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सदियों से सदुपदेश देती आ रही हैं पुरुष-समाज को यह अनंग के संग से अंगारित होने वालो ! सुनो, चारा सुनो तो! स्वीकार करती हूँ कि मैं 'अंगना' हूँ परन्तु, मात्र अंग ना हूँ और भी कुछ हूँ मैं! अंग के अन्दर भी कुछ झाँकने का प्रयास करो, अंग के सिवा भी कुछ माँगने का प्रयास करी, जो देना चाहती हूँ, लेना चाहते हो तुम ! 'सो' चिरन्तन शाश्वत है 'सो' निरंजन भास्वत है भार-रहित आभा का आभार मानो तुम !"
प्रभाकर का प्रवचन वह हृदय को जा गया छूमन्तर हो गया, भाव का वैपरीत्य, वाद-विवाद की बात सुला दी गई चन्द पलों के बाद ही संबाद की बात भी सुला दी गई बाहर के अनुरूप बदलाहट भीतर भी तीनों बदली ये बदलीं।
मुक माटी :: 207