SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वनका पीवन संजीवन लुटता-सा लगता है। अग्नि मित्र है ना पचन का ! तेज तत्त्व का स्रोत है ना सूर्य ! अरुक, अथक पथिक हो कर भी पवन के पद थमे हैं आज मित्र की आजीविका लुटती देख । से कम्पित हैं अनुकम्पा सो तन में कम्पन है, मासूम ममता की मूर्ति स्वर - विहारी स्वतन्त्र - संज्ञी संगीत - जीवी संयम-तन्त्री सर्व-संगों से मुक्त निःसंग अंग ही संगाती संगी जिसका संघ-समाज-सेवी . वात्सल्य-पूर वक्षस्तल ! तमो- रजो अवगुण- हनी सती- गुणी, श्रमगुण-धनी वैर-विरोधी वेद-बांधि सन्ध्या की शंका से शंकाकुल आकस्मिक भय से व्याकुल जिसके पंख भर आये हैं श्लथ पक्षी दल वह विहंगम दृश्य दर्शन छोड़ अपनी-अपनी नीड़ों पर आ मौन बैठ जाता है जिसका तन, और चिन्ता की सुदूर गहनता में पैठ जाता है जिसका मन ! अनुक्षण मूकमाटी :: 289
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy