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________________ शोक से शून्य, सदा अशोक हैं जिनका जीवन ही विरति है तभी तो उनसे दूर फिती रहती एनि वह जिनके पास संग है न संघ, जो एकाकी हैं, फिर चिन्ता किसकी उन्हें ? सदा-सर्वथा निश्चिन्त हैं, अष्टादश दोषों से दूर " ऐसे आर्हतों की भक्ति में डूबता है, कुछ पलों के लिए नासाग्र दृष्टि हो, महामना । " श्रमण का कायोत्सर्ग पूर्ण हुआ कि आसन पर खड़ा हुआ वह अतिथि दोनों एड़ियों और पंजों के बीच, क्रमशः चार और ग्यारह अंगुल का अन्तर दे । स्थिति - भोजन-नियम का ही नहीं, एक भुक्ति का भी पालक है। पात्र ने अपने युगल करों को पात्र बना लिया, दाता के सम्मुख आगे बढ़ाया । 'मन को मान-शिखर से नीचे उतारने वाली भिक्षावृत्ति यही तो है' यूँ कहती हुई यह लेखनी क्षुधा की मीमांसा करती हैं : मूकमाटी : 327
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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