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________________ लकड़ी अपनी व्यथा कहती है। अब में लकड़ियाँ जलती हैं, बुझती हैं, बराबर कम्भकार उन्हें प्रचलित करता है। अपक्व कुम्भ कहता है अग्नि से : मेरे दोषों को जलाना ही / मुझे जिलाना है। स्व-पर दोषों को जलाना / परम-धर्म माना है सन्तों ने । दोष अजीव हैं,/ नैमित्तिक हैं बाहर से आगत हैं कथंचित गुण जीवगत हैं, गुण का स्वागत है। तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से. इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुमसे, मुझमें जल-धारण करने की शक्ति है जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, उसकी पूरी अभिव्यक्ति में तुम्हारा सहयोग अनिवार्य है। (8277 चौथे खण्ड का फलक इतना विस्तृत है और कथा प्रसंग इतने अधिक हैं कि उनका सार-संक्षेप देना भी कठिन हैं। अन्ना में कुम्भ कई दिन तक तपा है। अवे के पास आता है कुम्भकार : 'कुम्म की कुशलता सो अपनी कुशलता' यूँ कहता हुआ कुम्भकार / सोल्लास स्वागत करता है अवा का, और / रेतिल राख की राशि को, / जो अवा की छाती पर थी हाथों में फावड़ा ले, हटाता है। ज्यों-ज्यों राख हटती जाती, त्यों-त्यों कुम्भकार का कुतूहल बढ़ता जाता है, कि कब दिखें वह कुशल कुम्म | (पाठ 206) और, पके-तपे कम्भ को निकालता हैं बाहर, सोल्लास । इसी कुम्भ को कुम्भकार ने दिया है श्रद्धाल नगर-सेठ के सेवक के हाथों कि इसमें भरे जल से आहारदान के लिए पधारे गुरु का पाद-प्रक्षालन हो, तृषा तृप्त हो। ले जाने से पहले साल बार बजाता है संबक और सात स्वर उसमें से ध्वनित होते हैं, जिनका अर्थ कवि के मन में इस प्रकार प्रतिध्वनित होता है : सारेगम'"यानी (सारे गम) सभी प्रकार के दाख प"ध यानी पद-स्वभाव तेरह
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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