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तीन-चार दिन हो गये किसी कारणवश विवश हो कर जाना पड़ा बाहर कुम्भकार को। पर, प्रवास पर तन ही गया है उसका, मन यहीं पर
बार-बार लौट आता आवास पर ! तन को अंग कहा है मन को अंगहीन अन्तरंग अनंग का योनि-स्थान है यह ... . . . . . . .. सब संगों का उत्पादक है सब रंगों का उत्पातक!
तन का नियन्त्रण सरल है
और मन का नियन्त्रण असम्भव तो नहीं, तथापि वह एक उलझन अवश्य है
कटुक-पान गरल है वह"। कुम्भकार की अनुपस्थिति होना कुम्भ में सुखाव की उपस्थिति होना यह स्वर्णावसर है मेरे लिएयूँ जलधि ने सोचा।
और हर-हर कहती लहरों के बहाने सूचित किया बादलों को अपनी कूटनीति से जो पहले से ही प्रशिक्षित थे।
TIK :: मूक सारी