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लबालब जल से भरी हुई बालटी कूप से ऊर्ध्व-गतिवाली होती है
अब !
जिया-धर्म की दमा-धर्म की प्रभावना हो !
पतन-पाताल से
उत्थान - उत्ताल की ओर। केवल देख रही है मछली,
जल का अभाव नहीं
बल का अभाव नहीं तथापि
तैर नहीं रही मछली । भूल- सी गई है तैरना वह, स्पन्दन-हीन मतिवाली हुई है स्वभाव का दर्शन हुआ, कि क्रिया का अभाव हुआ-सा लगता है अब ! अमन्दस्थितिवाली होती है वह !
78 मूक पाटी
बालटी वह अबाधित ऊपर आई-भू पर
कूप का बन्धन दूर हुआ मछली का सुनहरी है, सुख-झरी हैं धूप का वन्दन !
द्वार