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________________ आखिर:- आचार्य श्री सुनिशिसागर जी महारा उसकी सखी बोलती है"कथंचित बात सच है तुम्हारी, परन्तु हमारे भक्षण से अपनी ही जाति बदि पुष्ट-सन्तुष्ट होती है तो वह इष्ट हैं क्योंकि अन्त समय में अपनी ही जाति काम आती है शेष सब दर्शक रहते हैं दार्शनिक बन कर! और विजाति का क्या विश्वास ? आज श्वास-श्वास पर विश्वास का श्वास घुटता-सा देखा जा रहा है। प्रत्यक्ष! और सुनो। बाहरी लिखावट-सी भीतरी लिखावट माल मिल जाए, फिर कहना ही क्या ! यहाँ तो. 'मुँह में राम बगल में बगुला' छलती है। दया का कथन निरा है और दया का वतन निरा है 72:: मूक मादी
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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