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साहस - पूर्ण जीवन से नदी को बड़ी प्रेरणा मिल गई नदी की व्यग्रता प्रायः अस्त हुई समर्पण भाव से भर आई वह !
और
नम्र विनीत हो कहने लगी
उद्दण्डता के लिए क्षमा चाहती हूँ ।
हूँ
A-180
और
तरल तरंगों से रहित
धीर गम्भीर हो बहने लगी, हाव-भावों-विभावों से मुक्त
गत वचना नत नयना चिर-दीक्षिता आर्या-सी !
लगभग यात्रा आधी हो चुकी है यात्री मण्डल को लग रहा है कि गन्तव्य ही अपनी ओर आ रहा हैं, I कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण
परिश्रमी विनयशील
विलक्षण विद्यार्थी सम । परिवार भी फूल रहा है कि
पुनरावृत्ति आतंक की वही रंग है वहीं ढंग है अंग-अंग में वही व्यंग्य है, वही मूर्ति है वही मुखड़े वहीं अमूर्च्छित-तनी मूँछें वही चाल है वही ढाल हैं
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मूकमाटी : 455