधर मांसाहारी सिंह से सताया
अभय की गवेषणा करता हुआ भयभीत हाथियों का एक दल
यकायक
अपनी ओर आता हुआ देख
परिवार ने कहा यूँ ।
'डरो मत, आओ भाई',
और
प्रेम-भरी आँखों से बुलाया उसे । वाह, वाह ! फिर क्या कहना ! परिवार के पदों में दल ने अपूर्व शान्ति का श्वास लिया,
माँ के अनन्य अंक में
निःशंकला का संवेदन करता शिशु-सा ।
फिर,
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बाँस का उपहास करता हुआ, वंश-मुक्ता को लाँधता हुआ, बहुमूल्य मुक्ता-राशि चढ़ाता है, विनीत भाव से कुम्भ के सम्मुख ! यही कारण हो सकता है, कि यह मुक्ता ख्यात है, गज-मुक्ता के नाम से।
मौन के मृदु-माहौल में परस्पर एक-दूसरे की ओर निहारते, कुछ पल फिसलते, कि गज-मुक्ता वंश-मुक्ता में
और वंश-मुक्ता गज-मुक्ता में बहुत दूर तक अपनी-अपनी आभा पहुँचाती हैं, चिर-बिछुड़ी आत्मीयता परखी जा रही है इस समय । परन्तु, भेद-विधायिनी प्रतिभा वह बिन रसना-सी रह गई, स्व और पर का खेद मर-सा गया है स्व और पर का भेद चरमरा-सा गया है, सब कुछ निःशेप हो गया शेष रही बस, आभा ! आभा!! आभा !!!
मूक माटी :: 44
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जब भ्रम टला सब श्रम टला तन स्वस्थ हुआ मन मस्त हुआ।
:...
अभी चलना है अग्रिम पथ भी सो परिवार उठ चल पड़ा कि पीछे से गरजती हुई आई एक ध्वनि--जो जन-दल मुख से निकली, कानों को बहरे करती हिंसोपजीविका आक्रामिका है। "अरे कातरो, ठहरो ! कहाँ भागोगे, कब तक भागोगे ? काया का राग छोड़ दो अब। शतको,
.:. ..: :: पाप का फल पाना है तुम्हें धर्म का चोला पहन कर अधर्म का धन छुपाने वालो ! सही-सही बताओ, कितना धन लूटा तुमने कितने जीवन टूटे तुमसे ! मन में वह सब स्मरण करी क्षण में अब तुम मरण वरो !' और". परिवार ने मुड़ कर देखा तो दिखा आतंकवाद का दल हाथियों को भी हताहत करने का वला ! जिनके हाथों में हथियार हैं, बार-बार आकाश में वार कर रहे हैं, जिससे ज्वाला वह बिजली की कौंध-सी उठती, और
125 :: मुक माटी
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आँखें मुद जाती साधारण जनता की इधर, "जो बार-बार होठों को चंबा रहे हैं, क्रोधाविष्ट हो रहे हैं, परिणामस्वरूप, होठों से लहू टपक रहा है। जिनका तन गठीला है जिनका मन हठीला है जिनने धोती के निचली छोरों को ऊपर उठा कर कस कर कटि में लपेटा है, केसरी की कटि-सी जिनकी कटि नहीं-सी है, कदली तरु-सी जिनकी जंघाएँ हैं जिन जंघाओं का मांस अट्टहास कर रहा है। यही कारण है कि जिनके घुटने दूर से दिखते नहीं हैं, निगूढ़ में जा घुस रहे हैं। मस्तक के बाल सघन, कुटिल और कृष्ण हैं जो स्कन्धों तक आ लटक रहे हैं कराल-काले व्याल-से लगते हैं। जिनका विशाल वक्षस्थल है, जिनकी पुष्ट पिंडरियों में नसों का जाल सुभरा है, धरा में वट की जड़ें-सी जिनकी आकुल आँखें, सूर्यकान्त मणि-सी अग्नि को उमल रही हैं।
मूक माटी :: 427
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:
जिनके लालाट-तल पर कुंकुम का त्रिकोणी तिलक लगा है, लगता है महादेव का तीसरा नेत्र ही खुल-कर देख रहा है। राहु की राह पर चलनेवाला है दल आमूल-चूल काली काया ले। क्रूर-काल को भी कँपकँपी छूटती है जिन्हें एक झलक लखने पात्र से ! . काठियावाड़ के युवा घोड़ों की पूंछ-सी ऊपर की ओर उठी मानातिरेक से तनी जिनकी काली-काली मूंछे हैं। . जिनके गठीले संपुष्टबाजुओं को देख कर प्रतापशाली भान का बल भी बावला बनता है। जिन बाजुओं में काले धागों से कसे निम्ब-फल बंधे हैं, अन्त-अन्त में यँ कहूँ कि जिनके अंग-अंग के अन्दर दया का अभाव ही भरा हैं। मुख हृदय का अनुकरण करता है ना !
प्रायः संपुष्ट शरीर दया के दमन से ही वनते हैं, तभी तो सन्तों की ये पंक्तियाँ कहती हैं : "अरे देहिन् ! द्युति-दीप्त-संपुष्ट देह
425 :: मूक माटी
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जीवन का ध्येय नहीं हैं, देह - नेह करने से हीं आज तक तुझे विदेह-पद उपलब्ध
दयाहीन दुष्टों का
दयालीन शिष्टों पर
नहीं हुआ !
आक्रमण होता देख
-
तरवारों का वार दुवार है इस वार से परिवार को बचाना भी अनिवार्य हैं, आर्यों का आन कार्य " यूँ सोचता हुआ गज-दल परिवार को बीच में करता हुआ चारों ओर से घेर कर खड़ा हुआ ।
गजगण की गर्जना से गगनांगन गूँज उठा, धरती की धृति हिल उठी, पर्वत श्रेणी परिसर को भी
परिश्रम का अनुभव हुआ, निःसंग उड़ने वाले पंछी दिग्भ्रमित भयातुर हो, दूसरों के घोंसलों में जा घुसे, अजगरों की गाढ़ निद्रा झट-सी टूट गई,
जागृतों को ज्वर चढ़ गया, मृग-समाज मार्ग भूल कर
मृगराज के सम्मुख जा रुकी, बड़ी बड़ी बाँबियों "तो"
मूकमाटी 429
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धूल बन कर भू-पर गिर पड़ीं, और
क्रूर विषधर विष उगलते फूत्कार करते बाहर निकलते,
जिनकी आँखों में रोष
ताण्डवनृत्य कर रहा है,
फणा ऊपर उठा-उठा
पूँछ के बल पर खड़े हो निहार रहे हैं बाधक तत्त्व को !
तत्काल विदित हुआ विषधरों को
विप्लव का मूल कारण । परिवार निर्दोष पाया गया
जो
इष्ट के स्मरण में लगा हुआ है, मजवरी रोष पाण या
4। शुक माटी
जो
शिष्ट के रक्षण में लगा हुआ है, और
अवशिष्ट दल पारिशेष्य-न्याय से
सदोष पाया गया
जो
सबके भक्षण में लगा हुआ
है
I
फिर क्या पूछना !
प्रधान सर्प ने कहा सबको कि
"किसी को काटना नहीं, किसी का प्राणान्त नहीं करना मात्र शत्रु को शह देना है। I उद्दण्डता को दूर करने हेतु दण्ड संहिता होती हैं
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माना, दण्डों में अन्तिम दण्ड प्राणदण्ड होता है। प्राणदण्ड से
औरों को तो शिक्षा मिलती है,
परन्तु जिसे दण्ड दिया जा रहा है . . . ... . ... ... ... ... .. उसकी उन्नति का अवसर ही समाप्त। दण्टखेहेता इसको माने या न माने, क्रूर अपराधी को क्रूरता से दण्डित करना भी एक अपराध है, न्याय-मार्ग से स्खलित होना है।"
अब चारों ओर से घिर गया आतंकवाद। जहाँ देखो वहाँ"बस अनगिन नाग-नागिनकहीं पाताल से नागेन्द्र ही परिवार सहित आया हो भू पर पतित पददलितों के पक्ष लेने। यह प्रथम घटना है कि आतंकयाद ही स्वयं आतंकित हुआ, पीछे हटने की स्थिति में है वह, काला तो पहले से ही था वह काल को सम्मुख देख कर और काला हुआ उसका मुख !
मूक माटी :: 41
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आतंकवाद का पल शनैः-शनैः निष्क्रिय होता जा रहा है। दल-दल में फंसा बलशाली गज-सम ! धरती को चीरती जाती ढलान में लुढ़कती नदी पर्वत से कब बोलती है ? बस यही स्थिते है आतंकवाद की
और
घनी-वनी जा छुप गया वह । "संहार की बात मत करो,
संघर्ष करते जाओ ! .. हार की बात मत करो...... ... .
उत्कर्ष करते जाओ !
और "सुनो ! घातक-घायल डाल पर रसाल-फल लगता नहीं, लग भी जाय पकता नहीं, और काल पा कर पक भी जाय तो भोक्ता को स्वाद नहीं आएगा
"उस रसाल का ! विकृत-परिसर जो रहा !" यूँ कहता हुआ, सर्प-समाज में से एक यूगल नाग और नागिन, "हमें नाग और नागिन
ना गिन, हे वरभागिन् : 482 :: मूक माटी
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युगों-युगों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस वंश-परम्परा ने आज तक किसी कारणवश किसी जीवन पर भी पद नहीं रखा, कुचला नहीं क्योंकि अपद जो रहे हम ! यही कारण है कि सन्तों ने बहुत सोच-समझ कर हमारा सार्थक नामकरण किया है
हाँ ! हाँ ! हम पर कोई पद रखते हमें छेड़ते "तो". हम छोड़ले नहीं उन्हें। जघन्य स्वार्थसिद्धि के लिए किसी को पद-दलित नहीं किया हमने, प्रत्युत, जो पद-दलित हुए हैं किसी भाँति, उर से सरकते-सरकते उन तक पहुँच कर उन्हें उर से चिपकाया है, प्रेम से उन्हें पुचकारा है,
उनके घावों को सहलाया है। अपनी ममता-मृदुता से कण-कण की कथा सनी है, अणु-अणु की व्यथा हनी है।
मुक पाटी :: 43:4
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कॉटों को भी नहीं काटा हमने
काँटों को भी मृदु आलिंगन दिये हैं........
क्योंकि वह शोषित हैं ।
डाल-डाल में भरे
रस- पराग को चूसा फूल ने यश को भी लूटा फूल ने
फल यह निकला कि
सूख सूख कर शेष सच काँटे जो रह गये !
एक बात और कहनी है हमें
कि
पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु पर को पद - दलित करते हैं, पाप- पाखण्ड करते हैं।
434 मुफ़ मारी
प्रभु से प्रार्थना है कि अपद ही बने रहें हम ! जितने भी पद हैं
वह विपदाओं के आस्पद हैं, पद - लिप्सा का विषघर वह
भविष्य में भी हमें ना सूघे बस यही भावना है, विभो !"
अपों के मुख से पदों की, पद वालों की परिणति-पद्धति सुन कर परिवार स्तम्भित हुआ ।
चतुष्पदी गज-यूथ भी
स्पन्दन- शून्य हुआ यन्त्रवत् और
सबके पद हिम-सम जम गये।
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सपरिवार गज- समाज को उदासी में डूबा देख आपे में आ सर्पों ने कहा :
" क्षमा करें ! क्षमा करें !
क्षमा चाहते हम !
वैसे,
दो टूक बोलते नहीं हम
भूल-चूक की बात निराली है, पूरा आशय प्रकट नहीं हो सका। शेष सुन लो, सुनाते हम टूटे-फूटे शब्दों में कि
जितने भी पद-वाले होते हैं और जो
प्रजापाल आदिक
प्रामाणिक पदों पर आसीन कराये गये हैं,
वे सब ऐसे ही होते हैं ऐसी बात नहीं है I
कुछ पद ऐसे भी होते हैं जिन पदों की पूजा के लिए यह जीवन भी तरस रहा था सुचिर काल से कब से
आज घड़ी आ गई वह हरस रहा है हृदय यह" और सर्वप्रथम हर्षाश्रुपूरित लोचनों से पूज्य-पदों का अभिषेक हुआ शत शत प्रणिपात के साथ ।
फिर, नाग और नागिन की फणायें पूरी खुल
मुक्त माटी : 495
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:: ::
:
सादर उट खड़ी हुई जिनमें सुरक्षित निहित सब मणियों में मंजुल मौलिक अनन्य दुर्लभ
स-सौंमा बुद्धिमानी मणियों का अर्पण हुआ। और धन्य-धन्यतम माना जीवन को सर्प-समाज ने। सों का नमन हुआ दों का बमन हुआ बाहर मार-पीट का दर्शन
भीतर प्यार-मीत चलता रहा। मृदुता का मोहक स्पर्शन यह एक ऐसा मौलिक और अलौकिक अमूर्त-दर्शक काव्य का श्राव्य का सृजन हुआ, इसका सृजक कौन है वह, कहाँ है, क्यों मौन है वह ? लाघव-भाव वाला नरपुंगव, नरपों का चरण हुआ !
वहीं से लपक-लपक कर बार-बार आतंकवाद झाड़ियों से झाँकता रहा और आशातीत इस घटना को
433 :: मूक माटी
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"
निहारता रहा निन्दा की नियति से। एक बार और उसका डर भर उठा है उद्विग्नता से-उत्पीड़न से और पराभव से उत्पन्न हुई
उच्छृखल उष्णता से। इसके सिवा
और क्या कर सकता है: :: :: :: :: :: सबलों के सम्मुख बलहीन वह मुख !
और साधित मन्त्रों से मन्त्रित होते हैं सात नींबू ! प्रति नींबू में आर-पार हुई है सई काली डोर बँधी हैं जिन पर । फिर, फल उछाल दिये जाते हैं शून्य आकाश में काली मेघ-घटाओं की कामना के साथ । मन्त्र-प्रयोग के बाद प्रतीक्षा की आवश्यकता नहीं रहती हाथों-हाथ फल सामने आता है यह एकाग्रता का परिणाम है। मन्त्र-प्रयोग करने वाला सदाशयी हो या दुराशयी इसमें कोई नियम नहीं है। नियन्त्रित-मना हो बस ! यही नियम है, यही नियोग, और यही हुआ।
मूक पाटी :: 437
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::
घनी-घनी घटाएँ मेधों की गगनांगन में तैरने लगी छा-सा गया तामसता का साम्राज्य धरती का दर्शन दुर्लभ हुआ धरती जीवित है या नहीं मात्र पैर ही जान सकते हैं: : : :: : :: रव-रव नरक की रात्रि यात्रा करती आई हो ऊपर वर्ण-विचित्रता का विलय हो रहा प्रारम्भ हुआ प्रचण्ड पवन का प्रवाह जिसकी मुट्ठी में प्रलय छिपा है। पर्वतों के पद लड़खड़ाये और पर्वतों की पगड़ियाँ धरा पर गिर पड़ीं, वृक्षों में परस्पर संघर्ष छिड़ा कस-कसाहट आइट, स्पर्क्ष्य का ही नहीं अस्पये का भी स्पर्शन होने लगा, मृदु-कठोर का भेद नहीं रहा गुरुतर तरुओं की जड़ें हिल गई, कई वृक्ष शीर्षासन सीखने लगे बाँस दण्डवत करने लगी। धरा को छाती से चिपकने लगी।
कर्णकटुक अश्राव्य मेघों का गुरु-गर्जन इतना भीषण होने लगा कि हर्षोल्लास नर्तन तो दूर मयूर-समूह की वह
438 :: पूक माटी
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क्रूक भी मूक हो गयी, मेघों को क्रोधित मदोन्मत्त करनेवाली बीच-बीच में बिजली कौंधने लगी
मान-मर्यादा से उन्मुक्त
चपला अबला - सी 1
और
मूसलाधार वर्षा होने लगी । छोटी-बड़ी बूँदों की बात नहीं, जलप्रपात -सम अनुभवन है यह धरती डूबी जा रही है जल में जलीय सत्ता का प्रकोप चारों ओर घटाटोप है। दिवस का अवसान कब हुआ पता नहीं चल सका,
तमस का आना कब हुआ कौन बताये किससे पूछें ?
!
और
बादलों का घुमड़न घुटता रहा बिजली का उमड़न चलता रहा
रुक-रुक कर
ओला वृष्टि होती गई
शीत - लहर चलती गई
प्रहर-प्रहर ढलते गये ऐसी स्थिति में फिर भला निद्रा ओ ! आती कैसे
और किसे इष्ट होगी वह ?
फलानुभूति - भांग और उपभोग के लिए काल और क्षेत्र की
..
मूकमाटी 439
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अनुकूलता भी अपक्षित है केवल भोग-सामग्री ही नहीं।
इस भीषण प्रलयकालीन स्थिति में भी परिवार का परिरक्षण अविकल चलता रहा, गुणग्राही गज-गण से। 'बादल दल छंट गये हैं काजल-पत कट गये हैं वरना, लाली क्यों फूटी है सुदूर"प्राची में !
और
परिवार खड़ा है नदी-तट पर जा। वर्षा के कारण नदी में नया नीर आया है नदी वेग-आवेगवती हुई है संवेग-निर्वेग से दूर उन्मादवाली प्रमदा-सी ! परिवार के सम्मुख अब गम्भीर समस्या आ खड़ी है, धीरे-धीरे उसकी गम्भीरता-गुरुता भीरता से घिरती जा रही है।
और "लो ! परिवार का मन कह उठा, कि चलो ! लौट चलें यहाँ से। लौटने का उद्यम हुआ, कि
4400 :: भूक मारी
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pakest: ::
: RA
E
कुम्भ का कहना हुआ : "नहीं नहीं नहीं.. लौटना नहीं ! अभी नहीं कभी भी नहीं क्योंकि अभी आतंकवाद गया नहीं, उससे संघर्ष करना है अभी वह कृत-संकल्प है अपने ध्रुव पर दृढ़।
जब तक जीवित है आतंकवाद शान्ति का श्वास ले नहीं सकती धरती वह, ये आँखें अब आतंकवाद को देख नहीं सकतीं, ये कान अब आतंक का नाम सुन नहीं सकते, यह जीवन भी कृत-संकल्पित हैं कि उसका रहे या इसका यहाँ अस्तित्व एक का रहेगा, अब विलम्ब का स्वागत मत करो नदी को पार करना ही हैं कुम्भ के भाग में क्या । विफलता-शून्यता लिखी है कुम्भ के त्याग में क्या । विकलता-न्यूनता रही है ? शिथिल विश्वास को शुद्ध श्वास मिलेगा
और पकिल श्वास को समृद्ध वास मिलेगा
मूक माटी :: 441
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भय-विस्मय-संकोच को
आश्रय मत देओ अब ! रस्सी के एक छोर को मेरे गले में बाँध दो
और कुछ-कुछ अन्तर छोड़ कर पीछे-पीछे परस्पर पंक्ति-बद्ध हो सब तुम अपनी-अपनी कटि में कस कर रस्सी बाँध लो ! फिर
ओंकार के उच्च उच्चारण के साथ कूद जाओ धार में।" इस पर भी परिवार को दूर रहीं होते . . कुम्भ के मुख से कुछ पंक्तियाँ और निकलती हैं कि
"यहाँ बन्धन रुचता किसे ? मुझे भी प्रिय है, स्वतन्त्रता तभी तो किसी के भी बन्धन में बैंधना नहीं चाहता मैं, न ही किसी को वाँधना चाहता हूँ। जानें हम, बाँधना भी तो बन्धन है ! तथापि स्वच्छन्दता से स्वयं
442 :: भूक माटी
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बचना चाहता हूँ बचता हूँ यथा-शक्य
और
..
:: : .. ...ज मा हो, नो .
बचाना चाहता हूँ औरों को बचाता हूँ यथा-शक्य ।
यहाँ
बन्धन रुचता किसे ?
मुझे भी प्रिय है स्वतन्त्रता" | लो, अब की बार लवणभास्कर चूरण-सी पंक्तियाँ काम कर गई,
और कुम्भ के संकेतानुसार सिंह-कदि-सी अपनी पतली कटि में कुम्भ को बाँध कर कूद पड़ा सेठ नदी की तेज धार में। तुरन्त परिवार ने भी उसका अनुकरण किया, धरती का सहारा छूट गया पद निराधार हो गये काटे में बंधी रस्सी ही त्राण है, प्राण है, इस समय !
और कुम्भ महायान का कार्य कर रहा है सब-का-सब जल-मग्न हो गया है मात्र दिख रहे ऊपर मुख-मस्तक।
मूक माटी :: 443
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अन्तिम-शीत अनुभूत हुआ परिवार को इस समय।
.
काया की प्राकृत ऊष्मा खोती जा रही है रक्त- की गतिशीलजा... बिरक्त होती जा रही है हस्त-पाद निष्क्रिय हो गये दन्त-पंक्तियाँ कटकटाने लगीं और कुछ नदी में भीतर आना हुआ कि छोटी-बड़ी मछलियाँ जल से ऊपर उछलती सलील क्रीडा कर रही हैं, कुटिल विचरण वाले विषधरों की पतली-पतली पूछे अनायास लिपटने लगीं परिवार की वर्तुली पिंडरियों से। संकोच-शीलवाले भी कई कछुवे भी स्वच्छन्द हो परिवार की मूदुल-मांसल जंघाएँ छू-छ कर
ठूमन्तर होने लगेंगे जिनके व्याघ्र-सम भयानक जबड़ों में बड़ी-बड़ी टेढ़ी-मेढी तीखी दन्त-पंक्तियाँ चमक रही हैं, जिनकी रक्त-लोलुपी लाल रसना बार-बार बाहर लपक रही है,
444 :: मूक पाटी
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: .
विषाक्त-कंटक वाली ऊपर उठी पंछ हैं जिनकी ऐसे मांस-भक्षी महा-मगरमच्छ भोजन-गवेषणा में रत परिवार के आस-पास सिर उठाने लगे हैं।
और भी अन्य क्रूरवृत्ति वाले विविध जातीय जलीय जन्तु क्षुब्ध दिख रहे क्षुधा के कारण, तथापि परिवार की शान्त मुद्रा देख :: शो का नूतन जोग करमाः . : ... :
जो मूल-धर्म है उनका भूल-से गये हैं, उनकी वृत्ति में आमूल-चूल परिवर्तन-सा आ गया है, भोजन का प्रयोजन ही छूट गया।
और जैसे भगवान को देखते ही भस्त के मन में भजन का भाव फूट गया है हेय-उपादेय का बोध, क्षीर-नीर-विवेक, कर्तव्य की ओर मुड़न यूँ भाँति-भाँति, जागृति आ गई जतचरों के जीवन में।
मूक माटी :: 415
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परन्तु ! जल में उलटी क्रान्ति आ गई जड़ और जंगम दो तत्त्व हैं दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैंजंगम को प्रकाश मिलते ही यथोचित गति मिलते ही बिकास ही कर जाता है वह जब कि जड़ ज्यों-का-यों रह जाता। जड़ अज्ञानी होता है एकान्ती ही होता है क्रूटस्थ होता है" त्रस्त ! स्वस्थ नहीं हो सकता वह। जलचरों की प्रवृत्ति से उलटी-पलटी वृत्ति से जल से भरी उफनती नदी
और जलती हुई कहती है, कि "मेरे आश्रित हो कर भी मेरे से प्रतिकूल जाते हो ! जीवन जीना चाहते हो संजीवन पीना चाहते हो
और निर्वल बालक होकर भी माता को भूल जाते हो : जाओ : जाओ। दुःख पाओगे, पाओगे नहीं मृदु प्यार कहीं, पीओगे पश्चाताप की घुट ही पीयूष की स्मृति जलाएगी तुम्हें !
भूचरों से मिले हुए हो धृतं खलों से छले हुए हो
446 :: मृक माटी
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तुम्हें कुछ भी नहीं कहना है तुम पर दया आती हैं:
उनको ही देखना है.
जो...
निश्छलों से छल करते हैं
जल - देवता से भी जला करते हैं।"
और
अनगिन तरंग करों से
परिवार के कोमल कपोतों पर तमाचा मारना प्रारम्भ करती है." कुपित पित्तवती नदी ।
"धरती के आराधक धूर्तो ! कहाँ जाओगे अब ? जाओ, धरती में जा छुप जाओ उससे भी नीचे !
पातको पाताल में जाओ ! पाखण्ड - प्रमुखो !
मुख मत दिखाओ हमें । दिखावा जीवन हैं। काल- भक्षी होता है, लक्ष्यहीन दीन-दरिद्र
व्याल - पक्षी होता है
धरती-सम एक स्थान पर
तुम्हारा
रह-रह कर
पर को और परधन को
अपने अधीन किया है तुमने,
ग्रहण - संग्रहण रूप
संग्रहणी रोग से ग्रसित हो तुम !
इसीलिए क्षण-भर भी कहीं रुकती नहीं मैं
3
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पर-सम्पदा मिलने पर भी उनका मैंने स्वप्न में भी
ना लीं। और अपनी उदारता दिखाने किसी स्वार्थ या यश-लोषणावश दूसरों को उन्हें न दी तभी तो हमें सन्तों ने सार्थक संज्ञा दी"नाली ! नदी !
हमसे विपरीत चाल चलनेवाले दीन होते हैं। कुल शिथिलाचारी साधुओं को 'बहता पानी और रमता जोगी' इस सूक्ति के माध्यम से आई -बोध शिशु है इससे बढ़कर भला और कौन-सा वह आदर्श हो सकता है संसार में : इस आदर्श में अब अपना मुख देख लो
?
और
पहचान लो अपने रूप-स्वरूप को !"
इच्छंखला जडाशया अपनी ही प्रशंसा में इचीनदी की बातें सुन उत्तेजित हुए बिना
44 :: मूब: माटी
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सेठ का कुछ कहना हुआ, कि "यदि तुम्हें धरा का आधार नहीं मिलता तुम्हारी गति कौन-सी होती ! पाताल को भी पार कर जाती तुम ! धरती ने तुम्हें स्वीकारा छाती से चिपकाया है तुम्हें देबों ने तुम पर दया नहीं की, आकाश ने शरण नहीं दो तुम्हें,
लोटी गिरि की चोटी पर गिरी थी सब हँसे थे तुम रोयी थी तब ! चोट लगी थी घनी तुम्हें, तरला-सरला-सी लगती थी गरला-कुटिला बन गई अब ! छल ही बल बन गया हैं तुम्हारा, सरपर भाग रही है अब सब को लांघती-लांघती। अरी कृतघ्ने ! पाप-सम्पादिके !
और अधिक पापार्जन मत कर । सारा संसार ही ऋणी है धरणी का तुम्हें भी ऋण चुकाना है धरती को लर में धारण कर, करनी को हृश्य से सुधारना है।"
हाय रे यह दुर्भाग्य किसका ! सेठ का या नदी का ? । सेट का सदाशय सफल जो नहीं हुआ सेठ की समालोचना से भी
मूक माटी ::
.
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:.:.:....
नदी के लोचन नहीं खुले प्रत्युत, वह नदी और लोहित हो उठी : अरे दुष्टो ! मेरे लिए पाताल की बात करते हो ! अब तुम्हारा अन्त दूर नहीं।
और भँवरदार दिशा की और गति सब ओर से आकृष्ट हो, आ, आ कर जहाँ पर सब कुछ लुप्त होता है, जहाँ पर स्वयं को परिक्रमा देता उपरिल जल नीचे की ओर निचला जल ऊपर की ओर अंति-तीव्र गति सं . ::: जा रहा है, आ रहा है, जहाँ का जलतत्त्व भू-तत्त्व को अपने में समाहित कर
अट्टहास कर रहा है। जहाँ पर कुछ पशु, कुछ मृग कुछ अहिंसक, कुछ हिंसक कुछ मूर्छित, कुछ जागृत कुछ मृतक, कुछ अर्ध-मृतक अकाल में काल के कवल होने से सबके मुखों पर जिजीविषा बिखरी पड़ी है, सबके सब विवश हो
बहाव में बहे जा रहे हैं। 45 :: मूक माटी
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देखते-देखते सामने से ही एक विशालकाय हाथी बहता-बहता आया जिसकी पीट पर बैठा है एक प्रौढ़ सिंह भीषण भविष्य से भयभीत ! और भंवर में फंस कर एक-दो बार भ्रमता भँवर के उदर में तिरोहित हुआ, सबल हो या निर्बल जहाँ पर किसी का बल काम नहीं कर रहा है सब बलों का बलिदान !
घटती घटना को देख कर परिवार का धैर्य कहीं घट न जाय,
और उसका मन कहीं ध्रुव से हट न जाय, यूँ सोचते हुए-से कुम्भ ने नदी को ललकारा : "अरी पाप-पाँव वाली, सुन ! यह परिवार तो पार पर है मझधार में नहीं, जिसने धरती की शरण ली है धरती पार उतारती है उसे यह धरती का नियम है व्रत !
पूक माटी :: 451
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जब आग की नदी को पार कर आये हम
और
और सुनो ! 'ध' के स्थान पर
'थ' के प्रयोग से
तीरथ बनता है।
शरणागत को तारे सो 'तीरथ' !
साधना की सीमा - श्री से
हार कर नहीं,
प्यार कर, आये हम
फिर भी हमें डुबोने की क्षमता रखती हो तुम
2
धरती इसे शब्द का भी भाव विलोम रूप से यहीं निकलता हैधरती ती ''र''ध''
452: मूकमाटी
वानी,
जो तीर को धारण करती है
या शरणागत को
तीर पर धरती हैं वही 'धरती' कहलाती है
I
फिर भला अब हमें कैसे डुबो सकती हो तुम ! और यह भी ध्यान रहे कि अब हमें
बहा न सकोगी तुम किसी बहाने बहाव में
बह न सकेंगे हम !
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हमने पहले ही तय किया था, कि सतह की सेवा प्रशंसा
अधिक नहीं करना हैं
क्योंकि
सतह पर
कब तक तैरते रहेंगे,
हाथ भर आएँगे ही ! लहरों के दर्शन मात्र से
सन्तुष्ट होने वाले
प्रायः डूबते दिखे हैं।
- यहाँ पर सतह पर
!
अरी निम्नगे निम्न-अम्रे ! इस गागर में सागर को भी धारण करने की क्षमता है धरणी के अंश जो रहे हम !
कुम्भ की अर्थ-क्रिया
जल धारण ही तो है और "सुनो !
स्वयं धरणी शब्द ही
विलोम रूप से कह रहा है कि धरणी नीरध
नीर को धारण करे सो धरणी
P
नीर का पालन करे सो
धरणी !
जैसे
मणियों में नील मणि कमलों में नील कमल
सुखों में शील-सुख
पृक माटी 453
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गिरिवों में मेस-गिरि सागरों में क्षीर-सागर मरणों में वीर मरण मुक्ताओं में मत्स्य-मुक्ता उत्तम माने जाते हैं,
वैसे
गुणों में गुण कृतज्ञता है, .... जसे कंजला से संशोभित
कुम्भ को देख कर एक महामत्स्य मुदित हो बहुमूल्य मुक्ता-मणि प्रदान करता हैं कुम्भ को। 'यह तुच्छ सेवा स्वीकृत हो स्वामिन् !! कह कर जल में लीन होता है वह । इस मुक्ता की बड़ी विशेषता हैं कि जिस सज्जन को यह मिलती हैं वह अगाध जल में भी अबाध पथ पा जाता है
और यही हुआ तुरन्त ! भंवरदार धार को भी अनायास पार करता हुआ परिवार सहित कुम्भ मन्द मुस्कान के साथ एक सूक्ति की स्मृति दिलाता है सेठ को, कि 'बिन माँगे मोती मिले माँगे मिले न भीख'
और यह फल त्याग-तपस्या का है सेठ जी ! कुम्भ के आत्म-विश्वास से
4:3-4 :: मूक माटी
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साहस - पूर्ण जीवन से नदी को बड़ी प्रेरणा मिल गई नदी की व्यग्रता प्रायः अस्त हुई समर्पण भाव से भर आई वह !
और
नम्र विनीत हो कहने लगी
उद्दण्डता के लिए क्षमा चाहती हूँ ।
हूँ
A-180
और
तरल तरंगों से रहित
धीर गम्भीर हो बहने लगी, हाव-भावों-विभावों से मुक्त
गत वचना नत नयना चिर-दीक्षिता आर्या-सी !
लगभग यात्रा आधी हो चुकी है यात्री मण्डल को लग रहा है कि गन्तव्य ही अपनी ओर आ रहा हैं, I कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण
परिश्रमी विनयशील
विलक्षण विद्यार्थी सम । परिवार भी फूल रहा है कि
पुनरावृत्ति आतंक की वही रंग है वहीं ढंग है अंग-अंग में वही व्यंग्य है, वही मूर्ति है वही मुखड़े वहीं अमूर्च्छित-तनी मूँछें वही चाल है वही ढाल हैं
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Pits cment
मूकमाटी : 455
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वही छल-बल नही उछाल है काले-काले वही वाल हैं क्रूर काल का वही भात है बड़ी नशा हैं वही दशा है कॉप रही हैं दिशा-दिशा है वही रसना है वही बसना हैं किसी के भी रही यश ना है सुनी हुई जो वही ध्वनि है वही वही सुन ! वही धुन है I
वही श्वास है अविश्वास है वही नाश है अट्टहास हैं वही ताण्डव नृत्य है वही दानव कृत्य वही आँखें हैं सिंदूरी हैं भूरि-भूरि जो घूर रही हैं बही गात है वही माथ है
है
वही पाद है वही हाथ है घात - घात में वही साथ है, गाल वही है अथर वही हैं लाल वही हैं रुधिर नही है भाव वही हैं डॉब वही है सब कुछ वहीं नया कुछ नहीं जिया वही है दया कुछ नहीं ।
456: मूकमाटी
माct : आर्य की सुविधा
और प्रारम्भ होती है नदी से आतंकवाद की प्रार्थना :
"
ओ माँ जलदेवता !
!
हमें यह दे बता अपराधी को भी क्या
-
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पार लगाती है ? पुण्यात्मा का पालन-पोषण उचित हे'कत्तच्च हैं, परन्तु क्या पापियों से भी प्यार करती है ?
यदि नहीं तो इन्हें "इधी दाजो कुम्भ का सहारा ले धरती की प्रशंसा करते हैं | उस पार इनाना चाहते हैं. : ... इनकं पाप का कोई पार नहीं है, इनकं पुण्य से कोई प्यार नहीं हैं, इनकी निच बस्तु है, धन-वैभव-विषय-सम्पदाएँ फिर भी इन्हें सहयोग दोगी तुम्हारे उज्ज्वल इतिहास का उपहास होगा हास होगा विश्वास का फिर औरों की क्या बात, सबके जीवन पर प्रश्न-चिन लगेगा ही।
वैसे सन्ताप ताप-शील वाली जलती, और जो ओरों को जलाती है अग्नि-देवता को भी काष्ट में कीलित किया है तुमने ।
पूक गाटी :: 157
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फिर कभी-कभी उसे
दावा के रूप में लपलपाती प्रकट होती देख
अपने अजेय बल से
अग्नि को लावा का रूप दे
उसे पाताल तक पहुँचाया है ।
और
अभी भी उस पर शासन चल रहा हैं
फिर भला,
आज तुम्हें यह क्या हुआ है हे माँ! जलदेवता !
हमें दे बता ।
हमें क्या पता,
इतना परिवर्तन तुम में हुआ है !"
4.58 मूक माटी
मूल के अभाव में चूल की गति क्या होगी
तुम्हारा !
इस पर नदी कहती हैं अब,
कि
"जिन्हें डुबोने के लिए कहते हो उनके अभाव में यहाँ
अभाव के सिवा, बस शेष कुछ भी नहीं मिलेगा । तरवार के अभाव में
म्यान का मूल्य ही क्या ?
भोक्ता के अभाव में
भोग - सामग्री से क्या ? जो
है धरती की शोभा
कुछ इन से ही है
और इन जैसे सेवाकार्य रतों से ।
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धूल के अभाव में फूल की गति क्या होगी बताने की आवश्यकता नहीं,
बल का दुरूपयोग नहीं होगा समर्पण हो चुका है ऊर्जा उपासना में उलट चुकी हैं उर में उदारता उग चुकी हैं"
और 'इत्यलम्' कहती हुई मौन लेती है नदी।
नदी की मौन गम्भीरता से आतंकवाद की धीरता में पीड़ा-उदासी नहीं आई। कुछ क्षण स्तब्धता फिर ! वही"ध्रुव की ओर
सरोष सक्रियता और, यह सही नीति है कि रणांगन में कूदने के बाद मित्र-बल की स्मृति नहीं होती प्रत्युत, शत्रु-बल पर टूट पड़ना ही होता है। पराश्रय लेना दीनता का प्रतीक हैं धीर-रस को क्षति पहुँचती है इससे इतना ही नहीं, मित्रों से मिली मदद यथार्थ में मद-द होती है
पृक मादी :: 459
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डी विजय के पक्ष में बाधक अन्धकार का कार्य करती है.
अब, आतंकवाद का
नगभग लगने लगी ::..:: . . शकला
एईसी मृग मरीचिका नहीं धोखा नहीं ! भाग्य साथ देता हुआ-सा । और मौके का मूल्यांकन हुआ नौका को और गति मिनी पवन का ओंका भर प्रतिकूल न हो, बस
यही एक भावना ले । आखिर आतंकवाद आ मार्गावरोधी बन कर परिवार के सम्मुख खड़ा हो कहाहाहट के साथ कहता है :
'अव पार का विकल्प त्याग दो न्याग-पत्र दो जीवन को पाता का परिचय पाना है तुम्हें पाखण्ड पाप का यही पाक होता है'
और अन्धाधुन्ध पत्थरों की वर्षा
पग्विार के ऊपर होने लगी। "स्वागत मंरा हो मनमोहक विनासिता मुझे मिलें अच्छी वस्तु
Mil:: मृवः पार्टी
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सी नामरुना मी धारणा है तुम्हारी, फिर माला बना दो हमें,
आम्था कहाँ है समाजवाद में तम्हारी । सबसे आगे में समाज बाद में !
अरे कम-से-कम शब्दार्थ की और तो देखो ! समाज का अर्थ होता है सण्ड .................. .
और समूह यानी सम-समीचीन ऊह-विचार हैं जो सदाचार की नींव हैं। कत मिला कर अर्थ यह हुआ कि प्रचार-प्रसार से दूर प्रशस्त आचार-विचार वालों का जीवन ही समाजवाद है। समाजवाद समाजवाद चिल्लाने मात्र से समाजबादी नहीं बनोगे।"
ऐसे असभ्य शब्दों का प्रयोग किया जा रहा कि जिसके सुनते ही क्रोधाग्नि भभक उठती हो,
और पान तिलमिला जाता हो पत्थरों की मार से घनी चोट लगने से सबके सिर फिर से गये हैं रक्त की धारा बह उठी है
म. माटी :: .
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जिस धारा से धारा भी लाल-सी हो गई हैएक विचार की दी सखियाँ आतंकवाद पर सष्ट हुई-सीं। सेठ जी के सिवा पर परिवार परंश हो पीड़ा का अनुभव कर रहा है।
: ...
आचरण के साम्हनं आते ही प्रायः चरण थम जाते हैं
और आवरण के सामने आते ही प्रायः नयन नम जाते हैं, यह देही मतिमन्द कभी-कभी रस्सी को सर्प समझ कर विषयों से हीन होता है तो कभी सर्प को रस्सी समझ कर विषयों में लीन होता है। वह सब मोह की महिमा है इस महिमा का अन्त तब तक हो नहीं सकता स्वभाव की अनभिज्ञता जीवित रहेगी जब तक।
हाँ ! हाँ ! ऐसी स्थिति में भी धैर्य-साहस के साथ सबसे आगे हो सेठ का संघर्ष चल ही रहा है आतंक से।
462 :: पृक माटी
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कुम्भ की सुरक्षा हेतु कुम्भ को अपने पेट के नीचे ले नीचे मुख कर लेटा है स्व-वश हो सह रहा है दुःसह कर्म-फल को
वन की घटना-स्मृति के कारण ! सात-आठ हाथ दूर से ही उपसर्ग यह चलता रहा निर्दयता के साथ। जिसके बल पर पार पाना है, कुम्भ को फोड़ने का प्रयास कई बार विफल हुआ जिसके बल पर प्राणों को त्राण मिला है, ऋटि में कमी रमी को ... शस्त्रों से काटने का प्रयास एक बार भी सफल नहीं हुआ, आग की नदी को पार करने वाले कुम्भ की कठिन तपस्या देख कहीं जलदेवता ने ही परिवार के चारों ओर विक्रिया के बल पर रक्षा-मण्डल भामण्डल की रचना की हो ! या यह चमत्कार मत्स्य-मुक्ता का भी हो सकता है। कुछ भी हो, अब आतंकवाद को स्व-पक्ष की पराजय
मुक माटी ::
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निकट लगने लगी, साथ ही साथ उसकं मन में पर-पक्ष का सदाशय भी प्रकटने लगा।
फलस्वरूप उसके तन की शक्ति वह कुम्भ-सहित परिवार को । अदेसव-भाव से देखने लगी, उसके मन की शक्ति वह अपने आप को क्रोधानल से सेंकने लगी,
और उसकी वचन-शक्ति तो पूरे माहौल के सामने अपने घुटने टेकने लगी, परन्तु उसकी वंचन-शक्ति वह अभी मिटी नहीं है ज्यों-की-त्यों बलवती वही पुरानी टेक लगी है तभी "तो". आतंकवाद अपने हाथों में एक ऐसा जाल ले जिसमें बड़ी-बड़ी मालियाँ अनायास फंस सकती हैं परिवार के ऊपर फेंकने को है, कि धरती के उपासक पवन में यह देखा नहीं गया आर
16il :
क. गाटा
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...::.
और क्या ?... प्रलय का रूप धरता है पचन, कोए बढ़ा, पारा चढ़ा चक्री का बल भी जिसे देख कर चक्कर खा जाय बस, ऐसा चक्रवात है यह ! एक ही झटके में झट से दल के करों से जाल को सुदूर शून्य में फेंक दिया, सो' ऐसा प्रतीत हुआ कि
आकाश के स्व सांनी :.:.:: स्वच्छन्द तैरने वाले प्रभापुंज प्रभाकर को ही पकड़ने का प्रयास चल रहा है
और लगे इस झटके से दल के पैर निराधार हो गये, कई गालादे लेते हुए नाव में ही सिर के बल चक्कर खा गिरा गया दल, अन्धकार छा गया उसके सामने नेत्र बन्द हो गये हृदय-स्पन्दन मन्द पड़ गया, रबत्त-गति में अन्तर आने से मूळ आ गई। परन्तु, दक्षा की मूंछे तो मूर्छित नहीं, अमूर्छित ही
तनी रहीं पूर्वचन् ! जोबन का अनुमान कैसे लगे प्राय प्रयाण-से कर गये ।
गफ माटी :: I
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बड़ी तेजी के साथ ओज-तेज से मुख विमुख हुआ दल का, मुख में झाग जागने लगा धरती से हँसता सागर तट-सा और नाव भी डाँवाडोल हो गई, पता नहीं कितनी बार पल-भर में अपनी ही परिक्रमा लगाती रही वह ! नाव के साथ सबके प्राण जमाप डूबने को . : ..
..... .
:
बात-बात में चक्रवात जब उत्पात-धात की ओर बढ़ता ही जा रहा 'इस अति की इति के लिए संकेत मिलता है उपालम्भ के साथ कुम्भ की ओर सेश्रद्धेय स्वामी की सेवा को सुखमय जीवन का स्रोत समझता सेवक की भाँति, वात भी कुम्भ के संकेत पर संयत हुआ।
और नाव पूर्व-स्थिति पर आती है
परिवार को तीन परिक्रमा देती। दुर्घटना टलने से समूचा माहौल ही प्रसन्न हुआ
Aid :: मूक माटी
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जिस भाँति लक्ष्मण की मूच्र्छा टूटी विशल्या की मंजुल अंजुलि के जल-सिंचन से। सरिता से उछले हुए सलिल-कणों का शीतल परस पा आतंकवाद की मूर्छा टूटी। फिर क्या पूछो ! लक्ष्मण की भाँति उबल उठा आतंक फिर से !
"पकड़ो ! पकड़ो ! ठहरो ! ठहरो ! सुनते हो या नहीं अरे बहरो ! मरो. या. . . . . . . .:. ...... ....... .... ...: हमारा समर्थन करो, अरे संसार को श्वभ्र में उतारने वालो ! किसी को भी तारने वाले नहीं हो तुम ! अरे पाप के मापदण्टो !
सुनो ! सुनो !"जरा सुनो ! अब धन-संग्रह नहीं, जन-संग्रह करो ! और लोभ के वशीभूत हो अन्धाधुन्ध संकलित का समुचित वितरण करो अन्यथा, धनहीनों में
मूक माटी :: 467
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चारी के भाव जागते हैं, जाग हैं। योग मत करो, चोरी मत करो यह कहना केवल धमं का नाटक है उपरिल सभ्यता"उपचार ! .
: होर का शापी नहीं होते . . . जितने कि चोरों को पैदा करन वाले। तुम स्वयं चोर हो चारों को पालते हो और चोरों के जनक भी। सजन अपने दोषों को कभी छुपाते नहीं, छुपाने का भाव भी नहीं लाते मन में
प्रत्युत उद्घाटित करते हैं उन्हें। रावण ने सीता का हरण किया था जब सीता ने कहा था : यदि मैं इतनी रूपवती नहीं होती रावण का मन कलुषित नहीं होता
और इस रूप-लावण्य के लाभ में मेरा ही कर्मोदय कारण है, यह जो कर्म-बन्धन हुआ हैं मेरे ही शुभाशुभ परिणामों से ! ऐसी दशा में रावण को ही टोपी घोपित करना
HTH :: पृक मारी
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अपने भविष्य-भाल की और दूषित करना है!
नदी ने कहा तुरन्त, "उतावली मत करो !
-
दल की दमनशील धमकियों से
सेठ के सिवा
परिवार का दिल हिल उठा,
उसके दृढ़ संकल्प को
पसीना - सा छूट गया ! उसकी जिजीविषा बलवती हुई
और वह
जीवन का अवसान
अकाल में देख कर.. आत्म-समर्पण के विषय में सोचने को बाध्य होता, कि
सत्य का आत्म-समर्पण और वह भी
असत्य के सामने कैसे ? हे भगवन् !
यह कैसा काल आ गया,
क्या असत्य शासक बनेगा अब ?
क्या सत्य शासित होगा ?
हाय रे, जौहरी के हाट में आज होरक-हार की हार ! हाय रे, काँच की चकाचौंध में मरी जा रही -.
पूक माटी 469
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हीरे की झगझगाहट ! अब सती अनचरा हो चलेगी व्यभिचारिणी के पीछे-पीछे। असत्य की दृष्टि में सत्य असत्य हो सकता है और असत्य सत्य हो सकता है, परन्तु क्या सत्य को भी नहीं रहा सत्यासत्य का विवेक ? क्या सत्य को भी अपने ऊपर
विश्वास नहीं रहा ? भीड़ की पीठ पर बैठ कर क्या सत्य की यात्रा होगी अव ! नहीं"नहीं, कभी नहीं।
जल में, थल में और गगन में यह सब कुछ असह्य हो गया है अव। घट में जब लौं प्राण इट कर प्रतिकार होगा इसका, ऐसी घटना नहीं घटेगी अपने ध्रुव-पथ से यह धारा नहीं हटेगी नहीं हटेगी ! नहीं हटेगी !" कहती-कहती कोपवती हो बहती-बहती क्षोभवती हो नदी नाव को नाच नचाती।
470 :: मूक माटी
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पल-पल पलटन की ओर नाव की दशा को देख कर मन-ही-मन मन्त्र का स्मरण आतंकवाद ने किया, कि
देवता-दल का आना हुआ सविनय नमन हुआ, सादर सेवार्थ प्रार्थना हुई। 'स्मरण का कारण ज्ञात हो, स्वामिन् !'
"कहा गया। आदेश की प्रतीक्षा में खिसकते हैं कुछेक पल, कि देयों का कहना हुआ नमन की मुद्रा में ही: "विद्याबलों की अपनी सीमा होती है स्वामिन् ! उसी सीमा में कार्य करना पड़ता है
"हमें : कहते लज्जानुभव हो रहा है प्रासंगिक कार्य करने में पूर्णतः हम अक्षम हैं एतदर्थ क्षमाप्रार्थी हैं।
वैसे,
हे स्वामिन् ! तुमने तुलना तो की होगी अपने बल की उस बल के साथ : यहाँ जाते हो हमने अनुभूत किया कि हम मृग-शावक-से खड़े हैं
मूक माटी :: ।
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मृगराज के सामने, संघर्ष का प्रश्न ही नहीं उठता ऐसी स्थिति में, परिवार की शरण में जाना ही पतवार को पाना है
और
अपार का पार पाना है। अन्य सभी प्रकार के व्यापार प्रहार और हार के रूप में ही सिद्ध होंगे, यह निश्चित हैं। इस पर भी चदि
...:: .. प्रतिकार का विचार ही
तो सुनो !
:.:. ::::::
सलिल की अपेक्षा अनल को बाँधना कटिन है और अनल की अपेक्षा अनिल की बाँधना और कठिन है।
परन्तु
सनील को चाँधना तो
सम्भव ही नहीं है। जल का शासन कभी
त पर चल नहीं सकता घृत जल पर बैठना जानता है अमरों पर विष का कभी असर पड़ नहीं सकता,
और 'भ्रमरों पर मपि का कभी असर पड़ नहीं सकता।"
172 :: मुक्र मादी
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कई सूक्तियाँ प्रेरणा देती पंक्तियाँ
कई उदाहरण दृष्टान्त नयी पुरानी दृष्टियों
और वह
-
दुर्लभतम अनुभूतियाँ देवता - दल ने सुनाईं।
आतंकवाद के गले जैसे-तैसे उत्तर तो गईं,
परन्तु
तुरन्त पचतीं कैसे !
पर्याप्त काल अपेक्षित है
पाचन कार्य के लिए,
देखते-ही-देखते
दृष्टि बदल सकती हैं,
पर चाल नहीं,
कषाय के वेग को संयत होने में
समय लगता ही हैं !
लो, इतना समय कहाँ था !
घटना घटनी थी
सो घटने को
अब कुछ ही समय शेष हैं
नाव की करनी
जहाँ पर लिखा हुआ था.
-
टूब
सब कुछ बल
गई
"
.. "निःशेष !
मूक माटी 173
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'आतंकवाद की जय हो समाजवाद का नय हो भेद-भाव का अन्त हो धेद भाव जयवन्त हो। इस दृश्य को दरख कर । दन के आत्म-विश्वास को यकायक आया। पहुँचा बन्नपात का वातावरण बना देवता-दल की बात सच निकली हाय र !
पश्चाताप मे पटता हुआ, व्याकुल शोकाकुल ही अबरद्ध-काट से कहता थाक
"कोई शरण नहीं है कोई तरुण नहीं है तुम्हारे बिना हमें यहाँ, क्षमा करा, क्षमा करो क्षमा के हे अवतार ! हमसे बड़ी भूल हुई, पुनरावृत्ति नहीं होगी
हम पर विश्वास हो : संकटों में घिरे ह्या हैं चाहो तो अब बचा तां, कंटकों में छिदे हार है। चाहो तो 1 बिलाओ; हम अपराधी हैं चात अपरा "धी' हैं सच्चा सो पश्च बताओ अधिक समय ना बिताओ :
17.1:: पक पाटी
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________________
1
सन्तान की प्रकृति शैतानी है, फिर भी सन्तान पर
"अधिक दीन-हीन मत बनो भाई,
जां
माँ की कृपा होती ही हैं
सन्तान हो या सन्तानेतर
यातना देना, सताना
माँ की सत्ता को स्वीकार कब था --"हमें बताना !"
यूँ कहते-कहते दल का मुख बन्द होता
कि
हरा-भरा तरु हैं
फूलों फलों दलों को ले
पथिक की प्रतीक्षा में खड़ा है
उससे
निमन्त्रित किया है
क्या वह उसे
जल पिता नहीं सकता ?
भला तुम ही बताओ !
Vidle S
' पर्व से केन्द्र की ओर
जब मति होने लगती है
अर्थ मे अर्थ की ओ तब गति होने लगती है' यूँ सोचता सेठ कहता है, कि
थोड़ी-सी छाँव की मँगनी
क्या हँसी का कारण नहीं है?
रस भोजन बना कर
विनय अनुनय के साच जिसने जिसे
मूक पाटी 475
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________________
.
.:
रही बात माँ की "सोकभी-कभार किसी कारण वश माँ की आँखों में भी उत्तेजना उद्वेग आ सकता है, आता है:
आना भी चाहिए। किन्तु, आज तक माँ की गौरवपूर्ण गोद में गुस्से का घुस आना नमुना न सुना, न देखा
पला . . ... . ... ..: जिस गोद में सुख के क्षण सहज बीतते हैं शिशु के।
और देखो ना ! माँ की उदारता-परोपकारिता अपने वक्षस्थल पर युगों-युगों से"चिर से दुग्ध से भरे दो कलश ले खड़ी है क्षुधा-तृषा-पीड़ित शिशुओं का पालन करती रहती है
और भयभीतों को, सुख से रीतों को गुपचुप हृदय से चिपका लेती है पुचकारती हुई।
माँ को माँ के रूप में जब एक बार स्वीकार ही लिया,
476 :: मूक माटी
Page #499
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फिर बार-बार उसकी क्या परख-परीक्षा ? इसलिए अब, मां की आँखों में मत देखो
और
अपराधी नहीं बनो अपरा 'धी' बनो, 'पराधी' नहीं पराधीन नहीं
अपराधी न बना !"
सेट का इतना कहना ही पर्याप्त था, कि संकोच-संशय समाप्त हुआ दल का
और
डूबती हुई नाव से दल कूद पड़ा धार में माँ के अंक में निःशंक हो कर
शिशु की भाँति । तुरन्त शिशु को झेलती ममता की मूर्ति माँ-सम परिवार ने दल को झेला, परिवार के प्रति-सदस्य से दल के प्रति-सदस्य को आदर के साथ सहारा मिला और नव - जीव नव-जीवन पाये !
लो, अब हुआ" नाव का पूरा इवना
पूक माटी :: +7
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और अनन्तवाद का श्रीगणेश !
सबसे आगे कुम्भ है मान-दम्भ से मुक्त, नव-नव व्यक्तियों की दो पंक्तियाँ कुम्भ के पीछे हैं
परस्पर एक-दूसरों के आश्रित हो चल रही हैं एक माँ की सन्तान-सी तन निरे हैं
"एक जान-सी। .
कुम्भ के मुख से निकल रही हैं मंगल-कामना की पंक्तियाँ :
'यहाँ सबका सदा जीवन बने मंगलमय छा जावे सुख-छाँच, सबके सब टतें
वह अमंगल-भाव, सबकी जीवन-लता हरित-भरित विहंसित हो गुण के फूल विलसित हों नाशा की आशा मिटे आमूल महक उठे
. बस !" और इधर यह क्यों कूल में आकुलता दिखने लगी ।
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कम्भ का स्वागत करना है उसे वाल-भानु की भास्वर आभा निरन्तर उटती चंचल लहरों में उलझती हुई-सी लगती है
कि
. ... :: : गुनाही साड़ी पहले
मदवती अबलाओं-सी स्नान करती-करती
लज्जावश सकुचा रही है। पूरा वातावरण ही धर्मानुराग से भर उठा हैं
और निकट-सन्निकट आ ही गया उत्कण्ठित नदी-तट।
सर्व-प्रथम चाव से तट का स्वागत स्वीकारते हुए कुम्भ ने तट का चुम्बन लिया। तट में झाग का जाग है जिसकी धवलिम जाग में अरुण की आभा का मिश्रण है, सो"ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तर स्वयं अपने करों में गुलाब का हार ले कर
स्वागत में खड़ा हुआ है। नदी से बाहर निकल आये सब प्रसन्नता की श्वास स्वीकारते। धरती की दुर्लभ धूल का परस किया सब की पगलियों ने
मूक माटो :: 179
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फिर, कटि में कसी रस्सी को परस्पर एक-दूसरों ने खोल दी
कि रस्सी बोलती है : "मुझे क्षमा करो तुम, मेरे निमित्त तुम्हें कष्ट हुआ।
तुम्हारी
दुबली-पतली कटि बह छिल-छुल कर
और घटी कटी-सी बन गई है" तो तुरन्त परिवार ने कृतज्ञता अभिव्यक्त करते हुए कहा,
"नहीं"नहीं अपि विनयवति । पर-हित-सम्पादिके ! तुम्हारी कृपा का परिणाम है यह
हम पार पा गये। आज हमें किसकी क्या योग्यता है, किसका कार्य-क्षेत्र कहाँ तक है, सही-सही ज्ञात हुआ। 'केवल उपादान कारण ही कार्य का जनक हैयह मान्यता दोष-पूर्ण लगी, निमित्त की कृपा भी अनिवार्य है।' हाँ ! हाँ
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उपादान-कारण ही कार्य में टलता है
यह अकाट्य नियम है. किन्तु उसके ढलने में निमित्त का सहयोग भी आवश्यक है, इसे चैं कहें तो और उत्तम होगा कि उपादान का कोई यहाँ पर पर-मित्र है"तो वह निश्चय से निमित्त है जो अपने मित्र का निरन्तर नियमित रूप से गन्तव्य तक साथ देता है।"
और फिर एक वार, ........ .. . . : . एसी की दि की जाँखों से
देखता हुआ परिवार छने जल से कुम्भ को 'भर कर आगे बढ़ा कि वही पुराना स्थान जहाँ माटी लेने आया है. शिल्पी कुम्भकार बह !
परिवार सहित कुम्भ ने कुम्भकार का अभिवादन किया
स्मृतियाँ ताजी हो आई मानो पवन का परस पा कर सरवर तरंगाचित हो आया।
मुक पाटी :- RA
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कृती-फुली धरतो कहती है"माँ सत्ता को प्रसन्नता हैं, बेटा तुम्हारी उन्नति देख कर मान-हारिणी प्रणति देख कर।
'पूत का लक्षण पालने में कहा था न बेटा, हमने उस समय, जिस समय तुम तमने मेरी आज्ञा का पालन किया
जो
कुम्भकार का संसर्ग किया
सृजनशीत जीवन का
आदिम सगं हुआ। जिसका संसर्ग किया जाता है उसके प्रति समर्पण भाव हो. उसके चरणों में तीन जो अहं का उत्सगं किया
सजनशील जीवन का
द्वितीय सगं हुआ। समर्पण के बाद समर्पित की बड़ी-बड़ी परीक्षाएँ होती हैं और ''सुनो ! खरी-खरी समीक्षाएँ होती हैं, तुमने अग्नि-परीक्षा दी उत्साह साहस के साथ जो उपसर्ग सहन किया,
4H2 :: मुक पाटी
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सृजनशील जीवन का तृतीय सगं हुआ। परीक्षा के बाद परिणाम निकलता ही है पराश्रित-अनुस्वार, यानी बिन्दु-मात्र वणं-जीवन को तुमने ऊर्ध्वगामी-ऊर्ध्वमुखी जां स्वाचित विसर्ग किया,
सो
.
सृजनशील जीवन का अन्तिय सर्व हुआ। ... . . . . . . . .
निसर्ग से ही सृज-धातु की भांति भिन्न-भिन्न उपसर्ग पा तुमने स्वयं को जो निसर्ग किया,
सृजनशील जीवन का वगांतीत अपवर्ग हुआ।"
धरती की भावना को सुन कर कुम्भ सहित सबने कृतज्ञता की दृष्टि से कुम्भकार की ओर देखा,
नम्रता की मुद्रा में कुम्भकार ने कहा
मूक मारी ::
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''यह सब ऋषि-सन्तों की कृपा है, उनकी ही संबा में रत एक जघन्य सेवक हूँ मात्र, और कुछ नहीं।" और कुछ ही दूरी पर पादप के नीचे पाषाण-फलक पर आसीन नीराग साधु की ओर सवका ध्यान आकृष्ट करता है
कि तुरन्त सादर आकर प्रदक्षिणा के साथ सबने प्रणाम किया पूज्य-पाद के पद-पंकजों में। पादाभिषेक हुआ, पादोदक सर पर लगाया। फिर, चातक की भांति गुरु-कृपा की प्रतीक्षा में सब।
कुछेक पल रीतते कि गुरुदेव का मुदित-मुख प्रसाद बाँटने लगा, अभय का हाथ ऊपर उठा, जिसमें भाव भरा है'शाश्वत सुख का ताभ हो' । इस पर तुरन्त आतंकवाद ने कहा, कि "हे स्वामिन !
14:: मूक पार्टी
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समग्र संसार ही दुःख से भरपूर है, वहाँ सुख है, पर वैषयिक
और वह भी क्षणिक ! यह तो अनुभूत हुआ हमें,
परन्तु
अक्षय - सुख पर विश्वास ही नहीं रहा है; हाँ हाँ !! यदि अविनश्वर-सुख पाने के बाद आप स्वयं उस सुख को हमें दिखा सको
उस विषय में अपना अनुभव बता सको
''तो सम्भव है हम भी विश्वस्त हो आप-जैसी साधना को जीवन में अपना सकें, अन्यथा मन की बात मन में ही रह जाएगी इसलिए 'तुम्हारी भावना पूरी हो' ऐसे वचन दो हमें, बड़ी कृपा होगी हम पर।
दल की धारणा को सुन कर मृदु-मुस्काले सन्त ने कहा
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प्रवचन देना उसे,
किन्तु
कभी किसी को भूल कर स्वप्न में भी वचन नहीं देना |
असम्भव
कारण सुनो! गुरुदेव ने मुझे कल
कुछ दिशा-बांध चाहता हो
तां’'''
मितमित-मिष्ट वचनों में
16 ya
कभी किसी का
चवन नहीं देना,
क्योंकि तुमने
गुरु को वचन दिया है :
!
! ह चाँद काई भव्य
भोला-भाला भूला भटका अपने मी की गाव विनीत मात्र से भरा
दूसरी बात है कि
वन्धन संपदा,
भन और वचन का
आगर जाना ही
पाद है।
इसी मोक्ष की शुद्ध दशा में ग्लश्वरी है
जिसे
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प्राप्त होने के बाद, यहां संसार में आना कैसे सम्भव है
तुम ही बता दो ! दुग्ध का विकास होता हैं फिर अन्त में घृत का विलास होता है, किन्तु घृत का दुग्ध के रूप में लौट आना सम्भव है क्या ? तुम ही बता दो !
दल की भाव-भंगिमा को देख कर पुनः सन्त ने कहा कि"इस पर भी यदि तुम्हें श्रमण-साधना के विषय में और अक्षय सुख-सम्बन्ध में विश्वास नहीं हो रहा हो तो फिर अब अन्तिम कुछ कहता हूँ
कि,
क्षेत्र की नहीं, आचरण की दृष्टि से मैं जहाँ पर हैं वहाँ आ कर देखो मुझे, तुम्हें होंगी मेरी सही-सहीं पहवान क्योंकि ऊपर से नीचे देखने से
मुझ पाटी :. 187
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________________ मुझे चक्कर आता है और नीचे से ऊपर का अनुमान लगभग गलत निकलता है। इसीलिए इन शब्दों पर विश्वास लाओ, हाँ, हाँ !! विश्वास को अनुभूति मिलेगी अवश्य मिलेगी मगर मार्ग में नहीं, मंजिल पर !" ..... और .. . महा-मौन में डूबते हुए सन्त और माहौल को अनिमेष निहारती-सी "मूक माटी।