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. .. ... ... ..उसक अंग पर है !
और वह पयांप्त है उसे,
शीत का विकल्प समाप्त है। फिर भी, लोकोपचार वश कछ कहती है माटी शिल्पी से वाहर प्रांगण से ही"काया तो काया है जड़ की छाया-माया है । लगती है जाया-सी. सो. कम-से-कम एक कंबल तो.. काया पर ले लो ना ! ताकि और चुप हो जाती है माटी तुरन्त ही फिर शिल्पी से कुछ सुनती है बह
''कम बलवाले ही कंबलवाले होते हैं
और काम के दास होते हैं। हम बलवाले हैं राम के दास होते हैं
और राम के पास सोते हैं। कंबल का संबल आवश्यक नहीं हमें सस्ती सूती चादर का ही आदर करते हम ! दूसरी बात यह है कि
92 :: मूक पाटी