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इस मन का छल निश्चल हैं मन माया की खान है ना ! बदला लेना ठान लिया है शिल्पी से इसने। शिल्पी को शल्य-पीड़ा द कर ही इस मन को चैन मिलंगी वैसे मन वैर-भाव का निधान होता ही है।
मन की छांव में ही मान पनपता है मन का माधा नमता नहीं न-मन' हो, तव कहीं नमन हो 'समण' को इसलिए मन यही कहता है सदा-.
नम न! नम न:: नम न!!! बादल-दल पिघल जाए, किसी भाँति! काँटे का बदले का भाव बदल जाए इसी आशय से माटी कुछ कहती हैं उसे
"बदले का भाव यह दल-दल है.
कि जिसमें बड़े-बड़े बैल ही क्या, चल-शाली गज-दल तक बुरी तरह फंस जाले हैं
और
गल-कपोल तक पूरी तरह धंस जाते हैं।
गृक पाटा .