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बाँस का उपहास करता हुआ, वंश-मुक्ता को लाँधता हुआ, बहुमूल्य मुक्ता-राशि चढ़ाता है, विनीत भाव से कुम्भ के सम्मुख ! यही कारण हो सकता है, कि यह मुक्ता ख्यात है, गज-मुक्ता के नाम से।
मौन के मृदु-माहौल में परस्पर एक-दूसरे की ओर निहारते, कुछ पल फिसलते, कि गज-मुक्ता वंश-मुक्ता में
और वंश-मुक्ता गज-मुक्ता में बहुत दूर तक अपनी-अपनी आभा पहुँचाती हैं, चिर-बिछुड़ी आत्मीयता परखी जा रही है इस समय । परन्तु, भेद-विधायिनी प्रतिभा वह बिन रसना-सी रह गई, स्व और पर का खेद मर-सा गया है स्व और पर का भेद चरमरा-सा गया है, सब कुछ निःशेप हो गया शेष रही बस, आभा ! आभा!! आभा !!!
मूक माटी :: 44