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और वेदना से घिर आती हैं एक साथ तत्काल वे अपूर्यता की प्यासी है प्रभु की दासी-सी वरीयमी लनी हैं.. ... . जिन आँखों से छूट-छूट कर माटी के चरणों को धोती हैं वह
ज्जली-उजली अश्रु की बूंदें...! जिन बूंदों ने क्षीर-सागर की पावनता मूलतः हरी है पीर-सागर की सावणता चूलतः झरी है।
यहाँ पर इस युग को यह लेखनी पूछती है
क्या इस समय मानवता पूर्णत: मरी है? क्या यहाँ पर दानवता आ उभरी है? लग रहा है कि मानवता से दानवत्ता कहीं चली गई है? और फिर
पृक माटी :: 81