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आदिम-याटी को ही पार कर रही है, घाटियों की परिपाटी प्रतीक्षित है अभी ! और "सुनो ! आग की नदी को भी पार करना है तुम्हें, वह भी बिना नौका ! हाँ ! हाँ !! अपने ही बाहुओं से तैर कर, तीर मिलना नहीं विना तेरें।
इस पर कुम्भ कहता है, कि "जल और ज्वलनशील अनल में अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में। निरन्तर साधना की यात्रा भेद से अभेद की ओर वेद से अवेद की ओर बढ़ती है, बढ़ना ही चाहिए अन्यथा, वह यात्रा नाम की है यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।" कुम्भ की ये पंक्तियाँ बहुत ही जानदार असरदार सिद्ध हुईं।
पूक माटी :: 267