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________________ तुम्हें कुछ भी नहीं कहना है तुम पर दया आती हैं: उनको ही देखना है. जो... निश्छलों से छल करते हैं जल - देवता से भी जला करते हैं।" और अनगिन तरंग करों से परिवार के कोमल कपोतों पर तमाचा मारना प्रारम्भ करती है." कुपित पित्तवती नदी । "धरती के आराधक धूर्तो ! कहाँ जाओगे अब ? जाओ, धरती में जा छुप जाओ उससे भी नीचे ! पातको पाताल में जाओ ! पाखण्ड - प्रमुखो ! मुख मत दिखाओ हमें । दिखावा जीवन हैं। काल- भक्षी होता है, लक्ष्यहीन दीन-दरिद्र व्याल - पक्षी होता है धरती-सम एक स्थान पर तुम्हारा रह-रह कर पर को और परधन को अपने अधीन किया है तुमने, ग्रहण - संग्रहण रूप संग्रहणी रोग से ग्रसित हो तुम ! इसीलिए क्षण-भर भी कहीं रुकती नहीं मैं 3 मूक पाटी 447
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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