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भय-विस्मय-संकोच को
आश्रय मत देओ अब ! रस्सी के एक छोर को मेरे गले में बाँध दो
और कुछ-कुछ अन्तर छोड़ कर पीछे-पीछे परस्पर पंक्ति-बद्ध हो सब तुम अपनी-अपनी कटि में कस कर रस्सी बाँध लो ! फिर
ओंकार के उच्च उच्चारण के साथ कूद जाओ धार में।" इस पर भी परिवार को दूर रहीं होते . . कुम्भ के मुख से कुछ पंक्तियाँ और निकलती हैं कि
"यहाँ बन्धन रुचता किसे ? मुझे भी प्रिय है, स्वतन्त्रता तभी तो किसी के भी बन्धन में बैंधना नहीं चाहता मैं, न ही किसी को वाँधना चाहता हूँ। जानें हम, बाँधना भी तो बन्धन है ! तथापि स्वच्छन्दता से स्वयं
442 :: भूक माटी