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________________ बहता-बहता कह रहा हैं : लो ! यह सन्धि-काल है ना ! महक उठी सुगन्धि है छोर-छोर तक, चारों ओर। मेरे लिए इससे बढ़ कर श्रेयसी कौन-सी हो सकती है "सन्धि वह ! न निशाकर है, न निशा न दिवाकर है, न दिवा अभी दिशाएँ भी अन्धी हैं; पर की नासा तक इस गोपनीय वार्ता की गन्ध "जा नहीं सकतीऐसी स्थिति में उनके मन में कैसे जाग सकती है दुरभि-सन्धि वह ! और"इधर सामने सरिता. जो सरपट सरक रही है अपार सागर की ओर सुन नहीं सकती, इस वार्ता को कारण ! पथ पर चलता है सत्पथ-पथिक वह मुड़ कर नहीं देखता तन से भी, मन से भी। मूक शर्टी :: ----- -
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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