SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सेठ का कुछ कहना हुआ, कि "यदि तुम्हें धरा का आधार नहीं मिलता तुम्हारी गति कौन-सी होती ! पाताल को भी पार कर जाती तुम ! धरती ने तुम्हें स्वीकारा छाती से चिपकाया है तुम्हें देबों ने तुम पर दया नहीं की, आकाश ने शरण नहीं दो तुम्हें, लोटी गिरि की चोटी पर गिरी थी सब हँसे थे तुम रोयी थी तब ! चोट लगी थी घनी तुम्हें, तरला-सरला-सी लगती थी गरला-कुटिला बन गई अब ! छल ही बल बन गया हैं तुम्हारा, सरपर भाग रही है अब सब को लांघती-लांघती। अरी कृतघ्ने ! पाप-सम्पादिके ! और अधिक पापार्जन मत कर । सारा संसार ही ऋणी है धरणी का तुम्हें भी ऋण चुकाना है धरती को लर में धारण कर, करनी को हृश्य से सुधारना है।" हाय रे यह दुर्भाग्य किसका ! सेठ का या नदी का ? । सेट का सदाशय सफल जो नहीं हुआ सेठ की समालोचना से भी मूक माटी :: .
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy