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इस भूल के लिए शूल से क्षमा याचना तो करे, माँ !"
अब माटी का सम्बोधन होता है : "अरे सुनो ! कुम्भकार का स्वभाव - शील तुम्हें कहाँ ज्ञात हैं ? जो अपार अपरम्पार क्षमा-सागर के उस पार को पा चुका है क्षमा की मूर्ति क्षमा का अवतार है।"
इतने में ही को पारिन को भी मानली.. .. . अनुकम्पा पीयूषभरी वाणी निकली शिल्पी के मुख से,
जिसमें
धीर-गम्भीरता का पुट भी है . "खम्मामि, खमंतु मेंक्षमा करता हूँ सबको, क्षमा चाहता हूँ सबसे सबसे सदा-सहज बस मैत्री रहे मेरी ! वैर किससे क्यों और कब करूँ ? यहाँ कोई भी तो नहीं है संसार-भर में मेरा वैरी !"
मूक माटी :: 105