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कर पर ले, फिर धरती पर रखता जा रहा कुम्भों को। धरती की थी, है, रहेगी माटी यह। किन्तु पहले धरती की गोद में थी आज धरती की छाती पर है कुम्भ के परिवेश में। बहिरंग हो या अन्तरंग कुम्भ के अंग-अंग से संगीत की तरंग निकल रही है, और भूमण्डल और नभमण्डल ये उस गीत में तैर रहे हैं।
लो, कुम्भ को अवा से बाहर निकले दो-तीन दिन भी व्यतीत ना हुए उसके मन में शुभ-भाव का उमड़न बता रहा है सबको कि, अब ना पतन, उत्पतन" उत्तरोत्तर उन्नयन-उन्नयन नूतन भविष्य-शस्य भाग्य का उघड़न !
बस,
अब दुर्लभ नहीं कुछ भी इसे
सब कुछ सम्मुख समक्ष ! भक्त का भाव अपनी ओर भगवान को भी खींच ले आता है, वह भाव है
मूक मादी :: 25