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________________ फिर, कटि में कसी रस्सी को परस्पर एक-दूसरों ने खोल दी कि रस्सी बोलती है : "मुझे क्षमा करो तुम, मेरे निमित्त तुम्हें कष्ट हुआ। तुम्हारी दुबली-पतली कटि बह छिल-छुल कर और घटी कटी-सी बन गई है" तो तुरन्त परिवार ने कृतज्ञता अभिव्यक्त करते हुए कहा, "नहीं"नहीं अपि विनयवति । पर-हित-सम्पादिके ! तुम्हारी कृपा का परिणाम है यह हम पार पा गये। आज हमें किसकी क्या योग्यता है, किसका कार्य-क्षेत्र कहाँ तक है, सही-सही ज्ञात हुआ। 'केवल उपादान कारण ही कार्य का जनक हैयह मान्यता दोष-पूर्ण लगी, निमित्त की कृपा भी अनिवार्य है।' हाँ ! हाँ 480 :: मूक माटी
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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