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मति सन्मति हो सकती है माया उपेक्षित हो तो"
अन्ध-कृप में पड़ी हूँ मैं कुरूपता की अनुभूति से कूप-मण्डूक-सी......... स्थिति है मेरी। गति, मति और स्थिति सारी विकृत हुई हैं स्वरूप-स्वभाव ज्ञात कैसे हो? ऊपर से प्रेषित हो कर मुझ तक एक किरण भी तो नहीं आती।
और, मछली के मुख से निकल पड़ी दीनता-धुली ध्वनि
कि इस अन्ध-कूप से निकालो इसे कोई उस हंस रूप से
मिला लो इसे कोई इस रुदन को कोई सुनता भी तो नहीं अरे कान वालो!'"सब बहरे हो गये हैं क्या?
यह रुदन, अरण्य-रोदन ही रहा है ऐसा सोच, पुनः विकल्पों में डूबती है माइली और उस डूबन में
मूक माटो :: 7