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________________ परन्तु सुनो! मुम्ता वह नामानुकूल न राग करतीं, न द्वप से धरती अपने आपको । न ही मद-मान-मात्सर्य उसे छू पाते कोई विकार ! सर्व-प्रथम प्रांगण में गिरी आकाश मण्डल में .. .. . . . . . . . . फिर निरी-निरी हो बिखरी, बोरियों में भरी गई। सम्मान के साथ अब जा रही है राज-प्रासाद की ओर.. मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा हो रही है, मन्त्रमुग्धा हो सुनती कव उसे ? मुदित-मुखी महिलाओं के संकटहार कण्टहार बनती ! द्वार पर आगत अभ्यागतों के सर पर हाथ रखती, तारणहार तोरणद्वार बनती, इस पर भी वह उन्मुक्ता मुक्ता ही रहती अहंभाव से जसंपृक्ता मक्ता"! कुम्भकार के निवेदन, मुक्ता और माहौल के सराहन-समर्थन पर विचार करता हुआ राजा स्वीकारोक्ति का स्वागत करता है, सानन्द ! पूक माटी :: 221
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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