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अतिशय का सार यही रहा
भावना के फूल खिल गए खिले फूल सब फल गए; माटी के गाल घाव-हीन हो छेद-शून्य हो
"धुल गए ! आज सार्थक बना नाम
गद-हा"गदहा"धन्य । दोनों की अनुकम्पा सहना हैं सहजा बहनें-सी' लगती हैं ये, अनुजा अग्रजा-सी नहीं
'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' यह सूत्र-सूक्ति चरितार्थ होती है इन दोनों में ! सब कुछ जीवन्त है यहाँ जीवन ! चिरंजीवन !! संजीवन !!!
इस पर भी अपनी लघुता की अभिव्यक्ति करती हुई माटी की अनुकम्पा
संपदा हो या अपदा चेतन को अपना वाहन बनायात्रा करना अधूरी अनुकम्पा की दशा है यह, जो रुचती नहीं इस जीवन को।
मूक माटी :: 41