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माटी को सान्त्वना देता-सा अभय की मुद्रा में से कुछंक पल बीत गए शिल्पी के
और अपना साथी-सहयोगी आहूत हुआ अवैतनिक 'गदहा', तनिक-सा वह भी तन का वेतन लेता है वह सब बन्धनों से मुक्त घाटी में विचर रहा था जो। कोई भी बन्धन जिसे रुचते नहीं मात्र बंधा हुआ है वह स्वामी की आज्ञा से। अपदा माटी को स्वामी के उपाश्रम तक ले जा रहा है अपनी पुष्ट पीठ पर।
वीच पथ में दृष्टि पड़ती है माटी की गदहे की पीठ पर। खुरदरी बोरी की रगड़ से पीट छिल रही है उसकी
और माटी के भीतर जा
34 :: मूक माटी