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रात्रि लम्बी होती जा रही है। धरती को निद्रा ने घेर लिया
और माटी को निद्रा
छूती तक नहीं। करवटें बदल रही प्रभात की प्रतीक्षा में।
तथापि, माटी को रात्रि भी प्रभात-सी लगती है : "दुःख की वेदना में जब न्यूनता आती है दुःख भी सुख-सा लगता है।
और यह भावना का फल हैउपयोग की वात!"
आखिर, वह घड़ी आ ही गई जिस पर दृष्टि गड़ी थी अनिमेष"अपलक !
और माटी ने अवसर का स्वागत किया, तुरन्त बोल पड़ी कि
"प्रभात कई देखे
18 :: मूक माटी