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और भीतर उतरती-सी पीर मिल रहीं हैं।
माटी की पतली सत्ता अनुक्षण अनुकम्पा से सभीत हो हिल रही है। बाहर-भीतर मीत बन कर प्रीत खिल रही है; केवल क्षेत्रीय ही नहीं भावों की निकटता भी अहमपिचा . इस प्रतीति के लिए। यहाँ पर अचेत नहीं चेतना की सचेतरीत मिल रही है !
भावों की निकरता तन की दूरी को पूरी मिटाती-सी।
और,
बोरी में से माटी क्षण-क्षण छनन्छन कर छिलन के छेदों में जा मृदुतम मरहम बनी जा रही है, करुणा रस में और सनी जा रही है। इतना ही नहीं,
मूक मारी :: 3