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________________ उसे नूतन जाल-बन्धन समझ सब मछलियाँ भागतीं भीति से । मात्र संकल्पिता वह मछली वहीं खड़ी हैं साथ एक को सखी है उसकी और उस सखी को कुछ कहती है वहः "चल री चल! इसी की शरण लें हम। . 'धम्मो दया-विसुद्धो यही एक मात्र है अशरणों की शरण! महा-आयतन है यह यहीं हमारा जतन है बरना, निश्चित ही आज या कल काल के गाल में कवलित होंगे हम! क्या पता नहीं तुझको? छोटी को बड़ी मछली साबुत निगलती हैं यहाँ और सहधर्मी सजाति में ही वैर वैमनस्क भाव परस्पर देखे जाते हैं ! श्वान, श्वान को देख कर ही नाखूनों से धरती को खोदता हुआ गुर्राता है बुरी तरह।" मूक माटी :: 71
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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