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________________ सन्त का अशान्त मन यूँ पूछता है : ओ वासन्ती ! मही माँ ! कहाँ गई ओ वसन्त की महिमा ! कहाँ गई? इस पर कुछ शब्द मिलते सुनने सन्त को, " वसन्त का अन्त हो अनन्त में सान्त खो चुका है चुका है और उसकी देह का अन्तिम दाह-संस्कार होना है I निदाघ आहूत था, सो आगत है प्रभाकर का प्रचण्ड रूप है चिलचिलाती धूप है बाहर भीतर, दायें-बायें आगे पीछे ऊपर नीचे धग धगाहट लपट चल रही है बस : बरस रही केवल तपन' तपन" "तपन ं’! - - - दशा बदल गई है दशों दिशाओं की - धरा का उदारतर उर और उरु उदर ये गुरु दरारदार बने हैं जिनमें प्रवेश पाती है आग उगलती हवाएँ ये अपना परिचय देती-सी रसातल-गत उचलते लावा को । मूकमाटी : 177
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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