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धीरे धीरे
शारी की समझदारी बहुतों को समझ में आने लगी है,
और
झारीren जी
सबत होता जा रहा है, अनायास ।
421: मूक पाटी
चन्द चमक से उछलती हुई चांदी की कलश- कलशियाँ, चालाक चालकों से छली बड़ी-छोटी चमचियाँ,
तामसता से तने हुए तमतमाते ताम्र-बर्तन,
राजसता में राजी रपे
पर - प्यार से पले
और भी भ्रम में पड़े प्यासे प्याले प्यालियाँ"
जिन्हें,
पक्षपात का सर्प सैंधा था
ऐसे
लगभग सभी भाजन
स्वर्ण-पक्ष को ठुकरा कर शारी के चरणों में झुकते हैं। ली, अब
झारी कहती हैं : " हे स्वर्ण कलश !
जो माँ सत्ता की ओर बढ़ रहा है
समता की सीढ़ियाँ चढ़ रहा हैं उसकी दृष्टि में
सोने की गिट्टी और मिट्टी एक है
और है ऐसा ही तत्व !