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________________ म्वणं को उगलती अवश्य, . तुम माटी के उगाल हो । आज तक. न सुना, न देखा और न ही पढ़ा, कि स्वर्ण में वोया गया वीज अंकरित हा कर फूला-फना, लहलहाया हो पौधा बन कर। हे म्वर्ण-मालश ! 2 .. ४ ओर देख कर जा वीभूत होता है वही द्रव्य अनमोन माना है। दया से दरिद्र द्रव्य किस काम का ? मार्टी स्वयं भीगती है दया से और औरों को भी भिगोती है। माटी में बोया गया वीज समुचित अनिल-सलिल पा पीपक तत्त्वों से पुष्ट-परित सहस्त्र गुणित हो फलता हैं। माटो कं स्वभान-धर्म में अल्पकाल के लिए अत्यल्प अन्ना आना भी विश्व के श्वासों का विश्वास हा समाप्न। यानी प्रतवमान का आना ह। एक बान और है कि * स्वर्ण-कलश। पृक माटी :: 365
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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