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________________ ľ जात-पात को भी, हा लात लगा दी तूने ! लाज-लिहाज वाली कोई वस्तु ही नहीं तेरे लिए ! इसे तू समता नहीं कह सकती न ही असीम क्षमता ! अब बकवाद मत कर बक ने सबक ली है तेरी इस प्रकृति से ही ! . दूसरों से प्रभावित होना.. और दूसरों को प्रभावित करना, इन दोनों के ऊपर समता की छाया तक नहीं पड़ती। तेरे रग-रग में राग भरा है निरा। भले ही बाहर से दिखती है स्फटिक मणि की रची उर्मिल उजली - तरली-सी अरी, मायाविनी झारी ! कब तक छुपा सकती हैं राज़ को ? Piew अब मेरी प्रकृति का परिचय क्या हूँ ? जो कुछ है खुला है" यूँ कुम्भ ने कहा, "यह घट घूँघट से परिचित हुआ भी कब ? आच्छादन के नाम से इस पर आकाश भर तना है चाव-बचाव, सब कुछ इसी की छाँव में है । मूकमाटी
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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