________________
आँखें मुद जाती साधारण जनता की इधर, "जो बार-बार होठों को चंबा रहे हैं, क्रोधाविष्ट हो रहे हैं, परिणामस्वरूप, होठों से लहू टपक रहा है। जिनका तन गठीला है जिनका मन हठीला है जिनने धोती के निचली छोरों को ऊपर उठा कर कस कर कटि में लपेटा है, केसरी की कटि-सी जिनकी कटि नहीं-सी है, कदली तरु-सी जिनकी जंघाएँ हैं जिन जंघाओं का मांस अट्टहास कर रहा है। यही कारण है कि जिनके घुटने दूर से दिखते नहीं हैं, निगूढ़ में जा घुस रहे हैं। मस्तक के बाल सघन, कुटिल और कृष्ण हैं जो स्कन्धों तक आ लटक रहे हैं कराल-काले व्याल-से लगते हैं। जिनका विशाल वक्षस्थल है, जिनकी पुष्ट पिंडरियों में नसों का जाल सुभरा है, धरा में वट की जड़ें-सी जिनकी आकुल आँखें, सूर्यकान्त मणि-सी अग्नि को उमल रही हैं।
मूक माटी :: 427