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जो मोह से मुक्त हो जीते हैं राग-रोष से रीते हैं जनम-मरण-जरा-जीर्णता / जिन्हें छू नहीं सकते अब सप्त भयों से मुक्त, अमय-निधान, निद्रा-तन्द्रा जिन्हें घेरती नहीं... शोक से शून्य, सदा अशोक हैं।" जिनके पास संग है न संघ, जो एकाकी हैं," सदा-सर्वधा निश्चिन्त हैं,
अष्टादश दोषों से दूर। पृष्ट ५५65211 काव्य की दृष्टि से 'मूक माटी' में शब्दालंकार और अर्थालंकारों की छटा नये सन्दर्भो में मोहक है। कवि के लिए अतिशय आकर्षण है शब्द का, जिसका प्रचलित अर्थ में उपयोग करके वह उसकी संगठना को व्याकरण की सान पर चढ़ाकर नयी-नयी धार देते है, नया-नया पर उधाई है। शब्द की पत्ति उसके अन्तरंग अर्थ की झाँकी तो देती ही है, हमें उसके माध्यम से अर्थ के अनूठे और अछूते आयामों का दर्शन होता है। काव्य में से ऐसे कम-से-कम पचास उदाहरण एकत्र किये जा सकते हैं यदि हम कवि की अर्थान्चेषिणी दृष्टि ही नहीं उसके इस चमत्कार का भी ध्यान करें, जहाँ शब्द की ध्वनि अनेक साम्यों की प्रतिध्वनि में अर्थान्तरित होती हैं। उदाहरण के लिए :
युग के आदि में / इसका नामकरण हुआ है । कुम्भकार! 'कु' यानी धरती और 'म यानी/ भाग्य होता है। यहाँ पर जो/ भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो
कुम्भकार कहलाता है। (पृष्ठ 2 भावना भाता हुआ गधा 'भगवान से प्रार्थना करता है कि :
मेरा नाम सार्थक हो प्रभो ! यानी 'गद' का अर्थ है रोग 'हा' का अर्थ है हारक मैं सबके रोगों का हन्ता बनूं, "बस । (पृष्ठ 403
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