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पर! पंक से घृणा करो अयि आर्य ! नर से नारायण बनो समयोचित कर कार्य।"
कड़वीं यूंट-सी पी कर दीनता भरी आँखों से कंकर निहारते हैं माटी की ओर अब।
और, माटी स्वाधीनता-धुली आँखों से कंकरों की ओर मुड़ी, देखती है
माटी की शालीनता कुछ देशना देती-सी"
"महासत्ता-माँ की गवेषणा समीचीना एषणा और संकीर्ण-सत्ता की विरेचना अवश्य करना है तुम्हें! अर्थ यह हुआलघुता का त्यजन ही गुरुता का यजन ही शुभ का सृजन है। अपार सागर का पार पा जाती है नाय हो उसमें छेद का अभाव भर :
मूक माटी :: 51