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सृजनशील जीवन का तृतीय सगं हुआ। परीक्षा के बाद परिणाम निकलता ही है पराश्रित-अनुस्वार, यानी बिन्दु-मात्र वणं-जीवन को तुमने ऊर्ध्वगामी-ऊर्ध्वमुखी जां स्वाचित विसर्ग किया,
सो
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सृजनशील जीवन का अन्तिय सर्व हुआ। ... . . . . . . . .
निसर्ग से ही सृज-धातु की भांति भिन्न-भिन्न उपसर्ग पा तुमने स्वयं को जो निसर्ग किया,
सृजनशील जीवन का वगांतीत अपवर्ग हुआ।"
धरती की भावना को सुन कर कुम्भ सहित सबने कृतज्ञता की दृष्टि से कुम्भकार की ओर देखा,
नम्रता की मुद्रा में कुम्भकार ने कहा
मूक मारी ::
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