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________________ E ऐसा प्रतीत हो रहा भीतरी दोष समूह सब जल-जल कर बाहर आ गये हों, जीवन में पाप को प्रश्रय नहीं अब, कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है मुक्तात्मा सी तैरता - तैरता पा लिया हो 298 मूकमाटी पापी वह प्यासे प्राणी को पानी पिलाता भी कब ? अपार भव-सागर का पार । जली हुई काया की ओर कुम्भ का उपयोग कहाँ ? संवेदन जो चल रहा है भीतर ! भ्रमर वह अप्रसन्न कब मिलता है ? उसकी भी तो काया काली होती है, सुधा सेवन जो चल रहा है सदा ! वह किं काया में रहने मात्र से काया की अनुभूति नहीं, माया में रहने मात्र से सावधान हो शिल्पी अवा से एक-एक कर क्रमशः माया की प्रसूति नहीं, उनके प्रति तगाव-चाव भी अनिवार्य है। O
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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