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आरी रस्सी!! बावली कहीं की मेरी आली!"
इधर यह क्या हुआ? स्निग्ध-स्मित मतिवाली काया की छाया, शिल्पी की सुदूर कूप में स्वच्छ जल में स्वच्छन्द तैरतीमछली पर जा पड़ी।
ऊपर हो उठी, और उसकी मानस-स्थिति भी ऊध्र्यमुखी हो आई,
परन्तु
उपरिल-काया तक मेरी काया यह कैसे उठ सकेगी? यही चिन्ता है मछली को! काया जड़ है ना! जड़ को सहारा अपेक्षित है,
और वह भी जंगम का। और सुनो ! काया से ही माया पली है माया से भावित-प्रभावित मति मेरी यह ।
66 :: मूक माटी