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________________ :.:.:.... नदी के लोचन नहीं खुले प्रत्युत, वह नदी और लोहित हो उठी : अरे दुष्टो ! मेरे लिए पाताल की बात करते हो ! अब तुम्हारा अन्त दूर नहीं। और भँवरदार दिशा की और गति सब ओर से आकृष्ट हो, आ, आ कर जहाँ पर सब कुछ लुप्त होता है, जहाँ पर स्वयं को परिक्रमा देता उपरिल जल नीचे की ओर निचला जल ऊपर की ओर अंति-तीव्र गति सं . ::: जा रहा है, आ रहा है, जहाँ का जलतत्त्व भू-तत्त्व को अपने में समाहित कर अट्टहास कर रहा है। जहाँ पर कुछ पशु, कुछ मृग कुछ अहिंसक, कुछ हिंसक कुछ मूर्छित, कुछ जागृत कुछ मृतक, कुछ अर्ध-मृतक अकाल में काल के कवल होने से सबके मुखों पर जिजीविषा बिखरी पड़ी है, सबके सब विवश हो बहाव में बहे जा रहे हैं। 45 :: मूक माटी
SR No.090285
Book TitleMook Mati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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