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तुम्हें कुछ भी नहीं कहना है तुम पर दया आती हैं:
उनको ही देखना है.
जो...
निश्छलों से छल करते हैं
जल - देवता से भी जला करते हैं।"
और
अनगिन तरंग करों से
परिवार के कोमल कपोतों पर तमाचा मारना प्रारम्भ करती है." कुपित पित्तवती नदी ।
"धरती के आराधक धूर्तो ! कहाँ जाओगे अब ? जाओ, धरती में जा छुप जाओ उससे भी नीचे !
पातको पाताल में जाओ ! पाखण्ड - प्रमुखो !
मुख मत दिखाओ हमें । दिखावा जीवन हैं। काल- भक्षी होता है, लक्ष्यहीन दीन-दरिद्र
व्याल - पक्षी होता है
धरती-सम एक स्थान पर
तुम्हारा
रह-रह कर
पर को और परधन को
अपने अधीन किया है तुमने,
ग्रहण - संग्रहण रूप
संग्रहणी रोग से ग्रसित हो तुम !
इसीलिए क्षण-भर भी कहीं रुकती नहीं मैं
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मूक पाटी 447