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________________ : . . . बाहर सो भीतर, भीतर “सो बाहर पण: वचसा.- मनसा एक ही व्यवहार, एक ही बसबहती यहाँ उपयोग की धार ! और सुनो ! यहाँ बाधक-कारण और ही हैं, वह हैं स्वयं अग्नि। मैं तो स्वयं जलना चाहती हूँ परन्तु, अग्नि मुझे जलाना नहीं चाहती है इसका कारण वही जाने।" किन शब्दों में अग्नि से निवेदन करूँ, क्या वह मुझे सन सकेगी ? क्या उस पर पड़ सकेगा इस हृदय का प्रकाश-प्रभाव ? क्या ज्वलन जल बन सकेगा ? इसकी प्यास बुझ सकेगी? कहीं वह मुझ पर कुपित हुई तो? यूँ सोचता हुआ शंकित शिल्पी एक बार और जलाता है अग्नि । लो, जलती अग्नि कहने लगी : ''मैं इस बात को मानती हूँ कि अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक किसी को भी मुक्ति मिली नहीं, न ही भविष्य में मिलेगी। जब यह नियम है इस विषय में फिर : मूक माटी :: 275
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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