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जिस भाँति लक्ष्मण की मूच्र्छा टूटी विशल्या की मंजुल अंजुलि के जल-सिंचन से। सरिता से उछले हुए सलिल-कणों का शीतल परस पा आतंकवाद की मूर्छा टूटी। फिर क्या पूछो ! लक्ष्मण की भाँति उबल उठा आतंक फिर से !
"पकड़ो ! पकड़ो ! ठहरो ! ठहरो ! सुनते हो या नहीं अरे बहरो ! मरो. या. . . . . . . .:. ...... ....... .... ...: हमारा समर्थन करो, अरे संसार को श्वभ्र में उतारने वालो ! किसी को भी तारने वाले नहीं हो तुम ! अरे पाप के मापदण्टो !
सुनो ! सुनो !"जरा सुनो ! अब धन-संग्रह नहीं, जन-संग्रह करो ! और लोभ के वशीभूत हो अन्धाधुन्ध संकलित का समुचित वितरण करो अन्यथा, धनहीनों में
मूक माटी :: 467