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________________ मनवांछित फल मिलना ही उद्यम की सीमा मानी है:इस सूक्ति को स्मृति में रखता हूँ । यही कारण हैं कि, पथ में विश्राम करना यह पथिक नहीं जानता । प्रभु से निवेदन- फिर से अपूर्व शक्ति की मांग ! भुक्ति की ही नहीं, मुक्ति की भी चाह नहीं हैं इस घट में वाह वाह की परवाह नहीं है प्रशंसा के क्षण में । दाह के प्रवाह में अवगाह करूँ परन्तु, आह की तरंग भी कभी नहीं उठे इस घट में संकट में। इसके अंग-अंग में रग-रग में विश्व का तामस आ भर जाय कोई चिन्ता नहीं, किन्तु, विलोम भाव से यानी तामस सम`ता'! 284 : मूकमाटी हे स्वामिन्, और सुनी व्यक्तित्व की सत्ता से पूरी तरह कब गया है यह
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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