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________________ सहज प्राप्त शक्ति का सदुपयोग करना है, धर्म हैं। और, दुष्टों का निग्रह नहीं करना शक्ति का दुरुपयोग करना है, अधर्म ! मैं निर्दोष नहीं हूँ. दोषों का कोष बना हुआ हूँ मुझमें वे दोष भरे हुए हैं । जब तक उनका जलना नहीं होगा मैं निर्दोष नहीं हो सकता । तुम्हे बनाने की शक्ति मेरी है कहाँ कह रहा हूँ कि मुझे जलाओ ? मेरे दोषों को जलाओ ! ...:: Aa मेरे दोषों को जलाना ही मुझे जिलाना है स्व-पर दोषों को जलाना परम धर्म माना है सुन्तों ने । दोष अजीव हैं, नैमित्तिक हैं, बाहर से आगत हैं कथंचित् गुप्प जीवगत हैं, गुष्ण का स्वागत है । तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से, इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुमसे मुझमें जल धारण करने की शक्ति है जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, उसकी पूरी अभिव्यक्ति में तुम्हारा सहयोग अनिवार्य हैं।" पूक माटी : 277
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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