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घनी-घनी घटाएँ मेधों की गगनांगन में तैरने लगी छा-सा गया तामसता का साम्राज्य धरती का दर्शन दुर्लभ हुआ धरती जीवित है या नहीं मात्र पैर ही जान सकते हैं: : : :: : :: रव-रव नरक की रात्रि यात्रा करती आई हो ऊपर वर्ण-विचित्रता का विलय हो रहा प्रारम्भ हुआ प्रचण्ड पवन का प्रवाह जिसकी मुट्ठी में प्रलय छिपा है। पर्वतों के पद लड़खड़ाये और पर्वतों की पगड़ियाँ धरा पर गिर पड़ीं, वृक्षों में परस्पर संघर्ष छिड़ा कस-कसाहट आइट, स्पर्क्ष्य का ही नहीं अस्पये का भी स्पर्शन होने लगा, मृदु-कठोर का भेद नहीं रहा गुरुतर तरुओं की जड़ें हिल गई, कई वृक्ष शीर्षासन सीखने लगे बाँस दण्डवत करने लगी। धरा को छाती से चिपकने लगी।
कर्णकटुक अश्राव्य मेघों का गुरु-गर्जन इतना भीषण होने लगा कि हर्षोल्लास नर्तन तो दूर मयूर-समूह की वह
438 :: पूक माटी